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 पवार की राजनीति लोग क्यों नहीं समझ पा रहे ? 

हिंदी पटटी में अक्सर ये कहा जाता है कि गुरु आपकी राजनीति क्या है लेकिन इन दिनों ये बात राजनीति में सबसे रहस्यमयी माने जा रहे शरद पवार के बारे में कहा जा सकता है . यूं तो वो अभी उस एनसीपी के चीफ है जिसके ज्यादातर विधायक अलग गुट बनाकर बीजेपी के साथ गठबंधन कर चुके हैं और यहां तक कि शरद पवार को पार्टी प्रमुख पद से हटाने का एलान कर चुके हैं लेकिन पवार की ताकत कम नही हो रही और वो खुद चुनाव आयोग को कह चुके है कि अजीत पवार की चिठठी पर ध्यान देने की जरुरत नहीं है पार्टी अभी एक ही है . 

याद रहे कि पिछली साल जब एकनाथ शिंदे ने शिवसेना तोड़ी थी तो महज कुछ दिनों में वो केवल सीएम ही नही बने बल्कि अपने नाम पर शिवसेना का चुनाव चिन्ह और नाम भी लेने में कामयाब हो गये थे लेकिन जब अजित पवार ने उनसे ज्यादा बेहतर तरीके से मुंबई में ही रहकर एनसीपी तोड़ी और अलग  पार्टी बनाने का एलान किया तो सबको यही लगा कि ये सब चाचा यानि शरद पवार की सहमति से ही हो रहा है . पवार ये मिस्ट्री अब भी बनाये हुए है कि कहने को तो वो खुलकर अभी महाविकास आघाड़ी यानि विपक्ष के साथ है लेकिन अंदर खाने किसके साथ है ये वो खुद या उनके वर्कर भी नहीं बता पा रहे है. यानि पवार के बायें हाथ को भी नहीं पता कि उनका दायां हाथ क्या कर रहा है . 

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इतना ही नहीं कुछ दिन पहले जब सब मोदी का विरोध कर रहे थे तो पवार ने उनको पुणे में तिलक सम्मान देकर दिखा दिया कि अब भी वो जब चाहे मोदी के पास पहुंच सकते हैं. असल में पवार इस तिलक सम्मान समिति के प्रमुख है और जाहिर है उनकी मर्जी के बिना तो ये सम्मान दिया ही नहीं जा सकता है. उसके बाद अगले दिन राज्यसभा जाकर फिर वो विपक्ष में बैठ गये . अब उनके साथ और उनको छोडकर जाने वाले दोनों परेशान है कि पवार साहेब के खिलाफ बोला भी जाये तो कैसे . 

असल में शरद पवार को जानने वाले ये समझते है कि शरद पवार में किसी को भी जिताने की ताकत भले सीमित है और अपनी दम पर वो बस साठ विधानसभा सीट तक ही पहुंच सकते है लेकिन उनमें हराने की ताकत बहुत बड़ी है. वो किसी को भी चुनाव में हरा सकते हैं . राज्य के सब बड़े नेता पवार की ये ताकत जानते है इसलिए कोई उनसे दुश्मनी नहीं लेना चाहता . बीजेपी को भी पता है कि पवार ने तय कर लिया तो लोकसभा चुनाव में राज्य की अड़तालीस सीटों पर मुकाबला कड़ा हो सकता है लेकिन क्या सच में पवार ऐसा चाहते हैं.

कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि शरद पवार अंदर से अब भी एनडीए के साथ है क्योंकि वो अपने परिवार को किसी तरह की जांच से बचाना चाहते है और ये भी चाहते है कि अजीत पवार गुट सत्ता में बना रहे ताकि एनसीपी के कार्यकर्ताओं के काम होते रहे .. यही वजह है कि अलग पार्टी बनाने के बाद भी अजीत पवार ने अब तक एनसीपी के चुनाव चिन्ह पर दावा नहीं ठोका न ही हर जिले ब्लाक में अपना दफ्तर बनाया है. बस है जो है वो सत्ता के साथ है . ऐसे में कांग्रेस की मुश्किल बड़ी है. पार्टी के दिल्ली के नेता किसी हाल में अभी जब तक खुद शरद पवार न कहें उनको अलग नहीं करना चाहते . हालांकि अजीत पवार के हटने के बाद खुद सोनिया गांधी ने एक बड़े नेता से पूछा था कि शरद पवार का कोई भरोसा नही है वो क्या कर सकते हैं. 

अगर महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव मे महाविकास आघाड़ी कायम रही तो तीनो के बीच अड़तालीस में से 15 सीट हरेक दल को देने और तीन सीट सहयोगियों के छोड़ देने की बात हुयी है . कांग्रेसियों को लगता है कि शरद पवार अपनी बेटी सुप्रिया को जिताने के लिए बीजेपी के साथ अंदर खाने सहयोग कर सकते हैं और तब बीजेपी एनसीपी की 15 में से कम से कम 11 सीटें जीतकर अपनी भरपाई कर सकती है. बीजेपी को सबसे बड़ा डर शिदे के साथ  आये 13 सांसदों का है वो हार सकते है ऐसे में बीजेपी का कुल नंबर कम हो सकता है . तब बीजेपी एनसीपी के जरिये ज्यादा से ज्यादा सीट जीतना चाहेगी .

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इस बीच अमित शाह ने पुणे में एक समारोह मे अजित पवार से कह ही दिया है कि बहुत देर से आये पर आये तो .. यानि संदेश साफ है कि एनसीपी को अपने साथ लाने की बीजेपी की इच्छा बहुत पुरानी थी . बीजेपी तो शऱद पवार को भी साथ लेना चाहती है लेकिन शऱद पवार इंडिया नाम के विपक्ष में ही बने रहकर फायदा पहुंचाये ये बीजेपी को ज्यादा मुफीद लग सकता है.

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संदीप सोनवलकर
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