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मोदी ब्रांड के आगे सब बौने!

शांत रहने वाले भारतीय मतदाताओं ने अपनी बात ज़ोर से कह दी है। चुनाव प्रचार के दौरान हमने ख़ास कर उत्तर और पश्चिम भारत में 'मोदी, मोदी' की उन्मादी नारेबाजी सुनी है। यह उग्र राष्ट्रवाद और विभाजनकारी धार्मिकता को मिला कर तैयार की गई राजनीतिक सेना को लगातार एक विचारधारा की घुट्टी पिलाने का नतीजा है।
राजदीप सरदेसाई
इंदिरा गाँधी के बाद लगातार दो बार बहुमत वाली सरकारें बना कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नया इतिहास रचा है। उनके लिए मौक़ा है उन लोगों को धन्यवाद पत्र भेजने का, जिन्होंने उनकी राजनीतिक जीत में महत्वपूर्ण योगदान किया है।

अमित शाह

पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से ज़्यादा कोई नहीं है, जिसके अंदर हर हाल में जीतने की इतनी ज़्यादा भूख हो। सिर्फ़ एक आँकड़ा इस भूख को बताने के लिए काफ़ी होगा। पिछले पाँच सालों में शाह ने पश्चिम बंगाल का 91 बार दौरा किया है। यह वह राज्य था, जो बीजेपी के रडार से परे था। अमित शाह की महात्वाकांक्षा को अथाह संसाधनों और पार्टी कार्यकर्ताओं की ज़बरदस्त फ़ौज ने न केवल बलवती किया, बल्कि शाह को भी मोदी के दुबारा चुनने में एक बहुत बड़ा कारण बना दिया। यह अमित शाह ही थे, जिन्होंने अपने तौर तरीकों में लचीलापन लाते हुए बिहार और महाराष्ट्र में गठबंधन को एक नया स्वरूप दिया। गठबंधन करने का उनका यह तरीका उनके विरोधियों के तौर तरीकों से बिल्कुल उलट था। 
अमित शाह का तरीका बिना किसी अपराध बोध से ग्रसित हुए साम-दाम-दंड-भेद का था, जिसमें किसी तरह के मुलायमियत या नैतिकता के लिए कोई जगह नहीं थी। वह सिर्फ़ ज़बरदस्त प्रतिस्पर्द्धा की भावना के साथ जुटे रहे, जो चुनाव जीतने के लिए बहुत ज़रूरी होता है।
हम आपको याद दिला दें कि किस तरीके से वह बांग्लादेश के प्रवासियों को 'दीमक' कहने से नहीं हिचके और न ही उन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ था। बीजेपी के सोशल मीडिया कैंपेन में फ़ेक न्यूज़ की तादाद थी, बल्कि वह लगभग फ़ेक न्यूज़ को प्रोत्साहित करते हुए दिखे।

कांग्रेस

वह कौन सा वक़्त था, जब 2019 का चुनाव नरेंद्र मोदी सरकार की संभावित हार से एक चमत्कारिक सुनामी में तब्दील हो गया? आज यह कहने में अजीब लग सकता है, लेकिन 2018 दिसंबर की वह शाम जब 3 हिन्दी भाषी राज्यों में कांग्रेस ने सरकार बनाई थी, मेरे ख़्याल से यही वह वक़्त था जो मोदी के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। इस जीत से कांग्रेस पार्टी को यह भ्रम हो गया कि उसे अपराजेय मोदी अमित शाह और आरएसएस को हराने का कोई जादुई फ़ॉर्मूला मिल गया है। कांग्रेस यह समझने में नाकाम रही कि बीजेपी की हार नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व पर कोई टिप्पणी नहीं थी, बल्कि तीनों राज्यों में बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ स्थानीय माहौल था, जिसका फ़ायदा कांग्रेस को हुआ था। 2019 के चुनाव में कांग्रेस के बाद यह मौका था कि वह रणनीतिक गठबंधन करके अपने प्रभाव को बढ़ा सकती थी और मोदी के असर को कम कर सकती थी। लेकिन, उन्होंने ग़लत फ़ैसले किए।
इसके विपरीत दिसंबर की हार ने बीजेपी नेतृत्व को नींद से जगा दिया और किसान सम्मान नक़द योजना, ग़रीबों को आरक्षण देने का आनन फानन में फ़ैसला किया और लोगों के ग़ुस्से को कम करने का प्रयास किया।

राहुल गाँधी

कांग्रेस अध्यक्ष ने इस चुनाव में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी और बहुत ही ऊर्जावान प्रचार किया, लेकिन उनके प्रचार में एक योजनाबद्ध रणनीति का अभाव दिखाई दिया।
रफ़ाल से लेकर नोटबंदी, नोदबंदी से लेकर जीएसटी जैसे मुद्दों के ज़रिए कांग्रेस नेतृत्व ने लगातर नरेंद्र मोदी सरकार पर तीखे हमले किए। लेकिन वह जनता के सामने कोई वैकल्पिक नैरेटिव नहीं दे पाए।
और जब राहुल गाँधी ने अपने प्रचार में ‘न्याय’ को जोड़ा और उसके ज़रिए संवाद स्थापित करने की कोशिश की तो वह लोगों की सोच से ज़्यादा नहीं जुड़ पाया। कांग्रेस समाज के एक बड़े तबके तक ‘न्याय’ को नहीं पहुँचा पाई। यह इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस ‘न्याय’ को न तो सही तरीके से परिभाषित कर पाई, न ही जनता को बता पाई कि इसका क्या मतलब है। फिर राहुल गाँधी की विरासत अगर उनके लिए फ़ायदे का सौदा है तो वह उनको नुक़सान भी पहुँचाती है। अगर वह अपने जन्म की वजह से कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे हैं तो इसी बात को नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी नारे में बदल दिया। मोदी ने लगातार ‘कामदार’ और ‘नामदार’ का ज़िक्र करते हुए ख़ास कर युवा मतदाताओं को यह समझाने की कोशिश की कि सिर्फ़ एक परिवार में पैदा होना ही बड़ी खूबी नहीं हो सकती।

क्षेत्रीय विपक्ष

ममता, मायावती और चंद्र बाबू नायडूू मोदी विरोध में एकट्ठा तो हुए, लेकिन यह लुंज-पुंज मोर्चा ही साबित हुआ। 1977 के तरीके से महागठबंधन बनाने की कोशिशें कामयाब नहीं हुईं, क्योंकि अंदरूनी अंतरद्वंद्व इतने तीखे थे कि मोदी को हटाने की इच्छा पर भारी पड़ गए। अपनी-अपनी ज़मीन बचाने का संघर्ष और अवसरवादी गठबंधन कभी भी एक गंभीर और विश्वसनीय विपक्ष का स्थान नहीं ले सकता। जो लोग नरेंद्र मोदी को तानाशाह कह कर गालियाँ देते थे, वे अपने राज्यों में उसी तरह का तानाशाही रवैया दिखाते रहे थे। एक मजबूत नेता का नैरेटिव संभावित ‘महामिलावट’ गठबंधन के अंकगणित पर भारी पड़ा।  

मसूद अज़हर और पाक की आतंक फ़ैक्ट्री

मोदी की राजनीति को लगातार एक दुश्मन की तलाश रहती है। 2002 में जब उन्होंने गुजरात का पहला चुनाव जीता था तो ‘राष्ट्रद्रोही मुसलमान’ और ‘मियाँ मुशर्रफ़’ गोधरा ट्रेन हादसे के बाद लगातार उनके निशाने पर थे। इस घटना के 17 साल बाद उन्होंने अपने नारों में बस मामूली फेरबदल किया है। पुलवामा और बालाकोट हमलों के बाद मोदी ने जैश-ए-मुहम्मद के प्रमुख और जिहादी आतंकवादी को निशाने पर लिया।
‘घर में घुस कर मारा’ यह वाक्य एक राष्ट्रवादी पाकिस्तान विरोधी आक्रोश में तब्दील हो गया। इस नारे की आड़ में उन्होंने अपने आपको मजबूत नेता के तौर पर पेश किया और पूरे चुनाव को राष्ट्रपतीय प्रणाली में बदल दिया।

मीडिया

नव वर्ष के दिन जब मोदी ने एक टीवी न्यूज एजेंसी को इंटरव्यू दिया था, जिसे पूरे देश में सभी चैनलों ने दिखाया था, से लेकर अक्षय कुमार से ग़ैर-राजनीतिक गुफ़्तगू तक या मतदान के आख़िरी दिन प्रधानमंत्री की आध्यात्मिक यात्रा ऐसा लगता है कि सिर्फ़ टेलीविज़न के लिए ही किया गया था। मीडिया में सिर्फ़ एकतरफा बातें की गईं और विपक्ष को पूरी तरीके से अदृश्य कर दिया गया।
2019 भारत के इतिहास में एक ऐसे साल के तौर पर याद रखा जाएगा जब पूरे चुनाव को एक सुनियोजित इवेंट मैनेजमेंट में परिवर्तित कर दिया गया, जिसमें गोदी मीडिया ने मोदी के प्रचार को बढ़ाने का काम किया और विपक्ष के लिए कोई मौक़ा नहीं था।
एक टीवी ऑडियंस रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल के महीने में टीवी न्यूज़ चैनल पर मोदी को 722 घंटे से ज़्यादा दिखाया गया जबकि राहुल गाँधी को 252 घंटे से थोड़ा कम। एक टेलीविज़न चैनल ने तो ख़बर और  प्रचार के बीच की सीमा रेखा को धुंधला करते हुए हर मतदान के ठीक पहले मोदी का इंटरव्यू दिखाया। फ़ेसबुक जैसे बड़े सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म से लेकर वॉट्सऐप जैसी मैसेज सेवा तक, सब पर 'सुपरमैन मोदी' के मिथक का एकाधिकार हो गया। स्थानीय मुद्दे ग़ायब हो गए और उनकी जगह ले ली मोदी की सुनियोजित तरीके से तैयार की गई नायक की छवि, जिसमें कैमरा हमेशा मौजूद रहता है और सुप्रीम नेता की ऐसी छवि गढ़ता है जिसमें किसी तरह की आलोचना नहीं की जाती है।

चुनाव आयोग

सहमा हुआ चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल की ओर से आचार संहिता के लगातार उल्लंघन को चुपचाप देखता रहा, जिससे यह साफ़ पता चलता है कि स्वतंत्रता और निष्पक्षता की अवधारणा में अंदर से क्षरण हुआ है और ये खतरे में हैं।
इसकी जाँच होनी चाहिए कि चुनाव आयोग ने नमो टीवी को सरकार के प्रचार की मशीनरी होने के बावजूद लगातार काम करते रहने दिया।
यहाँ तक कि प्रधानमंत्री की केदारनाथ यात्रा से भी राजनीतिक नैतिकता पर सवाल उठे, क्या किसी नेता को मतदान के दिन धार्मिक प्रतीक का इस्तेमाल कर मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश मिलने की छूट होनी चाहिए?

शांत मतदाता

शांत रहने वाले भारतीय मतदाताओं ने अपनी बात ज़ोर से कह दी है। चुनाव प्रचार के दौरान हमने ख़ास कर उत्तर और पश्चिम भारत में 'मोदी, मोदी' की उन्मादी नारेबाजी सुनी है। यह उग्र राष्ट्रवाद और विभाजनकारी धार्मिकता को मिला कर तैयार की गई राजनीतिक सेना को लगातार एक विचारधारा की घुट्टी पिलाने का नतीजा है। पर विश्वसनीय भगवा समर्थक और 'हिन्दुकृत' मध्यवर्ग  के अलावा बड़ी तादाद में अनिश्चितता की स्थिति में वे वोटर थे, जिन्हें मोदी यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि वे ही काम कर सकते हैं। सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर के आँकड़ों से छेड़छाड़ की गई होगी, अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी हो गई होगी, रोज़गार कम हो गए होंगे, कृषि आय कम हो गई, लेकिेन जब टॉयलेट, रसोई गैस के सिलिंडर, कम क़ीमत के मकान सशक्तिकरण के प्रतीक बन जाते हों और पाकिस्तान पर हवाई हमला मजबूत देशभक्ति का प्रतीक बन जाए तो शासन करने के लिए एक मौक़ा देने की बात उठती है। ये भारत के नए वोटर हैं, जो जाति, वर्ग, ग्रामीण-शहर के विभाजन, लैंगिक और क्षेत्रीय विभाजन और तेज़ी से बढ़ रही आकांक्षाओं के परे मोदी के रथ को जीत तक खींच ले गए।
पुनश्च : चूँकि मोदी ख़ुद सेल्फी लेने की धुन में रहते हैं, शायद वह धन्यवाद का कार्ड ख़ुद को और अपनी कोर टीम को भेज दें। बालाकोट से लेकर वाराणसी और वाराणसी से लेकर केदारनाथ तक, टीम मोदी ने ब्रांड बनाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा। प्रधानमंत्री की सच्चाई से बड़ी छवि ने विपक्ष को बौना कर दिया, राजनीतिक मार्केटिंग और संचार के मामले में और ज़बरदस्त प्रचार के मामले में। शायद मोदी अब एक कटोरी आम का मजा लें।
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