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राहुल की ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति: एक उद्घोषणा, चेतावनी और आश्वासन!

“बिना सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के यह देश प्रगति कर ही नहीं सकता”। यह बात राहुल गाँधी ने तब कही जब ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ पश्चिम बंगाल से बिहार पहुंची। सामाजिक न्याय की धरती, बिहार, में बोले गए उनके यह शब्द भले ही पहले भी कई बार सुने गए हों लेकिन इस बार इन शब्दों में अंतर्निहित भाव बिल्कुल जुदा थे। राहुल गाँधी की भाषा में ‘उद्घोषणा’, ‘चेतावनी’ और ‘आश्वासन’ एक साथ आगे बढ़ते हैं और सामने बैठे जनमानस को ‘गर्व’, ‘अभय’ और ‘आशा’ से भर देते हैं। 

सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले जय प्रकाश नारायण, लोहिया और कर्पूरी ठाकुर जैसे लोगों की जन्मस्थली में ये बातें नई नहीं हैं। न ही ये बातें सम्पूर्ण भारत के लिए नई हैं। इसकी एक महत्वपूर्ण व्याख्या संविधान सभा में अपने समापन भाषण के दौरान बाबा साहब आंबेडकर ने की थी। उनका मत था कि “यदि राजनैतिक लोकतंत्र का आधार सामाजिक लोकतंत्र नहीं है तो वह नष्ट हो जाएगा”। लोकतंत्र को ‘राजनैतिक लोकतंत्र’ का पर्यायवाची समझने वालों के लिए अंबेडकर के ये शब्द चुभ सकते हैं लेकिन यथार्थ यही है कि भारत में लोकतंत्र को नष्ट होने से बचाना है तो ‘सामाजिक लोकतंत्र’ को उसका आधार बनाना जरूरी है। सामाजिक लोकतंत्र में सामाजिक न्याय आधारतभूत तत्व है और राहुल गाँधी इसी आधारभूत तत्व को आगे रखकर अपनी यात्रा कर रहे हैं। 
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भारत के संविधान की प्रस्तावना में वर्णित तीन किस्म के न्याय-सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक-एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। राजनीतिक न्याय का साफ साफ दिखने वाला स्तम्भ सामाजिक और आर्थिक न्याय की नींव पर खड़ा है। सामाजिक और आर्थिक न्याय की अस्थायी और कमजोर प्रकृति राजनैतिक न्याय के साथ साथ सम्पूर्ण भारतीय लोकतंत्र को भूमि में गिरा देगी। 
हर तरफ बहसों और विश्लेषणबाजों की फौज हाजिर है जो अनवरत चुनाव, वोट और सत्ता के विचार से ओतप्रोत रहते हैं। जबकि संविधान निर्माताओं का दृष्टिकोण कभी इतना संकुचित नहीं था। 1956 में संसदीय लोकतंत्र पर आयोजित एक गोष्ठी में बोलते हुए प. जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट किया- 

“….लोकतंत्र को राजनैतिक लोकतंत्र के रूप में ही पहचाना गया जिसमें मोटे तौर से एक व्यक्ति एक मत होता है। किन्तु मत का उस व्यक्ति के लिए कोई महत्व नहीं होता जो निर्धन और निर्बल हैं।…राजनैतिक लोकतंत्र अपने आप में पर्याप्त नहीं है…।”


- जवाहर लाल नेहरू, प्रथम प्रधानमंत्री

लेकिन ‘खिताबी’ राजनीति के आदी हो चुके बहुत से लोगों को यह सब किताबी लगता है इसीलिए उन्हे राहुल गाँधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर बिल्कुल भरोसा नहीं है। ‘पन्ना प्रमुख’ वाली राजनीति के इस दौर में सामाजिक न्याय जैसे मूल्य राशन की दुकानों में लगी कतारों से तय हो रहे हैं। मुश्किल से पेटभर अनाज बांटकर सरकार भारत के गरीब और वंचित नागरिकों से उनकी राजनैतिक स्वतंत्रता को अपने पास गिरवी रखना चाहती है। प्रधानमंत्री इस बात से खुश हो जाते हैं कि एक बूढ़ी महिला ने कहा कि मोदी मेरा पेट भरता है। आजादी के 75 साल बाद भी भारतीय नागरिकों को इस नीयत और दृष्टि से देखना दुर्भाग्यपूर्ण है। जबकि भारत के पहले उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन भारतीय लोकतंत्र के स्थायित्व और नागरिकों की आर्थिक स्थिति के बीच संबंध खोज निकालते हैं। उन्होंने कहा 

…जिनके पास कोई काम नहीं है मजदूरी नहीं मिल रही, भूख से मर रहे हैं..गरीबी के शिकार हैं वे संविधान की विधि पर गर्व नहीं कर सकते।”


-डॉ. राधाकृष्णन, प्रथम उपराष्ट्रपति

आज के दौर में यह बात राहुल गाँधी के इन शब्दों से और पुख्ता हो जाती है जिसमें वो कहते हैं कि “गरीब व्यक्ति को न ही आर्थिक न्याय मिलता है न ही सामाजिक न्याय मिलता है”। धन और संसाधनों के केन्द्रीकरण पर चोट करने वाले राहुल गाँधी का यह वक्तव्य डॉ. राधाकृष्णन के उपर्युक्त कथन का परिणाम है जो आज भारत के सामने आ खड़ा हुआ है। 
नरेंद्र मोदी की राजनैतिक पद्धति द्वारा राम मंदिर का ‘भव्य’आयोजन कर लिया गया। इंडिया गठबंधन के एक महत्वपूर्ण सहयोगी नीतीश कुमार को भी तोड़ लिया गया। हाल ही में सम्पन्न हुए 4 में से 3 विधानसभा चुनावों में जीत भी हासिल कर ली गई थी। असम में भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री हिमन्त बिस्वा सरमा द्वारा यात्रा को रोके जाने के सभी प्रयास कर डाले, मसलन: शंकरदेव मंदिर में एक फर्जी कार्यक्रम का बहाना बनाकर मंदिर में जाने से रोकना, राहुल गाँधी के खिलाफ मुक़द्दमा लिखा जाना, ‘बॉडी डबल’ के घटिया आरोप को पवित्र ‘धर्मग्रंथ’ की तरह पेश किया जाना, यह सब किया गया। लेकिन इसके बावजूद तमाम स्रोत राहुल गाँधी की लगातार बढ़ रही लोकप्रियता को रिपोर्ट करने में लगे हैं। ऐसे में राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता ने जाहिलियत के कपड़े पहनने में देर नहीं की।
अभी असम के मुख्यमंत्री द्वारा किया गया व्यवहार जनता भूल नहीं पाई थी पश्चिम बंगाल के भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी (जो भाजपा में शामिल होने से पहले भ्रष्टाचार के आरोपी थे) ने कहा कि “मैं पिछले चार दिनों से लगातार राहुल गांधी के बारे में सुन रहा हूँ। वह कौन हैं? एक (यहां पर एक आपत्तिजनक शब्द इस्तेमाल किया) कुछ दिन पहले उन्होंने कहा था कि वह सुबह चाय बनाने के लिए स्टोव पर कोयले के टुकड़े डालते हैं। ये कोई तथ्य है कि कोयला स्टोव पर डाला जा सकता है, ये मेरी जानकारी या समझ से परे था।”
सुवेंदु अधिकारी ने जो कहा है वह एक अधूरी जानकारी के आधार पर तैयार किया गया बयान है। राहुल गाँधी के ‘आलू से सोना’ वाले भाषण को भी फेक करके तैयार किया गया था। वास्तविकता तो यह है कि सम्पूर्ण भारतीय जनता पार्टी का इकोसिस्टम फेक खबरों और मीम के माध्यम से एक ऐसी ‘यात्रा’ को तोड़ने, रोकने और परेशान करने की कोशिश कर रहा है जिसका उद्देश्य इतना है कि आम भारतीय जनमानस को ‘न्याय’ सुनिश्चित हो सके। राहुल गाँधी ने ‘न्याय’ का आह्वान मात्र किया है और जनसमुदाय उमड़ पड़ा है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में जनता ने जिस तरह राहुल का साथ दिया वह भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए एक स्पष्ट संदेश था जिसे उन्होंने बीते 8-9 महीनों से अनदेखा कर रखा था। पूरा मणिपुर जलता रहा लेकिन पीएम मोदी को एक शब्द भी बोलने की फुरसत नहीं मिली जबतक मणिपुर की दो महिलाओं को अपमानित करने वाला विडिओ सामने नहीं आया। जलते हुए मणिपुर में भारत के प्रधानमंत्री सांत्वना देने तक नहीं गए। उनकी क्या मजबूरी थी मुझे नहीं पता लेकिन यह निश्चित रूप से ‘न्याय’ के प्रति उनकी अनास्था का एक उदाहरण जरूर समझा जाना चाहिए।
भाजपा नेताओं की घबराहट इतनी अधिक है कि यात्रा शुरू हुए अभी तीन हफ्ते ही हुए हैं अभी एक चौथाई यात्रा ही सम्पन्न हुई है लेकिन यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को बस राहुल गाँधी के खिलाफ कुछ कह देने की जल्दबाजी है। मौर्या ने कहा कि “कांग्रेस के सरदार श्री राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा विफल हो चुकी है, तीसरी बार मोदी सरकार को इंडी गठबंधन नहीं रोक पायेगा! इंडी (INDIA) गठबंधन का खेला ख़त्म हो गया है!” 
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जो यात्रा अभी शुरू ही हुई हो उसे खत्म करार देना यथार्थ से ज्यादा उनके द्वारा देखा जाने वाला एक हसीन स्वप्न प्रतीत होता है। भाजपा नेताओं की नफरत को राजनैतिक बयानबाजी मात्र नहीं समझना चाहिए। किसी व्यक्ति के चरित्र हनन को राजनैतिक बयानबाजी कैसे समझा जा सकता है? यह तो एक खास स्कूल में प्रशिक्षण पाए हुए विद्यार्थी जैसे लगते हैं जिन्हे एक धर्म/विचार/दल और व्यक्ति के खिलाफ सैद्धांतिक रूप से भड़काया जैसा लगता है। जबकि राहुल गाँधी जहां भी जा रहे हैं उनका संदेश बिल्कुल स्पष्ट है। बंगाल में उन्होंने कहा कि “बंगाल में नफरत के खिलाफ एकजुट होना हर किसी की जिम्मेदारी है। सभी को एकजुट होना चाहिए और बंगाल को रास्ता दिखाना चाहिए''। 
प्रेम और न्याय जैसे मूल्यों में राहुल गाँधी की अथाह आस्था उन्हे  एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित करती जा रही है जिसने राजनीति में रहने के बावजूद खुद सिर्फ ‘चुनावी राजनीति’ तक सीमित रखने के विचार से इंकार कर दिया है। जीत निश्चित रूप से आकर्षक और प्रभावी है लेकिन राहुल गाँधी का एजेंडा न्याय की जीत में निहित है और यदि इसमें वह विजयी न होकर एकल सशक्त और हिमालयी विपक्ष भी बन जाए तो भी कोई आपत्ति नहीं लेकिन वह विपक्ष को एक ऐसे स्तम्भ के रूप में अवश्य स्थापित करना चाहते हैं जो लगातार आरएसएस और भाजपा को तब जरूर दिखता रहे जब भी वो अन्याय और उत्पीड़न के विचार से भारत को वैचारिक आधार पर तोड़ने की योजना बना रहे हों।  
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कुणाल पाठक
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