यूं तो यह समय हर एक के लिए कठिन है लेकिन प्रवासी मजदूरों के लिए कुछ ज़्यादा ही। बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का महानगरों से अपने गांवों की ओर हजारों किलोमीटर लंबे सफर को पैदल ही तय करते देखना कष्टदायक है। लंबा सफर तय करते हुए उनके पैर में छाले पड़ चुके हैं।
लॉकडाउन: अपना दर्द किससे कहें मजदूर, कोई सुनने वाला नहीं!
- पाठकों के विचार
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- 9 May, 2020
लॉकडाउन ने मजदूर वर्ग को दोराहे पर ला खड़ा किया है। रोजी-रोजी का विकट संकट उनके सामने है। न जाने उन्हें अब कब रोज़गार मिलेगा।

उन दृश्यों को देखकर बेचैनी बढ़ जाती है जिसमें मजदूर पति-पत्नी अपने छोटे-छोटे बच्चों को कंधे पर उठाए चले जा रहे हैं। न उनके पेट में रोटी है, न हाथ में रोज़गार। वे तो बस चले जा रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने घरों को लौटना है।