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नफ़रत की राजनीति बीजेपी ने की तो हिंदुत्व के लिए केजरीवाल निशाने पर क्यों?

यह कहना एक हद तक ठीक है कि केजरीवाल की जीत देश में फैलाई जा रही नफ़रत और विभाजन की राजनीति का मुकम्मल जवाब नहीं है पर इस बात से भला कोई कैसे इनकार करेगा कि राष्ट्रीय राजधानी के सीमित दायरे में ही सही, नफ़रत की राजनीति का यह एक महत्वपूर्ण रणनीतिक जवाब है। इसका विस्तार अगर विचार और जनाधार के स्तर पर हो तो मुकम्मल-जवाब देना आसान हो जाएगा।

उर्मिेलेश

चुनाव-नतीजे और मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण के बाद उदार, प्रगतिशील और वामपंथी सोच के कुछ प्रमुख बुद्धिजीवियों और टिप्पणीकारों ने अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी की कई मुद्दों पर आलोचना की है। आलोचकों की मुख्य नाराज़गी इस बात को लेकर है कि शाहीन बाग़ जैसे बेमिसाल प्रतिरोध-मंच को लेकर केजरीवाल और 'आप' का नज़रिया सुसंगत क्यों नहीं रहा या कि वह वहाँ गए क्यों नहीं? चुनाव बीत जाने के बाद भी वह क्यों नहीं जा रहे हैं? कोई कह रहा है कि केजरीवाल ने बीते रविवार को जब मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली तो इस बार उनके सिर पर पार्टी की ख़ास पहचान वाली सफेद टोपी नहीं थी, उनके माथे पर बड़ा-सा टीका लगा हुआ था! क्या अब वह राजनीति में धर्म या धार्मिक प्रतीकों की दख़ल और दिखावेबाज़ी को ज़रूरी मानने लगे हैं? कोई उनकी जीत को 'सॉफ़्ट हिंदुत्व' की जीत बता रहा है तो कोई इसे एक हद तक 'हिन्दू तुष्टीकरण' की राजनीति की कामयाबी की संज्ञा दे रहा है! कुछ संजीदा टिप्पणीकार उनकी 'जीत में छुपी कायरता' को भी रेखांकित कर रहे हैं!

सियासत से ख़ास

आलोचकों को केजरीवाल से इतनी अपेक्षाएँ क्यों?

अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की ऐसी तमाम आलोचनाएँ पूरी तरह निराधार नहीं हैं! इस बात से कौन इनकार करेगा कि केजरीवाल अपने समूचे चुनाव-अभियान के दरम्यान शाहीन बाग़ या 'सीएए एनआरसी-विरोधी' आंदोलन के मंच से अपनी भौतिक दूरी बनाए रहे! लेकिन सीएए के विधेयक (कैब) का उनकी पार्टी ने संसद में जमकर विरोध किया! शाहीन बाग़ इलाक़े से उनकी पार्टी के उम्मीदवार को मतदाताओं ने सत्तर हज़ार से भी ज़्यादा मतों के अंतर से जिताया! चुनाव से पहले, उसके दरम्यान और जीतने के बाद भी 'आप' उम्मीदवार शाहीन बाग़ के साथ लगातार खड़ा रहा है! 

केजरीवाल या आम आदमी पार्टी तो हमेशा से ऐसे ही रहे हैं! वह कभी वाम रुझान के नेता नहीं थे! अगर बारीकी से देखें तो वह शुरू से ही दक्षिण-मध्यमार्ग के सुधारवादी नेता रहे हैं! आर्थिक और सामाजिक-महत्व के कई मुद्दों पर उनका सोच घोर दक्षिणपंथियों जैसा रहा है! नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों और सामाजिक न्याय के सवालों पर केजरीवाल और उनकी पार्टी की वैचारिकी कभी साफ़ और सुसंगत नहीं रही! फिर नाज़ुक दौर के एक बेहद चुनौतीपूर्ण चुनाव में केजरीवाल से ज़्यादा 'क्रांतिकारिता' दिखाने की ऐसी उम्मीदें क्यों?

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों का सुसंगत विश्लेषण आज की ठोस राजनीतिक परिस्थितियों की रोशनी में ही किया जाना चाहिए। चुनाव में केजरीवाल को ऐसा होना चाहिए, वैसा करना चाहिए था, इन बातों का कोई मतलब नहीं! हाँ, चुनाव के बाद शासन में अब केजरीवाल या 'आप' को क्या और कैसे करना चाहिए, यह आम जन और राजनीतिक टिप्पणीकारों के सरोकार के जायज़ विषय ज़रूर हैं! टिप्पणीकारों को इस बात की भी पड़ताल करनी चाहिए थी कि इस चुनाव में कांग्रेस के रूप में तीसरा पक्ष भी था! वह बुरी तरह क्यों हारा? उसके वोट प्रतिशत में भी भारी गिरावट दर्ज हुई! अगर वह आम आदमी पार्टी के मुक़ाबले ज़्यादा सुसंगत और तात्कालिक मुद्दों पर अपेक्षाकृत ज़्यादा साफ़ था तो जनता को आकृष्ट करने में इस कदर विफल क्यों रहा? 

भारतीय जनता पार्टी के सांप्रदायिक विद्वेष भरे भयावह चुनाव-अभियान के बरक्स तीसरे पक्ष की विफलता और आम आदमी पार्टी की सफलता के क्या मायने हैं?

केजरीवाल की राजनीति और गठबंधन

आइए, इस चुनाव के राजनीतिक संदर्भ को देखें! सीएए-एनआरसी के राष्ट्रीय मुद्दा बनने के बाद देश में यह दूसरा चुनाव था। इससे पहले दिसम्बर में झारखंड का चुनाव हुआ था। इन दोनों चुनावों में बीजेपी को बुरी तरह हारना पड़ा। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल और उनकी पार्टी के सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलनों में खुली हिस्सेदारी न होने की शिकायत करने वालों को यह भूलना नहीं चाहिए कि 'आप ने संसद में कैब (CAB) का सिर्फ़ बोलकर ही नहीं, मतदान के स्तर पर भी विरोध किया था। 

दिल्ली में 'आप' की चुनावी जीत में मुझे तीन बड़े 'फ़ैक्टर्स' नज़र आते हैं: 

  • पहला कि यह केजरीवाल सरकार की व्यवस्थित जन-कल्याणकारी योजनाओं के प्रति मतदाताओं का समर्थन है! 
  • दूसरा कि यह एक तरह के 'गठबंधन' की जीत है!
  • तीसरा कि यह शाहीन बाग़ की भी जीत है।

गठबंधन और शाहीन बाग़ की जीत

दूसरे और तीसरे फ़ैक्टर्स पर किसी का चौंकना स्वाभाविक है! मैं क्यों कह रहा हूँ कि केजरीवाल ने दिल्ली का यह चुनाव 'गठबंधन' के बल पर जीता। यह गठबंधन किसी दल या नेता ने नहीं, जनता ने बनाकर केजरीवाल को सौंप दिया। यह गठबंधन दो स्तरीय था-सामाजिक भी और राजनीतिक भी। इसमें केजरीवाल के राजनीतिक-सोच, ख़ासकर अन्ना आंदोलन और उसके बाद की 'आप-वैचारिकी' से पूरी तरह असहमत लोग भी शामिल थे। इसमें ऐसे वाम, प्रगतिशील और कांग्रेस-समर्थक भी थे, जो 'आप के प्रति किसी तरह की सहानुभूति न रखने के बावजूद मोदी-शाह की बीजेपी को हराने के लिए पूरी मज़बूती से 'आप' के साथ खड़े थे। अल्पसंख्यक, ख़ासतौर पर मुसलमान, जिनकी पहली पसंद कभी केजरीवाल नहीं थे, उन्होंने भी इस महत्वपूर्ण चुनाव में कांग्रेस को छोड़कर 'आप' का साथ दिया, जबकि कुछ ही महीने पहले लोकसभा में उनके एक उल्लेखनीय हिस्से ने दिल्ली में कांग्रेस का साथ दिया था। बीएसपी को इस चुनाव में मात्र 0.7 फ़ीसदी वोट मिले। सन् 2013 में उसे पाँच फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे। दिल्ली में दलित व्यापक तौर पर 'आप' के साथ आया।

और यह शाहीन बाग़ की भी जीत है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी यह चुनाव केजरीवाल और उनकी पार्टी से शाहीन बाग़ के हवाले लड़ रही थी! इसमें उसकी बड़ी हार हुई! इसलिए, प्रकारांतर से यह शाहीन बाग़ की भी जीत है!

‘आप’ की जीत के ज़रूरी संकेत

दिल्ली चुनाव नतीजों पर मुख्यधारा मीडिया यानी गोदी मीडिया और जनपक्षी डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। कुछ लोगों ने केजरीवाल की जीत को 'सॉफ़्ट-हिन्दुत्व' की जीत कहा है और इसके लिए दलील दी है कि चुनाव में उन्होंने 'हनुमान चालीसा' पढ़ा था। उन्होंने शाहीन बाग़ जाने से परहेज किया था। चुनाव के बाद वह हनुमान मंदिर गए और बाद में पत्रकारों से भी कहा कि उनकी जीत के लिए दिल्ली की जनता का शुक्रिया और हनुमान जी का भी शुक्रिया! कुछ लोगों का सेक्युलर मिज़ाज इससे डोल गया। पर दिल्ली की आम आदमी पार्टी की चुनावी जीत की व्याख्या इतने संकीर्ण दायरे और सीमित आधारों पर नहीं होनी चाहिए। 

किसी पार्टी का नेता अगर धार्मिक है तो यह उसकी अपनी संवैधानिक स्वतंत्रता है। उसकी राजनीति का मूल्यांकन सिर्फ़ उसके किसी एक बयान या उसकी धार्मिकता के आधार पर नहीं हो सकता। उसने चुनाव में कहीं भी बीजेपी की तरह धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं को विभाजित करने या वोट माँगने की कोशिश नहीं की! भयानक प्रतिकूलताओं के बीच पाँच साल अगर उसने सफलतापूर्वक सरकार चलाई और फिर से जनादेश हासिल किया है, और वह भी इतना शानदार जनादेश तो इसकी व्याख्या भावुकता और निजी पसंदगी-नापसंदगी के बजाय ठोस राजनीतिक तथ्यों, उस पार्टी के कामकाज और एजेंडे के आधार पर करनी होगी।

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केजरीवाल बनाम मोदी मॉडल

दिल्ली की केजरीवाल सरकार की सबसे बड़ी बात क्या रही है— बिजली-पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उसके काम। ऐसे दौर में जब केंद्र की मोदी सरकार और देश-परदेस के तमाम कथित उदार-आर्थिकी के विचारक जनता के कल्याणकारी कामों से सरकारों को परहेज करने को विकास के लिए ज़रूरी मानते हैं, केजरीवाल सरकार ने दिल्ली में स्कूलों और अस्पतालों को सुधारने-सँवारने पर ख़र्च करना शुरू किया। बजट का एक तिहाई से अधिक उन्होंने इन मदों में ख़र्च करने का फ़ैसला किया और उसे करके दिखाया। उनकी सरकार ने महिलाओं के लिए दिल्ली में बस यात्रा मुफ़्त की तो उनके विरोधियों, ख़ासकर बीजेपी समर्थकों ने उन्हें जमकर कोसा कि केजरीवाल सरकारी फ़ंड को खैरात में लुटा रहे हैं। लेकिन कैसी विडम्बना रही कि ठीक उसी दौर में मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के देशी-विदेशी दौरों के लिए नये बोइंग-777 विमान ख़रीदने का फ़ैसला किया। मिसाइल डिफेंस सिस्टम से लैस इन विमानों की ख़रीद और साज-सज्जा पर कुल 4800 करोड़ खर्च होंगे। ये जहाज़ इस वर्ष जुलाई में फ्लीट में शामिल हो जाएँगे। फ़िलहाल इस बार के बजट में इसके लिए 810 करोड़ से ज़्यादा रक़म आबंटित की गई है। 

अपनी आत्मा और आकार में संघ-बीजेपी हमेशा से जनविरोधी रहे हैं और आज भी हैं। उन्हें आम जनता पर सरकारी धन का निवेश अच्छा नहीं लगता। वे सिर्फ़ धनपतियों और कॉरपोरेट के बीच सरकारी फ़ंड को लुटाने को सही निवेश मानते हैं।

इसी बल पर उन्हें देश के उद्योगपतियों की तरफ़ से सबसे अधिक चुनावी फ़ंड मिलता है और यह कोई राज की बात नहीं, चुनाव आयोग के रिकॉर्ड्स में दर्ज है। यह वो पार्टी है, जिसके पूर्व अवतार जनसंघ ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया था, पूर्व राजाओं-महाराजाओं का प्रिवीपर्स जब बंद हुआ था तो उस पर नाराज़गी जताई थी! जम्मू-कश्मीर, केरल, कर्नाटक और बंगाल में जब भूमि सुधार हो रहे थे तब भी विरोध किया था। यह महज संयोग नहीं है कि आज उसी विचारधारा की सरकार सरकारी बैंकों को फिर से निजी हाथों में दे रही है, एलआईसी तक में निजी क्षेत्र की घुसपैठ का रास्ता बना रही है। एयर इंडिया, रेलवे, बीपीसीएल सहित न जाने कितने पीएसयू बिकने या निवेशित होने की लाइन में हैं। ऐसी जनविरोधी राजनीति ने धर्म-संप्रदाय का सहारा लेकर दो-दो बार देश में जनादेश हासिल कर रखा है तो यह एक साधारण बात नहीं है। ऐसी असाधारण परिस्थिति और ऐसे असाधारण राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का सामना सिर्फ़ कुछ भावुक क्रांतिकारी जुमलों से संभव नहीं हो सकता है। यह बात केजरीवाल की पार्टी ने अच्छी तरह समझ लिया था।  

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बीजेपी का नफ़रत वाला प्रचार क्यों?

अब आप देखिए, इस चुनाव में देश के सबसे ताक़तवर नेता और सरकार चलाने वाले दल के क्या नारे थे- 'केजरीवाल आतंकवादी है', 'बाबरपुर में ऐसा बटन दबाना कि करंट शाहीन बाग़ को लगे', 'गोली मारो सालों को', 'शाहीन बाग़ वाले दिल्ली में फिर मुग़लों का राज बना देंगे', 'भाजपा नहीं जीती तो शाहीन बाग़ वाले आपके घरों में घुसकर बहू-बेटियों का रेप करेंगे', '8 फ़रवरी को भारत-पाकिस्तान का मैच होगा!' इतने विषैले नारों और आह्वानों को अगर केजरीवाल की पार्टी ने दिल्ली में बेअसर कर दिया तो क्या इसे एक क्षेत्र-विशेष में विभाजन और नफ़रत की राजनीति की निर्णायक हार नहीं कहेंगे? 

यह कहना एक हद तक ठीक है कि केजरीवाल की जीत देश में फैलाई जा रही नफ़रत और विभाजन की राजनीति का मुकम्मल जवाब नहीं है पर इस बात से भला कोई कैसे इनकार करेगा कि राष्ट्रीय राजधानी के सीमित दायरे में ही सही, नफ़रत की राजनीति का यह एक महत्वपूर्ण रणनीतिक जवाब है। इसका विस्तार अगर विचार और जनाधार के स्तर पर हो तो मुकम्मल-जवाब देना आसान हो जाएगा।
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