यूपी में बहराइच हिंसा मामले में कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए मनुस्मृति का हवाला दिया और मुख्य आरोपी को फाँसी तथा 9 दोषियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई। फ़ैसले पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?
यूपी में बहराइच हिंसा में रामगोपाल मिश्रा की हत्या के मामले में सत्र न्यायालय ने मनुस्मृति का ज़िक्र करते हुए फ़ैसला दिया है! मुख्य आरोपी को फाँसी और बाक़ी नौ को उम्र कैद की सजा दी गई है। फ़ैसले में उस मनुस्मृति के श्लोक और राजधर्म का ज़िक्र किया गया है जिसको भारत का संविधान पूरी तरह खारिज करता है! फ़ैसले में लिखा गया है कि मृतक राम गोपाल मिश्रा को टॉर्चर किया गया, उसके नाखून उखाड़ लिये गये, उसके पैर जलाये गये। जबकि बहराइच पुलिस खुद रामगोपाल मिश्रा को टॉर्चर किये जाने को अफवाह बता चुकी है, पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी रामगोपाल मिश्रा की मौत की वजह गोली लगना ही बताया गया था।
फ़ैसले में सत्र न्यायालय ने क्या क्या लिखा है, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर बहराइच हिंसा का पूरा मामला क्या था। 13 अक्टूबर 2024 को महाराजगंज में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन जुलूस में डीजे बजाने के दौरान विवाद हुआ। रामगोपाल मिश्रा स्थानीय दुकानदार अब्दुल हमीद की छत पर चढ़कर वहां लगे हरे झंडे उतारने लगे। इसी दौरान ऊपर से गोली चली और रामगोपाल की मौक़े पर ही मौत हो गई। इसके बाद पूरे इलाके में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। दर्जनों घर-दुकानें जलाई गईं। प्रशासन ने सभी आरोपियों पर रासुका यानी एनएसए लगाया। स्थिति को काबू करने में करीब एक सप्ताह लगा।
सत्र न्यायालय का फ़ैसला
रामगोपाल मिश्रा की हत्या के मामले में अपर सत्र न्यायाधीश (प्रथम) पवन कुमार शर्मा की अदालत ने फैसला सुनाया। अदालत ने मुख्य आरोपी मोहम्मद सरफराज अहमद उर्फ रिंकू को मृत्युदंड तथा अन्य नौ दोषियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। सभी दोषियों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया है।
अदालत ने अपने 142 पन्ने के विस्तृत फैसले में न केवल भारतीय न्याय संहिता की धाराओं का उल्लेख किया, बल्कि प्राचीन भारतीय ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ और ‘राजधर्म’ की अवधारणा का भी जिक्र किया। न्यायाधीश ने लिखा कि राज्य का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों की रक्षा करे और जो व्यक्ति निहत्थे नागरिक पर गोली चलाए तथा पुलिस पर भी फायरिंग करे, उसे सबसे कठोर दंड मिलना चाहिए, क्योंकि यह राजधर्म के विरुद्ध है।न्यायाधीश ने फ़ैसले में मनुस्मृति के दोहे 'दंड शास्ति प्रजा: सर्वा दंड एवाभिरक्षति, दंड सप्तेषु जागर्ति, दंड धर्म विदुर्वधा' का जिक्र किया है। फ़ैसले में इसका अर्थ भी समझाया गया है। इसमें लिखा गया है, 'मनुस्मृति के अनुसार प्रजा द्वारा राजधर्म का पालन किया जाये। इस दृष्टि से दंड विधान का होना नितांत आवश्यक माना गया था। दंड के भय से समाज के व्यक्ति अपने धर्म और कर्म से विचलित होने से बचते हैं। दंड ही प्रजाजनों की जान-माल की रक्षा करता है। इसलिए, अपराधी को दंडित करना शासक का परम धर्म माना गया था।'
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फ़ैसले में आगे लिखा गया है, 'उपरोक्त श्लोक के अनुसार विधि द्वारा स्थापित सिद्धांतों को तोड़ने वाले को उचित दंड से दंडित किया जाना न्यायहित व समाज हित में उचित होता है। यह न्यायालय का दायित्व है कि दंड अधिरोपित करते समय, न्याय के लिए आम जनता और समाज की आवाज़ एवं पीड़ा को महसूस करते हुए समाज के नियमों को तोड़ने वालों को कठोर से कठोर दंड से दंडित किया जाना चाहिए, जिससे न्याय के उद्देश्य की पूर्ति हो सके।'
भारतीय संविधान में मनुस्मृति की क्या हैसियत?
संविधान के कई प्रावधान मनुस्मृति की जातिवादी, स्त्री-विरोधी और असमानता वाली व्यवस्था के सीधे विरोध में बनाए गए हैं। संविधान में मनुस्मृति के खिलाफ प्रमुख प्रावधान-
- अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की बात करता है। लेकिन मनुस्मृति में अलग-अलग जातियों के लिए अलग-अलग दंड थे। मिसाल के तौर पर ब्राह्मण को कम सजा, शूद्र को कठोर सजा। अनुच्छेद 14 ने इसे पूरी तरह खत्म कर दिया।
- अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव निषेध करता है। लेकिन मनुस्मृति में शूद्रों और महिलाओं के साथ भारी भेदभाव था। अनुच्छेद 15 ने इसे असंवैधानिक बना दिया।
- अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता का अंत किया गया है। लेकिन मनुस्मृति में अस्पृश्यता को वैध ठहराया गया था। डॉ. आंबेडकर ने संविधान में इसे सबसे कठोर तरीके से ख़त्म किया।
- अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है। लेकिन मनुस्मृति में शूद्रों और महिलाओं को शिक्षा, संपत्ति और स्वतंत्रता से वंचित रखा गया था। संविधान ने सभी को समान अधिकार दिए।
- अनुच्छेद 25-28 में धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार है। लेकिन मनुस्मृति में धर्म को जाति व्यवस्था से जोड़ा गया था। संविधान ने धर्म को व्यक्तिगत स्वतंत्रता बना दिया।
डॉ. आंबेडकर ने क्या कहा था?
संविधान सभा में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 1949 में अपने अंतिम भाषण में कहा था, 'हम संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं चाहते जो मनुस्मृति जैसी हो। हम जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता को जड़ से खत्म करना चाहते हैं।'
उसी साल उन्होंने कहा, 'यदि हम संविधान को सफल बनाना चाहते हैं तो हमें उन गांवों की उस मानसिकता को खत्म करना होगा जो मनुस्मृति पर चलती है।' डॉ. आंबेडकर ने तो 25 दिसंबर 1927 को मनुस्मृति की प्रतियां सार्वजनिक रूप से जलवाई थीं और बाद में कहा था कि 'मनुस्मृति को जलाना मेरे जीवन का सबसे बड़ा कार्य था'। यानी भारतीय संविधान में मनुस्मृति को किसी भी रूप में मान्यता नहीं दी गई है।
बहरहाल, मुख्य आरोपी सरफराज की फांसी की सजा को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, लेकिन निचली अदालत का यह फैसला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया है।