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मायावती उपराष्ट्रपति के लिए बीजेपी उम्मीदवार के समर्थन में क्यों?

कभी बीजेपी के ख़िलाफ़ मुखर और विपक्षी एकता की पैरोकार रहीं मायावती पर अब बीजेपी के प्रति नरम रुख अपनाने का आरोप क्यों लग रहा है? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वह एनडीए के उपराष्ट्रपति उम्मीदवार जगदीप धनखड़ का समर्थन कर रही हैं? या फिर कुछ और संकेत मिलते हैं? क्या मायावती को भी किसी केंद्रीय एजेंसी का डर है?

मौजूदा स्थिति में मायावती और बीएसपी का बीजेपी के प्रति कैसा रुख रहा है, उसे जानने से पहले या जान लें कि उनका भगवा पार्टी के प्रति पहले कैसे रुख रहा था। ज़्यादा नहीं, चार साल पहले के ही मायावती के बयान पढ़ लीजिए। दलितों पर अत्याचार की बात करते हुए बसपा प्रमुख ने सीधे तौर पर बीजेपी सरकारों पर 'मनुवादी व्यवस्था' के तहत दलितों को बड़े पैमाने पर परेशान व प्रताड़ित किए जाने का आरोप लगाया था। 

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मायावती ने 2018 में बीजेपी सरकार को चेतावनी दी थी कि यदि दलितों की हो रही गिरफ्तारी व जुल्म-ज्यादती पर तत्काल रोक नहीं लगी तो उनकी पार्टी चुप बैठने वाली नहीं है। उन्होंने तब बुलाए गए 'भारत बंद' के दौरान सख़्ती का ज़िक्र करते हुए कहा था कि इसकी तुलना में सन् 1975 में लगी इमरजेंसी की सरकारी जुल्म-ज्यादती भी कम लगने लगी।

चार साल पहले तक मायावती का रुख बीजेपी के प्रति इतना आक्रामक था, लेकिन 2022 आते-आते उनकी उस आक्रामकता पर सवाल उठने लगे। उन पर तो बीजेपी की टीम बी होने का आरोप लगने लगा। ख़ासकर, इस साल यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती पर बीजेपी को फायदा पहुँचाने का आरोप लगा और विपक्ष को कमजोर करने का। ऐसा आरोप इसलिए भी लगा क्योंकि मायावती पूरे चुनाव में बीजेपी से ज्यादा आक्रामक कांग्रेस और सपा जैसे दलों पर रहीं।

प्रत्याशियों के चयन के कारण भी मायावती पर आरोप लगाए गए और कहा गया कि मायावती ने जानबूझकर ऐसे प्रत्याशियों का चयन किया जो सपा को नुक़सान पहुँचा सकते थे। यह बात विशेष रूप से मुसलिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों के बारे में कही गई। ऐसे क्षेत्रों में मायावती ने मुसलिम प्रत्याशी उतारे थे। तमाम राजनीतिक विश्लेषकों ने अनुमान लगाया था कि इससे मुसलिम वोट विभाजित हुआ और इसका लाभ बीजेपी को हुआ। 

तो सवाल है कि मायावती पर ऐसे आरोप क्यों लगते रहे? जो मायावती बीजेपी को पानी पी-पीकर कोसती रहती थीं वह आख़िर इतनी नरम क्यों पड़ती हुई दिखीं कि उनपर बीजेपी की टीम बी होने का आरोप लगा?

इसका जवाब विपक्षी दलों के बयानों से भी मिलता है। राहुल गांधी ने इसी साल अप्रैल महीने में आरोप लगाया था कि मायावती ने सीबीआई और ईडी के डर से मेरे मैसेज का जवाब तक नहीं दिया। 

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यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर ही राहुल गांधी ने कहा था, 'मायावती को वो मुख्यमंत्री बनाने को तैयार थे, उन्हें संदेश भी भिजवाया, लेकिन बीएसपी चीफ सीबीआई, ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों से इतनी डरी थीं कि उन्होंने मैसेज का जवाब तक नहीं दिया।' 

वैसे, बता दें कि एक समय मायावती के पीछे भी सीबीआई लगी थी। उनके ख़िलाफ़ आय से अधिक संपत्ति का मामला चला था। एक समय तो ख़बरें आई थीं कि सीबीआई ने उनके ख़िलाफ़ यह मामला बंद करने की तैयारी कर ली थी। ऐसा तब हुआ था जब सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि जांच एजेंसी ने ताज कॉरिडोर मामले में जारी आदेश को समझे बिना ही मायावती के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की थी, इस वजह से इसे निरस्त किया जाता है। इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा था कि लेकिन यदि सीबीआई चाहे तो वह मायावती के ख़िलाफ़ बेहिसाब संपत्ति का अलग केस दर्ज कर जाँच कर सकती है।

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बहरहाल, अब ऐसा ही सवाल उपराष्ट्रपति चुनाव में मायावती के रुख को लेकर भी उन पर उठाया जा रहा है। विपक्षी दलों ने उपराष्ट्रपति पद के लिए मार्ग्रेट अल्वा को उम्मीदवार बनाया है, लेकिन मायावती ने एनडीए उम्मीदवार जगदीप धनखड़ को समर्थन की बात कही। मायावती ने ट्वीट किया है, 'बीएसपी ने ऐसे में उपराष्ट्रपति पद के लिए हो रहे चुनाव में भी व्यापक जनहित व अपनी मूवमेन्ट को भी ध्यान में रखकर श्री जगदीप धनखड़ को अपना समर्थन देने का फैसला किया है तथा जिसकी मैं आज औपचारिक रूप से घोषणा भी कर रही हूँ।' 

वैसे, मायावती ने इशारा किया है कि जगदीप धनखड़ के जनहित और उनके आंदोलन को ध्यान में रखकर समर्थन दिया है। लेकिन सवाल है कि जगदीप धनखड़ ने दलितों, आदिवासियों या वंचितों के लिए ऐसा कौन सा आंदोलन किया? हालाँकि इसपर खुद मायावती ने भी आगे कुछ साफ़ नहीं कहा है।

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क़मर वहीद नक़वी
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