यूपी में 2027 में विधानसभा चुनाव है। लेकिन उससे बहुत पहले सीएम योगी आदित्यनाथ ने सोमवार को घुसपैठियों की पहचान करने को लेकर चेतावनी दी। लखनऊ की मेयर सड़कों पर मज़दूरों के पेपर चेक करती फिर रही हैं। उन्हें छोटे-मोटे काम से रोका जा रहा है।
यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ
उत्तर प्रदेश में कथित अवैध बांग्लादेशियों और रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ चल रहे अभियान के साये में लखनऊ की झुग्गी-बस्तियों में दहशत का माहौल है। 50 से अधिक असमिया परिवार बेघर होने की कगार पर खड़े हैं। लखनऊ की मेयर शहर में नाली, सड़क, पानी की जांच के बजाय झुग्गियों में जाकर गरीब मज़दूरों के कागजात की जांच कर रही हैं। कथित रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों को निशाना बनाने वाला यह अभियान अब कानूनी भारतीय प्रवासी मजदूरों की जिंदगी को निगलता जा रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सोमवार को फिर लोगों से अपील की कि “किसी को भी नौकरी देने से पहले उसकी पहचान जरूर सत्यापित करें।”
लखनऊ नगर निगम (LMC) की टीम चार दिनों से मेयर सुषमा खरकवाल के नेतृत्व में शहर के बाहरी इलाके में बनी झुग्गियों में जा रही है। मकसद है “बांग्लादेशी और रोहिंग्या” को बाहर करना। लेकिन बारपेटा (असम) के अली जैसे लोग भी इसके शिकार हो रहे हैं। अली ने बताया, “हमारा ठेला छीन लिया गया और 15 दिनों में झुग्गी खाली करने को कहा गया है। दस्तावेज जांचे बिना ही घर में घुसकर हमारा रोजगार छीन लिया।” तब से अली और सुजान अली जैसे दर्जनों असमिया कबाड़ी मजदूर बेरोजगार हैं। सुजान ने अपना खाली ठेला मीडिया को दिखाते हुए कहा-“ चार दिनों से एक दिन भी काम नहीं कर पाया हूं।”
ये परिवार कबाड़ जमा करके निजी डीलरों को बेचकर गुजारा करते थे। अब इन्हें “संदिग्ध” मानकर 15 दिनों का अल्टीमेटम दे दिया गया है। पुनर्वास की कोई बात नहीं। दहशत इतनी है कि आसपास की दूसरी बस्तियों में भी लोग सामान बांधने लगे हैं।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सोमवार को X पर पर उत्तर प्रदेश की 24 करोड़ जनता से कहा कि “सुरक्षा, सामाजिक संतुलन और कानून-व्यवस्था” के लिए किसी को भी काम पर रखने से पहले उसकी पहचान जरूर जांचें। उन्होंने 2 दिसंबर के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया। जिसमें अवैध घुसपैठियों के लिए “रेड कार्पेट” बिछाने की आलोचना की गई थी। सीएम ने कहा कि सरकारी योजनाओं का लाभ अवैध विदेशियों को नहीं मिलना चाहिए। इसके तहत रोहिंग्या-बांग्लादेशियों की लिस्ट बनाई जा रही है, अस्थायी हिरासत केंद्र (डिटेंशन सेंटर) बनाए जा रहे हैं और दस्तावेज सत्यापन का विशेष अभियान चल रहा है।
कागज पर यह राष्ट्रीय सुरक्षा का कड़ा कदम है। लेकिन लखनऊ की गलियों में यह भेदभाव और अत्याचार का रूप ले चुका है। नगर निगम की टीमें बिना प्रशिक्षण के सिर्फ बोली, चेहरा या शक के आधार पर कार्रवाई कर रही हैं। असम के प्रवासी, जो भाषा-संस्कृति में 'ejis' समुदायों से मिलते-जुलते हैं, सबसे आसान शिकार बन रहे हैं। एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा, “यह सतर्कता नहीं, सरकारी वर्दी में की जा रही गुंडागर्दी है।”
विपक्ष इसे “बीजेपी सरकार की धमकी की राजनीति” बता रहा है। 7 दिसंबर को कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल झुग्गियों में पहुंचा और मेयर के अधिकारों पर सवाल उठाए। उसने कहा कि लखनऊ की मेयर किस हैसियत से गरीब मज़दूरों के पेपर्स चेक कर रही हैं। वो अपनी मूल जिम्मेदारी को भूल रही हैं।
यह कोई नई कहानी नहीं। असम में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के नेतृत्व में जून से चले बेदखली अभियानों में 3,300 से अधिक परिवार (ज्यादातर बंगाली मूल के मुस्लिम) बेघर हो चुके हैं। ऊपरी असम में सतर्कता समितियां घर-घर जाकर “संदिग्धों” की तलाश कर रही हैं। दिल्ली एनसीआर के शहर गुड़गांव में भी बंगाली मजदूरों को मकान मालिकों ने रातोंरात निकाल दिया।
उत्तर प्रदेश और असम जैसे राज्य लाखों मजदूर बाहर भेजते हैं, लेकिन जब नस्लवादी हवा चलती है तो कोई सुरक्षा कवच नहीं होता। योगी का “पहचान सत्यापन” का आदेश भले ही सामूहिक जिम्मेदारी की बात करे, लेकिन आधार कार्ड और प्रवासी हेल्पलाइन की कमी के चलते यह प्रोफाइलिंग का हथियार बन जाता है।
19 दिसंबर की समय-सीमा नजदीक आ रही है। अली और उनके पड़ोसी फटे-पुराने कागजों को चूमकर दुआ मांग रहे हैं। सवाल यह है कि क्या योगी सरकार सटीक सत्यापन की ओर बढ़ेगी या यह अभियान असम की तरह विस्थापन और तनाव का चक्र बन जाएगा? झोपड़ियों में फैली यह दहशत याद दिला रही है कि सीमाओं की सुरक्षा के नाम पर अगर गरीबों की जिंदगी उजड़ने लगे, तो वह सुरक्षा कितनी सुरक्षित रह जाएगी?