उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जातिगत रैलियों प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन इस प्रतिबंध को और व्यापक बनाने की मांग हो रही है। प्रसिद्ध पत्रकार हसन सुरूर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित अपने एक लेख में तर्क दिया है कि अगर यूपी सरकार विभाजनकारी संस्कृति युद्धों को समाप्त करने के प्रति गंभीर है, तो इस प्रतिबंध को धर्म के नाम पर सार्वजनिक प्रदर्शनों, यानी धार्मिक जुलूसों पर भी लागू किया जाना चाहिए।
उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में जातिगत आधार पर आयोजित होने वाली रैलियों पर सख्ती बरतते हुए इन्हें प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया था। इसका उद्देश्य जातिवाद को हवा देने वाली गतिविधियों को रोकना बताया गया। लेकिन बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के सहयोगी दलों ने योगी आदित्यनाथ सरकार के इस कदम का विरोध किया था। निषाद पार्टी के संजय निषाद ने कहा कि जाति तो हमारी पहचान है। जाति सम्मेलन हम अपनी पहचान बरकरार रखने के लिए करते हैं। इसी तरह एनडीए के एक और दल अपना दल (अनुप्रिया पटेल) ने भी योगी के कदम का विरोध किया है। खुद बीजेपी के नेता जातिवादी सम्मेलनों में शामिल होते रहे हैं। 
योगी आदित्यनाथ समर्थक अनिल सिंह ने फेसबुक पर एक निमंत्रणपत्र साझा किया है, जिसमें 2 अक्टूबर को क्षत्रिय समाज की ओर से विजय दशमी पर शस्त्र पूजन का निमंत्रण दिया गया है। सोशल मीडिया पर इस निमंत्रणपत्र को साझ करके पूछा जा रहा है कि आखिर ऐसे जातिसूचक कार्यक्रमों पर रोक कब लगेगी। बहरहाल, अभी पत्रकार और लेखक हसन सुरुर का लेख चर्चा में है। उस लेख में कया लिखा गया है। उसको पढ़ा जाना चाहिए। 
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हसन सुरुर ने अपने लेख में लिखा है- उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने हाल ही में जातीय रैलियों पर रोक लगाकर एक अहम संदेश दिया है। यह कदम ऐसे समय में आया है जब राज्य में जातीय पहचान के नाम पर राजनीति और शक्ति प्रदर्शन, समाज में तनाव और विभाजन को और गहरा कर रहे थे। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह पहल पर्याप्त है? अगर मुख्यमंत्री सचमुच ‘विभाजनकारी सांस्कृतिक युद्धों’ को खत्म करना चाहते हैं, तो उन्हें इस प्रतिबंध को धार्मिक जुलूसों और सार्वजनिक धार्मिक शक्ति-प्रदर्शनों तक भी बढ़ाना चाहिए।

उन्होंने लिखा है- जातीय रैलियों की तरह धार्मिक जुलूस भी अक्सर अपने मूल उद्देश्य से भटककर सामुदायिक ध्रुवीकरण का मंच बन जाते हैं। ढोल-नगाड़ों, लाउडस्पीकरों और जुलूसों की आड़ में कई बार ऐसा माहौल बनता है, जिससे सांप्रदायिक तनाव पनपता है। इन आयोजनों में शामिल राजनीतिक तत्व धार्मिक आस्था की आड़ लेकर न केवल सड़कें जाम करते हैं बल्कि आम नागरिकों की रोजमर्रा की जिंदगी को भी बाधित करते हैं। यह माहौल ‘हम बनाम वे’ की मानसिकता को गहरा करता है, जिससे समाज में स्थायी विभाजन की खाई बनती है।

हसन सुरूर का कहना है कि लोकतंत्र में हर नागरिक को अपनी धार्मिक और सामाजिक पहचान जीने का अधिकार है, लेकिन उसका सार्वजनिक और आक्रामक प्रदर्शन तब खतरनाक हो जाता है जब वह दूसरों की स्वतंत्रता और शांति को प्रभावित करने लगे। अगर जातीय रैलियों पर रोक इसलिए ज़रूरी मानी गई कि वे सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देती हैं, तो धार्मिक जुलूसों पर भी वही कसौटी लागू करनी होगी। अगर सरकार निष्पक्ष होकर एक समान नियम बनाएगी, तभी उसकी साख और दृढ़ता साबित होगी।

अंत में उन्होंने लिखा है- यूपी जैसे बड़े और संवेदनशील राज्य में ‘सांस्कृतिक शक्ति प्रदर्शन’ की राजनीति पर अंकुश लगाने का समय आ गया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अगर इस दिशा में ठोस कदम उठाते हैं और जातीय रैलियों की तरह धार्मिक जुलूसों को भी सार्वजनिक सड़कों और चौक-चौराहों से हटाकर सीमित और नियंत्रित दायरे में ले आते हैं, तो यह राज्य की सामाजिक शांति और राजनीतिक परिपक्वता की ओर एक ऐतिहासिक कदम होगा।

विश्लेषणः यूपी में धार्मिक जुलूस नहीं रुक सकते

जातीय सम्मेलनों की तरह धार्मिक जुलूसों पर यूपी में रोक लगना मुश्किल है। धार्मिक जुलूसों पर रोक लगाना जातीय रैलियों की तुलना में कहीं कठिन है। संविधान हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता देता है और धार्मिक अनुष्ठानों को लेकर समाज में गहरी भावनाएँ जुड़ी होती हैं। ऐसे में सरकार सीधे-सीधे “धार्मिक जुलूस बैन” कह दे, तो इसे अल्पसंख्यक अधिकारों या बहुसंख्यक आस्था पर चोट के तौर पर देखा जा सकता है। अदालत में भी इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती मिल सकती है।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में धार्मिक जुलूस सिर्फ पूजा या आस्था नहीं, बल्कि सामूहिक पहचान और शक्ति-प्रदर्शन का भी हिस्सा बन चुके हैं। दशहरा, रामनवमी, मुहर्रम, ईद-मिलादुन्नबी, कांवड़ यात्रा इन सभी मौकों पर बड़े पैमाने पर जुलूस निकलते हैं। इन पर रोक लगाने का मतलब होगा सीधा टकराव धार्मिक संगठनों और समुदायों से। इससे सामाजिक तनाव और राजनीतिक प्रतिक्रिया दोनों तेज़ हो सकते हैं।

जातीय रैलियों का असर सीमित दायरे में होता है, लेकिन धार्मिक जुलूसों पर रोक सीधे वोटबैंक की राजनीति को प्रभावित करेगी। बीजेपी जैसी पार्टी, जिसकी राजनीति में धार्मिक प्रतीकों का बड़ा रोल है, उसके लिए इसे लागू करना कहीं ज़्यादा जोखिम भरा होगा। विपक्ष भी इसे बहाना बनाकर सरकार पर “धर्मविरोधी” होने का आरोप लगा सकता है।

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि धार्मिक जुलूसों पर सीधा प्रतिबंध लगाना न तो आसान है और न ही व्यावहारिक, लेकिन इन्हें नियंत्रित और सीमित करना प्रशासन और समाज, दोनों के लिए लाभकारी हो सकता है।