उत्तर प्रदेश की सियासत में नयी हलचल है। राज्य सरकार ने जातिगत आधार पर होने वाली राजनीतिक रैलियों और सार्वजनिक स्थानों पर जाति-सूचक चिह्नों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के बाद सरकार द्वारा लिया गया यह क़दम राजनीतिक दलों की रणनीतियों को झकझोर देगा। इसका उद्देश्य समाज में जातिगत भेदभाव को ख़त्म करना और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देना बताया गया है। लेकिन पीडीए यानी पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक जैसे मुद्दों की राजनीति करने वाले सपा जैसे दलों के सामने बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है। सपा हाल में अपने जातीय समीकरण को मज़बूत कर रही है और पश्चिमी यूपी में गुर्जर सम्मेलन कर रही है। तो क्या इसका नतीज़ा राजनीतिक उथल-पुथल के रूप में सामने आएगा? 

यूपी में इस सियासत को समझने से पहले इस आदेश को जान लें। उत्तर प्रदेश के कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार द्वारा रविवार देर रात जारी किए गए आदेश में सभी जिला मजिस्ट्रेटों, सिविल सेवकों और पुलिस प्रमुखों को निर्देश दिया गया है कि वे जातिगत आधार पर होने वाली रैलियों को तत्काल प्रभाव से रोकें। इसके साथ ही, पुलिस रिकॉर्डों में जाति का उल्लेख और सार्वजनिक स्थानों पर जाति-आधारित चिह्नों, वाहनों पर जाति-सूचक स्टिकर या स्लोगन को हटाने का भी आदेश दिया गया है। यह निर्णय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्देश का हिस्सा है, जिसमें कहा गया था कि जाति का सार्वजनिक प्रदर्शन समानता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करता है।
जस्टिस विनोद दिवाकर की पीठ ने पिछले हफ़्ते ही अपने आदेश में साफ़ किया कि जाति आधारित रैलियाँ और सार्वजनिक प्रदर्शन 'ताक़त का प्रदर्शन' हैं, जो धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय अखंडता को कमजोर करते हैं। अदालत ने इसे 'राष्ट्र विरोधी' क़रार देते हुए कहा कि यह प्रथा ऐतिहासिक श्रेष्ठता और आधुनिक असुरक्षा की भावना को दिखाती है।

अदालत के आदेश में यह भी निर्देश दिया गया है कि क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय और यातायात विभाग वाहनों से जाति-संबंधी चिह्नों को हटाने के लिए सख्त कार्रवाई करें और इसको लागू नहीं किए जाने पर भारी जुर्माना लगाएँ। इसके अलावा, पुलिस मैनुअल में संशोधन कर FIR, गिरफ्तारी मेमो और अन्य दस्तावेजों से जाति से संबंधित कॉलम हटाने का आदेश दिया गया है, सिवाय उन मामलों के जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत दर्ज किए जाते हैं।

क्या होगा असर?

अदालत के फ़ैसले के बाद सरकार का यह आदेश उत्तर प्रदेश की राजनीति पर गहरा प्रभाव डालेगा, खासकर 2027 में होने वाले विधानसभा चुनावों के संदर्भ में। राजनीतिक दल अक्सर जातिगत आधार पर मतदाताओं को लामबंद करने के लिए रैलियां और सभाएं आयोजित करते हैं। 

सरकार के इस प्रतिबंध से बीजेपी, समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी जैसी विपक्षी दलों की रणनीतियों में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है। क्या सपा-बसपा की जाति आधारित रैलियों की तरह ही बीजेपी की जाति आधारित रैलियों पर यह प्रतिबंध लागू होगा?

अखिलेश यादव के पीडीए का क्या होगा?

यूपी में राजनीतिक दल अगले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुटे हैं। इससे पहले राज्य में पंचायत चुनाव हैं। राजनीतिक दल सामाजिक समीकरण दुरुस्त करने में लगे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में पीडीए का नारा देकर यूपी में शानदार प्रदर्शन करने वाली अखिलेश यादव की सपा लगातार पीडीए पर जोर दे रही है। पार्टी जातिगत सम्मेलन कर रही है। सपा पश्चिमी यूपी में गुर्जर आंदोलन करा रही है। 

कहा जा रहा है कि सपा यूपी के 34 जिलों के 132 विधानसभा क्षेत्रों में छोटी-छोटी गुर्जर चौपाल और रैलियां करने की रणनीति पर काम कर रही है। ऐसा इसलिए कि चुनाव में पश्चिमी यूपी में गुर्जर समाज का काफी असर रहा है। 
योगी सरकार के आदेश को लेकर अखिलेश ने कहा, "…और 5000 सालों से मन में बसे जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए क्या किया जाएगा? और वस्त्र, वेशभूषा और प्रतीक चिन्हों के माध्यम से जाति-प्रदर्शन से उपजे जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए क्या किया जाएगा? और किसी के मिलने पर नाम से पहले ‘जाति’ पूछने की जातिगत भेदभाव की मानसिकता को ख़त्म करने के लिए क्या किया जाएगा? और किसी का घर धुलवाने की जातिगत भेदभाव की सोच का अंत करने के लिए क्या उपाय किया जाएगा? और किसी पर झूठे और अपमानजनक आरोप लगाकर बदनाम करने के जातिगत भेदभाव से भरी साज़िशों को समाप्त करने के लिए क्या किया जाएगा?"

विपक्षी दलों के लिए झटका?

तो क्या यह नुक़सान सिर्फ सपा को ही होगा। समाजवादी पार्टी से लेकर बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, निषाद पार्टी, सुभासपा जैसे दलों के लिए यह बड़ा झटका साबित हो सकता है। सभी पार्टियाँ विभिन्न जातियों को जोड़ने के लिए जातिगत सम्मेलन और रैलियाँ करती रही हैं। यहाँ तक कि बीजेपी अपने कार्यालय में ही जातीय सम्मेलन करती रही है। इसने विभिन्न मौक़ों पर चुनाव से पहले अलग-अलग जातियों के कार्यक्रम किए हैं। गाजियाबाद के उपचुनाव के दौरान योगी आदित्यनाथ के एक किलोमीटर के रोड शो में जातियों के मंच बनाए गए थे। तो क्या अब बीजेपी भी जाति आधारित रैलियाँ नहीं करा पाएगी? इसका जवाब सरकारी आदेश में छुपा है।

सरकारी आदेश में क्या?

16 सितंबर को इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए सरकारी आदेश में कहा गया है कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए आयोजित जाति-आधारित रैलियाँ समाज में जाति संघर्ष को बढ़ावा देती हैं और ये 'सार्वजनिक व्यवस्था' और 'राष्ट्रीय एकता' के विपरीत हैं। तो सवाल है कि यह कैसे तय होगा कि कौन सी जाति आधारित रैली राजनीतिक उद्देश्य के लिए आयोजित की गई और कौन सी रैली समाज में जाति संघर्ष को बढ़ावा देती हैं? क्या सत्ताधारी पार्टी पर यह आरोप नहीं लगेगा कि वह अपना फायदा नुक़सान देखकर तय कर रही है कि कौन सी रैली राजनीतिक उद्देश्य के लिए है या जाति संघर्ष को बढ़ावा दे रही है?

2013 में भी आया था ऐसा ही एक फ़ैसला

ऐसा ही निर्णय 2013 में लखनऊ के वकील मोतीलाल यादव द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर भी आया था। याचिका में जातिगत रैलियों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी। उस समय हाई कोर्ट ने तत्काल प्रभाव से ऐसी रैलियों पर रोक लगाने का अंतरिम आदेश जारी किया था। हालांकि, याचिकाकर्ता का कहना था कि इस आदेश का पूरी तरह पालन नहीं हुआ और राजनीतिक दल अब भी जातिगत आधार पर रैलियाँ आयोजित कर रहे हैं।

बहरहाल, उत्तर प्रदेश सरकार का यह ताज़ा निर्णय न केवल क़ानूनी, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक नज़रिए से भी अहम है। यह क़दम समाज में जातिगत विभाजन को कम करने और संवैधानिक मूल्यों को मज़बूत करने की दिशा में एक प्रयास हो सकता है, लेकिन इसकी क्या गारंटी कि इसका दुरुपयोग राजनीतिक मक़सद के लिए नहीं किया जाएगा?