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प्रतीकात्मक तसवीर।

जातिवाद का ज़हर, स्कूल में दलित भोजन माता के हाथ से बना खाना खाने से इनकार

महानगरों की पॉश कॉलोनियों में रहने वाले लोग इस बात का दम भरते हैं कि जातिवाद ख़त्म हो गया है लेकिन इस व्यवस्था की घिनौती सूरत कभी शहरों तो कभी गांवों से सामने आती रहती है। उत्तराखंड से फिर एक बार ऐसी ख़बर सामने आई है, जिसने साबित किया है कि जातिवाद न सिर्फ़ मौजूद है बल्कि इसकी जड़ें भी काफ़ी गहरी हैं। 

उत्तराखंड के चंपावत जिले के सूखीढांग गांव के सरकारी स्कूल में एक दलित महिला सुनीता देवी को भोजन माता के रूप में सरकार ने नियुक्त किया। 

भोजन माता स्कूल में आने वाले बच्चों के लिए भोजन बनाने का काम करती हैं। सुनीता को इस पद पर सिर्फ़ 3 हज़ार रुपये में नियुक्त किया गया था। 

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घर से लाने लगे खाना

पहले दिन तो स्कूल के बच्चों ने खाना खा लिया लेकिन अगले दिन सवर्ण समुदाय के बच्चों ने सुनीता के हाथों से बना खाना खाने से इनकार कर दिया और वे अपने घर से खाना बनाकर लाने लगे। 

इतना ही नहीं सुनीता की नियुक्ति पर भी सवाल उठाए जाने लगे। गांव वाले स्कूल पहुंच गए और सुनीता को इस पद से हटाने का दबाव बनाने लगे। स्कूल के प्रिंसिपल प्रेम आर्या ने ‘द वायर’ को बताया कि इस मामले में विभागीय जांच के आदेश दे दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि सुनीता की नियुक्ति नियमों के हिसाब से ही हुई है। 

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सुनीता कहती हैं कि सवर्ण समुदाय के बच्चों के माता-पिता ने उन्हें इतना अपमानित किया कि वह वापस नौकरी में जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। उन्हें इस बात का भी डर है कि 

कहीं उनकी नियुक्ति को अवैध न घोषित कर दिया जाए। 

21वीं सदी में जब भारत में सबका साथ, सबका विकास और सबके विश्वास की बात हो रही है, तो इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि समाज के एक वर्ग में जातीय अहंकार कूट-कूट कर भरा हुआ है।

कुछ महीने पहले ही हॉकी खिलाड़ी वंदना कटारिया के परिवार को जाति सूचक गालियां देने का मामला भी उत्तराखंड से ही सामने आया था। 

सिर्फ़ उत्तराखंड ही नहीं देश के बाक़ी राज्यों से भी मूंछ रखने पर दलितों की पिटाई होने, मंदिरों में जाने पर अपमानित करने, शादी में घोड़ी न चढ़ने देने जैसी घटनाएं सामने आती रहती हैं। 

निश्चित रूप से इस तरह की घटनाएं इस बात को सच साबित करती हैं कि समय भले ही बदल गया हो, लोग आधुनिक हो गए हों लेकिन जातिवाद का ज़हर अभी भी समाज में जिंदा है। 

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क़मर वहीद नक़वी
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