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विकास के बुलडोज़र का ख़ामियाज़ा भुगत रहा है जोशीमठ 

जोशीमठ शहर पर मँडरा रहे अस्तित्व के संकट से पहले झारखंड का सम्मेद शिखरजी का मामला सुर्खियों में था। दो जैन मुनियों ने इस पवित्र तीर्थ को पर्यटन स्थल घोषित करने के प्रयास के ख़िलाफ़ अपने प्राण त्यागे और जैन समुदाय के हज़ारों लोगों ने देश के विभिन्न शहरों में सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया। अंतत: केंद्र सरकार ने तीन साल पहले लिए गये अपने ही फ़ैसले को वापस ले लिया और पर्यावरण मंत्रालय ने अधिसूचना जारी करके सम्मेद शिखरजी के आसपास सभी तरह की पर्यटन गतिविधियों पर रोक लगा दी।

जैन समुदाय की जागरूकता ने आध्यात्मिकता से जुड़े हुए एक तीर्थ को कारोबारियों के हाथों बर्बाद होने से बचा लिया लेकिन अफ़सोस कि ऐसी संवेदनशीलता जोशीमठ को लेकर नहीं दिखाई गयी जिसे बद्रीनाथ और हेमकुंड साहब जैसे तीर्थ स्थलों का प्रवेश द्वार कहा जाता है। 

Uttarakhand Joshimath sinking town pilgrimage sites - Satya Hindi

विकास के बुलडोज़र ने अनियोजित और अनियंत्रित विकास के विरुद्ध उठी हर आवाज़ को कुचल दिया जिसका ख़ामियाज़ा आज एक जीवंत शहर भुगत रहा है।

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‘अद्वैत दर्शन’ का प्रतिपादन

विडंबना तो ये है कि अनियोजित विकास की क़ीमत उस जोशीमठ को चुकानी पड़ रही है जो आदि शंकराचार्य की तपोभूमि है। कहते हैं कि आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य को यहीं ज्ञान की प्राप्ति हुई थी या कहें कि उन्होंने अपने ‘अद्वैत दर्शन’ का प्रतिपादन किया था। उन्होंने देश के चार कोनों में जो चार मठ स्थापित किये उनमें पहला ज्योतिर्मठ यहीं है। शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के मुताबिक जीव और ब्रह्म में कोई फ़र्क़ नहीं है। प्रकृति भी इसमें समाहित है। हम जो अलगाव देखते हैं वह ‘अविद्या या माया’ का प्रभाव है। ऐसे में प्रकृति को अलग से ‘वस्तु’ मानकर ‘माया’ के लिए उसका कारोबार करना शंकराचार्य के तप का भी अपमान है। 

अफ़सोस कि यह अपमान उस बीजेपी की केंद्र और राज्य सरकारों ने किया है जो ख़ुद को हिंदू धर्म के स्वयंभू उद्धारक के रूप में ख़ुद को पेश करती है।    

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‘तीर्थ स्थल’ और ‘पर्यटन स्थल’- इन दो शब्द पदों को एक समझना भूल है। एक का लक्ष्य आध्यात्मिक शांति है तो दूसरे का मौज-मस्ती। सरकारें तीर्थ स्थलों को ‘विराट मॉल’ में बदलकर जनता की धार्मिक आस्था को ‘कैश’ कराने के फेर में पड़ी हुई हैं।

पहले तीर्थों तक पहुँचना आसान नहीं होता था और जीवन की तमाम ज़िम्मेदारियों को पूरा करके ही आम लोग इस दिशा में सोचते थे, लेकिन अब दुर्गम स्थानों तक चौड़ी सड़कों से ही नहीं हेलीकॉप्टर तक से पहुँचाने, वहाँ तमाम सुविधाओं से युक्त होटलों में ठहराने और आसपास के तमाम सुरम्य प्राकृतिक स्थानों की सैर कराने का ‘पैकेज’ बेचा जाता है। यानी जो स्थान आध्यात्मिक शांति पाने के लिए थे, वे मौज-मस्ती के ‘स्पॉट’ में बदले जा रहे हैं। इससे सरकारों को कमाई तो होती है लेकिन प्रकृति को होने वाले नुकसान से इसकी तुलना करें तो यह घाटे का सौदा ही है। 

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जोशीमठ शहर के छह सौ से ज़्यादा घरों और इमारतों में आई दरारों की भरपाई की क़ीमत भी इसे साबित करती है।

‘काशी विश्वनाथ कॉरिडोर’ 

कुछ समय पहले ‘काशी विश्वनाथ कॉरिडोर’ के नाम पर बनारस के सैकड़ों मंदिरों को तोड़ डाला गया था। अब शंकराचार्य बन चुके स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के सक्रिय विरोध को राजनीतिक ताक़त और सत्ता के बल पर दबा दिया गया था। जबकि दुनिया भर के लोग काशी की गलियों को देखने आते थे न कि चमचमाते कॉरिडोर को। वे इस बहाने इतिहास की धड़कनों को महसूस करते थे। लेकिन अब उन्हें वहाँ चमचमाता कॉरिडोर दिख रहा है जो उनके लिए कोई अनोखी चीज़ नहीं है।

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हद तो ये है कि अब बनारस में गंगा पार तंबुओं का एक शहर बसाया जा रहा है ताकि पर्यटक वहाँ जाकर भी लुत्फ़ लें। इसका पहले से प्रदूषित गंगा पर कैसा बुरा असर पड़ेगा इसे लेकर विशेषज्ञ चिंता जता रहे हैं। बनारस के संकटमोचन मंदिर के महंत प्रो. विश्वंभर नाथ मिश्र ने सार्वजनिक रूप से इसकी आलोचना की है। उन्होंने पहले प्रदूषण मुक्त रहे गंगा पार की रेत पर फैली गंदगी की तस्वीरें ट्वीट की हैं। इस टेंट सिटी में प्रयागराज के माघ मेले की तर्ज पर कल्पवास नहीं होगा। यह शुद्ध व्यावसायिक गतिविधि है। इस बात का प्रचार जोरों पर है कि गोवा से ज़्यादा पर्यटक काशी में आ रहे हैं।

अयोध्या में भी तोड़-फोड़ 

इसी तरह आजकल अयोध्या में भी जमकर तोड़-फोड़ चल रही है। राममंदिर के निर्माण के साथ-साथ एक पुरानी बसावट और उसकी इमारतों को बेदर्दी से ख़त्म किया जा रहा है ताकि चौड़ी सड़कों और अत्याधुनिक सुविधाओं का जाल बिछ सके। इसके पीछे भी त्यागी और वैरागी राम की नगरी को टूरिस्ट स्पॉट में बदलने की सोच है। आने वाले दिनों में वृंदावन को लेकर भी ऐसी योजनाएँ सामने आ सकती हैं।

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दरअसल, सारा मामला एतिहासक दृष्टि का है। रोमन सभ्यता के भग्नावशेषों को आज भी संभाल कर रखा गया है। इस मलबे में हज़ारों साल पुराने संसद भवन, थिएटर, स्टेडियम और ऐसे मंदिर (जिनके उपासक ही अब नहीं बचे) के अवशेष हैं जिन्हें देखकर रोमन सभ्यता के चरमोत्कर्ष का अहसास होता है। इन्हें हटाकर ख़ूबसूरत इमारतों में बदलना कोई मुश्किल काम नहीं था, लेकिन इन्हें सहेजा गया है।

कुछ इसी तरह जेरूसलम को भी सहेजा गया है जो यहूदी, इस्लाम और ईसाई, तीन-तीन धर्मों का पवित्र स्थल है। लेकिन काशी में आपको हज़ारों साल पुरानी ईंटों या स्थापत्य के दर्शन नहीं हो सकेंगे जबकि इसे इतिहास से भी पुराना शहर कहा जाता है जहाँ जीवन का प्रवाह अबाध गति से जारी रहा।      

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जोशीमठ पर आया संकट अप्रत्याशित नहीं है। 1976 में गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एम.सी.मिश्रा की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने ग्लेशियर के मलबे पर बसे शहर के भविष्य को लेकर अपनी आशंका जता दी थी। मिश्रा कमेटी ने जोशीमठ में निर्माण कार्य रोककर बड़े पैमाने पर वनक्षेत्र विकसित करने की सलाह दी थी। इस 18 सदस्यीय कमेटी में सेना और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के प्रतिनिधि भी शामिल थे। लेकिन बीते कुछ सालों मे जिस तरह विशेषज्ञों की राय को दरकिनार कर जोशीमठ का विकास किया जा रहा था उसका शायद यही नतीजा निकलना था। 
पहाड़ पर ‘फ़ोर लेन’ या ‘ऑल वेदर’ सड़कों का विचार कागज़ में बेहद सुहावना दिखता है लेकिन हक़ीक़त में यह घर के अंदर मौत का कुआँ खोदने जैसा ही है।

तमाम विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों के विरोध के बावजूद पनबिजली परियोजना के लिए एनटीपीसी ने यहाँ दो सुरंगें खोदने का काम नहीं रोका था। जोशीमठ की दरारों के पीछे एक वजह यह भी मानी जा रही है।

तीर्थों के विकास या वहाँ सुगमता से पहुँचने की व्यवस्था करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन ‘माया’ का प्रभाव अगर तीर्थों को मौज-मस्ती के स्थलों पर बदलने लगे तो यह गहरे सभ्यतागत संकट का संकेत है।

(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)

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पंकज श्रीवास्तव
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