राहत इंदौरी का एक शेर है-

अंदर का जहर चूम लिया धुल के आ गए

कितने शरीफ लोग थे सब खुल के आ गए

इस शेर की याद तब याद आ गई जब पिछले दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दूसरे साल के छात्रों का `पार्टी’ नाम का नाटक देखा। ये मराठी के चर्चित नाटककार महेश एलकुंचवार का लिखा हुआ है और भिन्न भिन्न भाषाओं में कई मर्तबा खेला गया है। इस पर फिल्म भी बन चुकी है जिसका निर्देशन गोविंद निहलानी ने किया था। ओम शिवपुरी, अमरीश पुरी, नसीरुद्दीन शाह जैसे अभिनेताओं ने इसमें काम किया था। पर फिलहाल फिल्म की छोड़ें और नाटक तक ही सीमित रहें। इस दफे ये एनएसडी यानी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में फिर से हुआ। निर्देशन किया शांतनु बोस ने। शांतनु एक चर्चित रंगकर्मी हैं और अपनी खास तरह की व्याख्या के लिए जाने जाते हैं। उनमें प्रयोगशीलता भी रही है जो इस नाटक में भी दिखी।

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क्या है `पार्टी’। ये सर्वविदित सा है कि इसमें एक ऐसी पार्टी या दावत का आख्यान है जो एक बड़े लेखक बर्वे के सम्मान में दी जा रही है। दावत देने वाली दमयंती भी उस तरह की महिला है जो रसूखवाली है और सांस्कृतिक जगत में अपनी हैसियत रखती है। वो किसी लेखक को सम्मान दिला सकती है, किसी को विदेश जानेवाले प्रतिनिधि मंडल में शामिल करा सकती है या किसी को फेलोशिप दिला सकती है। उसके यहाँ दी जानेवाली पार्टियों में शामिल होना एक प्रतिष्ठा की बात मानी जाती है। हालाँकि दमयंती की अपनी निजी परेशानियाँ भी हैं। उसकी बेटी ने अपने मन से शादी कर ली थी पर पति ने उसे छोड़ दिया। बेटी एक नवजात शिशु की मां भी है। ये दमयंती के लिए चिंता की बात है और वो चाहती है कि अपनी बेटी का टाँका किसी और से भिड़ा दे। या किसी और से शादी करा दे। पर बेटी इसके लिए तैयार नहीं है। उसकी अपनी मनोवैज्ञानिक ग्रंथियां हैं।

तो दमयंती के घर पार्टी हो रही है, कई लोग आए हैं। जश्न हो रहा है, शराब पी जा रही है, कुछ पीकर लुढ़क भी रहे हैं। लोगों के अपने अपने एजेंडे सामने आ रहे हैं। वे अपनी गोटी फिट करने के चक्कर में हैं कि आगे कैसे कोई पुरस्कार हथियाया जाए। पार्टी चरम पर है मगर तभी ख़बर आती है कि अमृत नाम का एक व्यक्ति, जो आदिवासियों के बीच उनके हक के लिए काम कर रहा है, उसे मार दिया जाता है। अमृत पार्टी में शामिल सभी लोगों का मित्र है। उसे मार दिए जाने की ख़बर सारे लोग सुनते हैं और फिर अपने-अपने हिसाब से एक-एक कर अपने-अपने घर चले जाते हैं, ये जताते हुए कि अमृत की शोकसभा में ज़रूर शामिल होना है।

जाहिर है नाटक एक तो संभ्रांत और सांस्कृतिक चेतना से संपन्न कहे जानेवाले लोगों के अपने-अपने स्वार्थ साधने के लिए लगे रहने की कहानी कहता है जिसमें बड़े कहे जानेवाले लेखक किसी युवा लेखक को आगे बढ़ने से रोकने में लग जाते हैं और युवा लेखक भी किसी तरह सफल लोगों की श्रेणी में शामिल होने के लिए जोड़ तोड़ करते रहते हैं। वे बोलते कुछ हैं पर उनके मंतव्य अलग होते हैं। 

बुद्धिजीवियों- लेखकों, कलाकारों की सारी दौड़ खुद के लिए पुरस्कार पाने या अपने को आगे बढ़ाने के लिए होती है। हालाँकि ये सब पर लागू नहीं होता। अमृत जैसे लोग भी होते हैं किंतु अपवाद की तरह। ज़्यादातर आपदा में अवसर की तलाश में रहते हैं। इसी को राहत इंदौरी ने कहा कि `जितने शरीफ लोग थे खुल के आ गए।‘

`पार्टी’ एक बहुत सुगठित नाटक है। इसका हर चरित्र अपने में संतुलित है। इसके शिल्प में कसावट है। इसमें परिवार और बुद्धिजीवी कहे जाने वाले तबक़े के भीतर के तनाव भी हैं और समाज में चल रही हलचलों की गूंज भी। निर्देशक शांतनु बोस ने इससे जुड़े कई पहलुओं को उद्घाटित किया। मंचसज्जा भी प्रभावशाली थी। इसमें मुख्य घटनाएँ एक बड़े घर के ड्राइंगरूम में घटती हैं पर कुछ वाकये दूसरे कमरों में घटित होती हैं। उसी के अनुरूप नाटक का डिजाइन है।

चूँकि ये छात्र प्रस्तुति है इसलिए इसमें एक-एक भूमिका के लिए अमूमन दो-दो कलाकारों को मौक़े दिए गए। अलग-अलग प्रस्तुतियों में। इस लिहाज से `पार्टी’ यथार्थवादी अभिनय सीखने के लिए या उसका अभ्यास करने के लिए उपयुक्त अवसर भी देती है। खासकर भारतीय यथार्थवाद के प्रसंग में। और जिनको जो भूमिकाएँ दी गईं वे सब उसमें जमे भी। नाटक में लोकप्रिय बनाम कलात्मक वाली बहस भी है। यानी जिसे लोकप्रिय या व्यावसायिक रंगमंच कहा जाता है, क्या वो कलात्मक के दायरे में आ सकता है? कई बार जिनके नाटक व्यावसायिक रूप से सफल होते हैं उनको उत्कृष्ट या स्तरीय कला बिरादरी में शामिल नहीं किया जाता। ये कला बिरादरी के भीतर की राजनीति होती है। वहाँ भी कई प्रकार के रागद्वेष होते हैं। ये पक्ष भी इस नाटक में है।

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लेकिन `पार्टी’ की सबसे बड़ी खूबी क्या है? वो है इसके भीतर अंतर्निहित ध्वनि। ये जोर-जोर से तो नहीं लेकिन धीमे-धीमे ही सही ये नाटक कहता है कि कलाकारों- लेखकों की बिरादरी में आत्मकेंद्रीयता और आत्मरति होती है। ऐसे कई लेखक और कलाकार भी होते हैं जो उन लोगों की कोई चिंता नहीं करते जो आर्थिक और सामाजिक स्तर पर हाशिए पर जा रहे हैं। खासकर आदिवासी समाज के संकटों के प्रति शहरी मध्य और उच्च वर्ग के लोग उदासीन रहते हैं। आदिवासियों की जमीनें छीनी जा रही हैं और इसे विकास का नाम दिया जा रहा है। ये स्थिति आज के पचास साल पहले भी थी और आज भी है। समाज में जो हाशियाकरण हो रहा है बड़ा लेखक समुदाय इसके प्रति असंवेदनशील है। हालाँकि ऐसे लोग अपने लेखन और भाषणों में बार-बार संवेदना और संवेदनशीलता की बात करते हैं। पर कोई सक्रिय क़दम नहीं उठाते। समाज में और राजनीति में कई स्तरों पर असमानता बढ़ रही है, संवैधानिक प्रतिज्ञाओं की अनेदेखी की जा रही है पर अपने को बुद्धिजीवी कहनेवाला बड़ा वर्ग उसके प्रति निरपेक्ष हो जाता है। और यदि अमृत जैसा कोई शख्स इन सब चीजों को देखकर और समझकर न्याय के लिए संघर्ष करता है तो अंतत: उसे मार दिया जाता है। नाटक में अमृत कभी मंच पर नहीं आता, पर अनुपस्थित होकर भी वो उपस्थित रहता है।