पीएम मोदी के कर्नाटक में दिए गए भाषण को लेकर उनके वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष नजरिए पर बहस हो रही है। वरिष्ठ पत्रकार वंदिता मिश्रा ने भी इसका जायजा लिया है।
भारत का प्रधानमंत्री एक संवैधानिक संस्था है जिसका जिक्र संविधान के अनुच्छेद-74(1) में सबसे पहले मिलता है। भारत का प्रधानमंत्री ‘वैज्ञानिक तथा अनुसंधान परिषद’(CSIR) का अध्यक्ष होता है। यह देश की सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्था है जिसे दुनिया भर में ख्याति प्राप्त है।देश की 38 प्रयोगशालाओं में विस्तृत CSIR, 15 हजार से अधिक अंतरराष्ट्रीय पेटेंट रजिस्टर करवा चुकी है। शायद ही विज्ञान का कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां इस संस्था को विशेषज्ञता हासिल न हो। ऐसी संस्था का अध्यक्ष होना गर्व की बात है और भारत के सभी प्रधानमंत्रियों को इस पर गर्व होना चाहिए कि वो CSIR के पदेन अध्यक्ष होते हैं।
लेकिन CSIR जैसी वैज्ञानिक संस्था का पदेन अध्यक्ष होना अपने साथ एक बड़ी जिम्मेदारी भी लाता है। कितना भी जरूरी कारण हो, कैसी भी चुनावी बाध्यता हो लेकिन एक प्रधानमंत्री किसी भी रूप में अवैज्ञानिक तथ्यों और तर्कों को भारत की जनता के समक्ष नहीं रख सकता या यह कहें की प्रधानमंत्री को ऐसा नहीं करना चाहिए। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री अपने इस ‘वैज्ञानिक दायित्व’ से विमुख नजर आ रहे हैं, कम से कम उनके भाषण और भाषा शैली तो यही संदेश दे रही है। कर्नाटक चुनाव के दौरान कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में वादा किया है कि अगर वह सत्ता में आई तो बजरंग दल और PFI जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाएगी। लेकिन प्रधानमंत्री ने अपनी चुनावी ‘बाध्यताओं’ के चलते बजरंग दल को हिन्दू धर्म के बजरंग बली से जोड़ दिया।
कर्नाटक के होसपेट में एक रैली के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा- “मैं श्री हनुमान की जन्मभूमि पर होने के लिए भाग्यशाली हूं, लेकिन यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस समय मैं यहां हूं उस समय कांग्रेस ने सत्ता में आने पर बजरंग दल, जो बजरंग बली हनुमान को पूजते हैं, पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है।”आखिर यह कैसी वैज्ञानिकता है और किस किस्म का तर्कशास्त्र है जिसमें 38 साल पहले बना बजरंग दल सदियों से चले आ रहे बजरंग बली के बराबर हो जाता है? प्रधानमंत्री यह भी कहते हैं- "अतीत में उन्होंने (कांग्रेस) भगवान राम को ताले में बंद किया था। उनको उनसे समस्या थी। अब वे उन लोगों को ताले में बंद करना चाहते हैं जो बजरंग बली का नाम लेते हैं।"
सिर्फ चुनावी फायदे के लिए धर्म का यह कैसा उपहास है जिसमें बजरंग दल को बजरंग बली का प्रतिनिधि बना दिया गया है। प्रधानमंत्री ने यह कैसे तय किया कि जो हनुमान चालीसा पढ़ता है वह बजरंग दल का सदस्य होगा, और जो बजरंग दल का सदस्य होगा वही बजरंग बली का भी प्रतिनिधि होगा। प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य भारत में तर्क और वैज्ञानिकता के अकाल की ओर संकेत करता है। अपने इस आचरण के लिए उन्हे स्वयं CSIR जैसी संस्थाओं से अपनी संबद्धता समाप्त कर लेनी चाहिए। प्रधानमंत्री पहले भी ‘नाले से रसोई गैस’ और ‘बादलों में छिपकर फाइटर जेट्स’ को लड़ाई करने का अवैज्ञानिक ज्ञान प्रसारित कर चुके हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने इन तर्कों के आधार पर इन प्रश्नों का जवाब देना चाहिए कि क्या यह मान लिया जाए कि मंगलुरु के एक पब में श्रीराम सेना के सदस्यों ने जब महिलाओं के साथ अभद्रता की थी तो क्या इस अभद्रता को भगवान श्रीराम से जोड़ देना चाहिए?या जब पहले से घोषणा करके वेलेंटाइन डे के मौके पर सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है तो उसे बजरंग बली से जोड़कर देखा जाना चाहिए? अपने घोषित उपद्रवी एजेंडे से भारत की सांस्कृतिक इबारत लिखने की कोशिश करने वाले संगठन को भगवान बजरंग बली से जोड़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक नहीं किया है। बजरंग बली एक नायक थे जिनके मन में महिला सम्मान कूट कूट कर भरा था जबकि बजरंग दल के अंदर नायकत्व का अभाव है।
चुनाव प्रचार में धर्म का गलत तरीक़े से इस्तेमाल, वोट देने के लिए लोगों को उनकी आस्था के आधार पर प्रेरित करना, रैलियों में धार्मिक नारे लगवाना यह सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी धर्म की राजनीति करते हैं बल्कि यह इस बात का ज्यादा द्योतक है कि उन्हे अपनी हार का डर इतना अधिक सता रहा है कि प्रधानमंत्री अपने सभी संवैधानिक दायित्वों को भूलकर मात्र धर्म और संप्रदाय आधारित चुनाव को बढ़ावा दे रहे हैं। इसके पीछे के कारणों को प्रतिष्ठित संस्था CSDS द्वारा करवाए गए कर्नाटक चुनावों के लिए सर्वे के परिणामों से समझा जा सकता है।
यह भी नहीं पता कि सीआईए द्वारा बजरंग दल को धार्मिक उग्रवादी संगठन बताए जाने पर बजरंग बली का अपमान हुआ या नहीं, यह भी नहीं पता है कि प्रधानमंत्री ने इस संबंध में वैसी ही प्रतिक्रिया दी थी कि नहीं जैसी कर्नाटक चुनाव के दौरान कांग्रेस के खिलाफ दे रहे हैं! वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान का सम्मान और अपमान एक चुनाव सापेक्ष घटना है। वर्ना एक आस्तिक और धर्मनिष्ठ व्यक्ति जैसे महात्मा गाँधी के लिए ईश्वर एक नितांत व्यक्तिगत चीज है जिसे रैलियों और भाषणों में नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
चुनावी फायदे के लिए कोई अन्य नेता यह सब कर रहा होता तो ज्यादा चिंता की बात नहीं थी लेकिन एक ऐसा व्यक्ति जिसे देश के सर्वोच्च पदों पर नियुक्ति के लिए बनी समिति(कैबिनेट कमेटी ऑन अपॉइंटमेंट्स) का अध्यक्ष बनाया जाता है, जो राष्ट्रीय एकता परिषद का अध्यक्ष होता है जिसके ऊपर संविधान प्रदत्त अंतर्राज्यीय परिषद की अध्यक्षता का दारोमदार है, जो केंद्र सरकार का प्रमुख प्रवक्ता होता है जिसके ऊपर देश को धर्मनिरपेक्ष तरीके से एकीकृत और संगठित करने की संवैधानिक जिम्मेदारी होती है उसकी तरफ से ऐसे वक्तव्य आना भारत के लिए अच्छा नहीं है।
भारत कृषि प्रधान देश हो सकता है, मानवता प्रधान हो सकता है, संविधान प्रधान हो सकता है लेकिन धर्म प्रधान भारत बनाना न ही संवैधानिक आदर्शों पर ठीक बैठता है और न ही भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के आदर्शों पर ठीक बैठता है। यह उन धर्मनिरपेक्ष आदर्शों पर भी ठीक नहीं बैठता जिसकी वकालत भगत सिंह(‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’) और सुभाष चंद्र बोस जैसे मूर्धन्य राष्ट्रवादी एक सदी पहले कर चुके थे। संविधान ने भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए एक स्पष्ट संदेश दिया है। मूल कर्तव्यों में से एक 51A (h) के अनुसार“प्रत्येक नागरिक का यह दायित्व है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे”। यह अवधारणा भारत की अखंडता, एकता और भाईचारे के साथ साथ देश के वैज्ञानिक और मानव विकास को सुनिश्चित करेगी। और अंततः यही तो एक राष्ट्र के आगे बढ़ने का तरीका है न कि हजारों वर्षों से संचित की गई व्यक्तिगत आस्था के निजी चरित्र का राजनैतिक लाभ के लिए शोषण, जोकि आज के नेतृत्व द्वारा किया जा रहा है।