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क्या पर्यावरण की लड़ाई में भारत का प्रयास ईमानदार है?

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में दो दिवसीय नेशनल क्लाइमेट कॉन्क्लेव का आयोजन 10 से 11 अप्रैल के बीच किया गया। केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव की उपस्थिति में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कॉन्क्लेव का शुभारंभ किया। पर्यावरण के अतिशोषण पूर्ण रवैये के प्रति सावधान करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि निजी और स्वार्थ प्रेरित दृष्टिकोण से भविष्य के नकारात्मक परिणामों को रोकना मुश्किल होगा।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी तरफ़ से पर्यावरण के क्षेत्र में यूपी के अंदर हो रहे कार्यों के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि प्रदेश में हमने पिछले छह वर्षों में 133 करोड़ पौधे लगाकर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है। साथ ही इस वर्ष जुलाई के प्रथम सप्ताह में एक दिन में 35 करोड़ पौधे रोपे जाएंगे।

इसमें कोई शक नहीं कि पर्यावरण के प्रति राजनैतिक प्रतिबद्धता ही वह मुख्य तरीका है जिससे इसमें होने वाले नकारात्मक बदलावों को रोकने में मदद मिल सकती है। ग्लासगो समिट, 2021 में नेट ज़ीरो के लक्ष्य के बारे में सार्थक चर्चा हुई और इसे लगभग सभी देशों से व्यापक समर्थन भी मिला। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 2070 तक भारत को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में नेट ज़ीरो देश बनाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। इसी शृंखला में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की 35 करोड़ पौधे लगाए जाने संबंधी घोषणा भी अहम है।

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मुख्यमंत्री की घोषणानुसार पिछले 6 सालों में अन्य 133 करोड़ पौधों का रोपण भी अवश्य ही भारत को नेट ज़ीरो के करीब लाया होगा। बहुत अहम, बहुत सार्थक और बेहद प्रगतिशील कदम होने के बावजूद मैं एक प्रश्न जरूर पूछना चाहती हूँ कि क्या यूपी सरकार के पास इस बात का कोई आँकड़ा मौजूद है कि लगाए गए 133 करोड़ पौधों में से कितने पौधे वृक्ष बनने की प्रक्रिया में हैं? अर्थात कितने पौधे हैं जो वास्तव में जमीन पकड़ चुके हैं, लग चुके हैं और मुरझाए नहीं हैं? यदि कोई ऐसा आंकड़ा हो तो उससे भविष्य के पौधरोपण की रणनीति में आवश्यकतानुसार बदलाव लाए जा सकेंगे। इस बात का डर ज्यादा है कि कहीं यह 133 करोड़ पौधे कागजी निकले तो भारत पर्यावरण संरक्षण के अपने मिशन में कई कदम पीछे चला जाएगा। 

2014 में जब नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनावों के लिए वाराणसी से अपना नामांकन भरने गए थे तब उन्होंने कहा था कि 'न मुझे किसी ने भेजा है, न मैं आया हूं, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है।' भावुकता से ओतप्रोत यह शब्दावली आम जनमानस को समझाने के लिए पर्याप्त थी कि यदि वह प्रधानमंत्री बनते हैं तो गंगा की सफाई उनका एक प्राथमिक लक्ष्य होगा। प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद जल्दी ही जून 2014 में उनकी सरकार ने ‘फ्लैग्शिप कार्यक्रम’ के रूप में नमामि गंगे कार्यक्रम भी शुरू किया और वादा किया कि 2019 तक गंगा की सफाई का काम पूरा कर देंगे। लेकिन केंद्र सरकार के लक्ष्य को नीचे करते हुए 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले तत्कालीन जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि मार्च 2019 के पहले 80% गंगा साफ हो जाएगी। आज इस लक्ष्य को भी 4 साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन वर्तमान में मोदी सरकार गंगा साफ़ करने के अपने इस लक्ष्य को भी प्राप्त नहीं कर पाई है। लेकिन कुछ अन्य लक्ष्यों को ज़रूर पूरा किया गया जिनका पूरा होना वास्तव में ज़रूरी नहीं था; कम से कम गंगा की सफाई के दृष्टिकोण से! दिसंबर 2018 में एक आरटीआई के जवाब में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने बताया कि नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा के लिए निश्चित किए गए कोश में से 2014-15 से नवंबर 2018 के बीच सरकार ने प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रचार के लिए लगभग 36 करोड़ रुपए ख़र्च कर डाले। यह ख़र्च भी बुरा नहीं लगता यदि गंगा साफ़ हो गई होती लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। 

नरेंद्र मोदी जैसी ही भावुकता दिखाते हुए यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नेशनल क्लाइमेट कॉन्क्लेव में कहा कि "हम सभी इस बात से अवगत हैं कि भारतीय परंपरा हमेशा से कितनी पर्यावरण अनुकूल रही है। अथर्ववेद के सूक्त के अनुसार हम सभी पृथ्वी के पुत्र हैं, इसलिए हम सभी को इससे जुड़ाव महसूस करना चाहिए। एक बेटे का अपनी मां के प्रति क्या कर्तव्य होता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है।” 
यदि वास्तव में प्रकृति को माँ माना जा रहा है तो निश्चित ही उसके साथ धोखा नहीं किया जाना चाहिए। कम से कम माँ से जो वादा करें उसे निभाना चाहिए अन्यथा किसी वेद या किसी शस्त्र को भाषण में उल्लिखित करना पाखंड ही प्रतीत होगा।

मुख्यमंत्री ने दावा किया कि पहले कानपुर में 14 करोड़ लीटर सीवर गिरता था, आज एक बूंद भी नहीं गिरता। लेकिन उनके दावे ख़बरों और शोधों से मेल नहीं खाते इस बात को हाल की कुछ घटनाओं से समझा जा सकता है। दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित जर्नलों में से एक ‘नेचर’ में छपे एक शोध के अनुसार “अत्यधिक औद्योगीकृत कानपुर क्षेत्र, उद्योगों से अत्यधिक प्रदूषित प्रवाह के कारण गंगा नदी का सबसे प्रदूषित हिस्सा है। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ कृषि अपवाह गंगा के इस औद्योगिक क्षेत्र में प्रदूषण के जोखिम को और बढ़ा देता है।” 

मार्च 2022 को इंडिया टुडे में छपी खबर के अनुसार, वर्ष 2018 में कानपुर के सीसामऊ, परमट, बाबा घाट व नवाबगंज क्षेत्र आदि में 63 करोड़ रुपये खर्च कर नालों को बंद कर दिया गया था। लेकिन हाल ही में, एशिया के सबसे बड़े नाले, सीसामऊ नाले के बारे में यह पाया गया कि नाले का पानी अभी भी गंगा में डाला जा रहा है।

सितंबर 2022 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि वह कानपुर जिले में टेनरियों से उचित उपचार के बिना गंगा नदी में छोड़े जा रहे क्रोमियम-दूषित प्रवाह के संबंध में शीघ्र कार्रवाई करे और एक अनुपालन रिपोर्ट दर्ज करे। पीठ ने यह भी कहा कि “राज्य के अधिकारियों की ओर से पर्याप्त कार्रवाई के अभाव में समस्या अभी भी बनी हुई है, जो मिशन मोड में सुधारात्मक कार्रवाई की मांग करती है, जिसमें ऐसी निरंतर विफलता के लिए दोषी अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करना भी शामिल है।"

NGT द्वारा की गई इतनी सख्त टिप्पणी यह दर्शाती है कि उत्तर प्रदेश में गंगा सफाई को लेकर जो चल रहा है वह न सिर्फ अपर्याप्त है बल्कि प्रशासनिक लापरवाही से भरा हुआ है। फिर भी अगर सीएम योगी को लगता है कि उनके दावे में सच्चाई है तो उन्हें और उनकी सरकार को इस संबंध में शहरों के लिए अलग-अलग ‘श्वेत पत्र’ लाने चाहिए ताकि प्रदेश जान सके कि कौन सा बड़ा शहर जो गंगा के प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार था अब पूर्णतया इस अपराध से मुक्त हो गया है। यदि ऐसा कुछ नहीं लाया जाता तब तक मुख्यमंत्री पर भरोसा करना थोड़ा मुश्किल है।

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नेशनल क्लाइमेट कॉन्क्लेव के अपने लोकार्पण भाषण में मुख्यमंत्री ने कहा कि “यह गर्व की बात है कि भारत इस दिशा में दुनिया का मार्गदर्शन कर रहा है।” अपनी पीठ थपथपाने की ऐसी शैली विकासोन्मुख प्रवृत्ति को रोक सकती है। यह सही है कि भारत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पर्यावरणीय मुद्दों को लेकर नेतृत्व करता रहा है और विकासशील देशों की आवाज़ भी उठाता रहा है। लेकिन पर्यावरण को लेकर भारत का अपना प्रदर्शन अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नहीं है। पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक (ईपीआई) 2022 इसका एक उम्दा उदाहरण है। येल सेंटर फॉर एंवायरमेन्टल लॉ एण्ड पॉलिसी और कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के सहयोग से प्रत्येक दो वर्षों में जारी किया जाने वाला यह सूचकांक दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित सूचकांकों में से एक माना जाता है। 2022 के इस सूचकांक में भारत 180 देशों के मुकाबले सबसे निचले पायदान अर्थात 180वें स्थान पर है। 40 संकेतकों पर आधारित इस सूचकांक में भारत की दयनीय स्थिति यह बताती है कि पर्यावरण की लड़ाई में भारत का प्रयास ईमानदार नहीं है। इस सूचकांक का मानना है कि भारत में वायु गुणवत्ता 180 देशों के मुकाबले 179वें स्थान पर है यही हाल जल में पाई जाने वाली भारी धातुओं के स्तर और घटते हुए जैव विविधता के स्तर के साथ भी है। ब्लैक कार्बन को रोकने व मत्स्यन क्षेत्र के सुधार के अतिरिक्त कोई और ऐसा संकेतक नहीं है जहां भारत ने बेहतर प्रदर्शन किया हो। जो सबसे दिलचस्प बात पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में बताई गई है वह यह कि भारत ने कानून के शासन, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और सरकार की प्रभावशीलता जैसे क्षेत्रों में भी बहुत कम काम किया है। 

हालाँकि भारत सरकार ने सूचकांक के परिणामों से असहमति जताते हुए सूचकांक के खिलाफ अपनी प्रतिक्रिया दे दी है। परंतु भारत का पर्यावरण को लेकर लचर प्रदर्शन किसी एक सूचकांक तक ही सीमित नहीं है। संयुक्त राष्ट्र से मान्यता प्राप्त संगठन सस्टैनबल डेवलपमेंट सॉल्युशंस नेटवर्क (SDSN) द्वारा 2015 के पेरिस समझौते के बाद से प्रत्येक वर्ष सतत विकास रिपोर्ट जारी की जाती है। इस रिपोर्ट का कार्य विभिन्न देशों द्वारा अपनाए गए 17 सतत विकास लक्ष्यों की प्रगति पर अपनी रिपोर्ट जारी करना है। 2021 की 117वीं रैंक के मुक़ाबले भारत 2022 में इस सूचकांक में नीचे खिसक कर 121वें स्थान पर आ चुका है। सतत विकास लक्ष्यों में जलवायु परिवर्तन, भुखमरी, ग़रीबी और लिंग असमानता जैसे बड़े उद्देश्यों पर कार्य करने की आशा की गई है। जबकि भारत तमाम अन्य सूचकांकों की तरह वैश्विक भुखमरी सूचकांक (जीएचआई) में 121 देशों के मुक़ाबले 107वें स्थान पर है।
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जनवरी, 2023 में NGT द्वारा उत्तर प्रदेश की स्मार्ट सिटी परियोजना में गंभीर पर्यावरण उल्लंघन पाया गया, मार्च 2022 में पर्यावरण नियमों के उल्लंघन के लिए NGT ने यूपी के अमरोहा धातु कारखाने पर 50 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्थित धामपुर शुगर मिल में चल रही पर्यावरणीय गड़बड़ियों के चलते NGT ने 20 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया। ये गिनती के उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि यदि कोई कार्यवाही की जा रही है तो वह या तो NGT जैसे संस्थानों द्वारा स्वतः संज्ञान के माध्यम से है या फिर तमाम अन्य पर्यावरणीय संगठनों व पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं द्वारा दायर किए जा रहे कानूनी वादों के माध्यम से। इसमें सरकार का कोई रोल नजर नहीं आ रहा है। हाँ, यह जरूर समझ में आ रहा है कि कंपनियों और प्रशासन की साँठ गाँठ से चल रहे पर्यावरणीय बर्बादी के खेल को मात्र पौधे लगाकर नहीं पाटा जा सकता है। इसके लिए ज़रूरी है राजनैतिक प्रतिबद्धता जो अपनी प्रेरणा इस बात से लेती हो कि आने वाला भारत बंद कमरों में अपनी जिंदगी न गुजारे। 

पर्यावरणीय क्षति को लेकर सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरी वैश्विक बिरादरी से प्रश्न पूछने की आवश्यकता है क्योंकि पर्यावरणीय मामले को लेकर 70 के दशक से चल रहे संवाद 2015 में पेरिस समझौते तक तो आ पहुंचे लेकिन विभिन्न देश अपने द्वारा किए जाने वाले वादों को गंभीरता से नहीं लेते। हाल में जारी एक रिपोर्ट, ‘बैंकिंग ऑन क्लाइमेट केओस’ यह खुलासा करती है कि ऐतिहासिक पेरिस समझौते के बाद दुनिया के लगभग 60 बैंकों ने 5.5 ट्रिलियन डॉलर उन कंपनियों और परियोजनाओं में लगाए हैं जो जीवाश्म ईंधन से जुड़े हुए हैं। अकेले 2022 में ही ऐसी परियोजनाओं पर 763 बिलियन डॉलर का ख़र्च किया गया है। क्या यह सब भारत में या भारत द्वारा किया जा रहा है? निश्चित रूप से नहीं। क्या ये बैंक भारत से संबंधित हैं? निश्चित रूप से नहीं। यह एक आम समझ बन चुकी है कि पर्यावरणीय समस्याओं को सिर्फ वैश्विक दृष्टिकोण से ही समझा जा सकता है। पर्यावरण के क्षेत्रीय दृष्टिकोण पर्यावरणीय क्षति की पूरी तस्वीर साफ नहीं कर पाते। लेकिन इस बात से इंकार करना भी मुश्किल है कि कुछ देशों में हो रहा बेहिसाब ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन आने वाले समय में पूरी दुनिया को संकट में डाल देगा। 

ईपीआई अनुमानों से संकेत मिलता है कि यदि मौजूदा रुझान जारी रहे तो सिर्फ चार देश -चीन, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस - 2050 में अवशिष्ट वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 50% से अधिक के लिए जिम्मेदार होंगे। साथ ही 2050 में लगभग 80% उत्सर्जन के लिए कुल 24 देश जिम्मेदार होंगे।

आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि गरीबी और भुखमरी झेल रहे देश में भाषण ही आशा बनता जा रहा है। पर्यावरण की देखभाल और गुणवत्ता के लिए किए गए वादे आने वाले नए भाषणों और वादों के नीचे दबकर अपनी जान दे देते हैं। बिना किसी उचित मॉनिटरिंग व्यवस्था के कोई भी प्रयास धरातल में परिणाम नहीं दे पाएगा। विभिन्न वैश्विक सूचकांक और रिपोर्ट्स तो यही कहानी बयान कर रहे हैं। ऑक्सफैम की रिपोर्ट भारत में बढ़ रही ऐतिहासिक असमानता की ओर इशारा कर रही है, ईपीआई बदहाल पर्यावरण की ओर और जीएचआई भारत में बढ़ती भूखे नागरिकों की संख्या की ओर जबकि भारत में बैठी सरकार समस्याएं स्वीकारने के बजाय उन्हें नकारने में लगी हुई है। समस्या का हल कम से कम इस दृष्टिकोण से तो नहीं निकल सकता! 

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वंदिता मिश्रा
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