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लोकसभा उपाध्यक्ष का पद रिक्त क्यों, संविधान का उल्लंघन कब तक? 

 
भारत के संविधान ने देश की सभी संवैधानिक संस्थाओं के गठन और संचालन के स्पष्ट निर्देश दिए हैं जिसकी वजह से चुनी हुई सरकारें संविधान सम्मत और कानून सम्मत कार्य करने के लिए बाध्य रहती हैं। ऐसा ही एक स्पष्ट निर्देश संविधान के भाग-5, अध्याय-2 के अनुच्छेद-93 में दिया गया है। यह निर्देश देश और सरकारों को यह बताने के लिए है कि लोकसभा में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनो ही पदों को भरना संवैधानिक बाध्यता है। इस अनुच्छेद के अनुसार, “लोकसभा, यथाशीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब लोकसभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी।”

इस अनुच्छेद का मतलब बिल्कुल साफ है और इस तथ्य को समझने के लिए किसी संविधान विशेषज्ञ की आवश्यकता नहीं है कि लोकसभा अध्यक्ष पद का चुनाव होते ही जल्द से जल्द आवश्यक रूप से लोकसभा उपाध्यक्ष का चुनाव करना होगा। यद्यपि संविधान ने समय सीमा नहीं तय की है लेकिन फिर भी संविधान एक जिम्मेदार लोकतान्त्रिक सरकार से यह आशा करता है कि सरकार अनुच्छेद का आशय समझकर तत्काल इसे लागू करे। जून 2019 में वर्तमान, 17वीं, लोकसभा शुरू होने के दो दिन बाद ही लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव कर लिया गया लेकिन लोकसभा उपाध्यक्ष का चुनाव अभी तक नहीं किया गया जबकि जून 2023 में इस लोकसभा को 4 वर्ष पूरे हो जाएंगे।

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वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने सितंबर 2020 में कहा था कि लोकसभा उपाध्यक्ष को नियुक्त करना उनका काम नहीं है। हो सकता है कि नियुक्ति का काम उनका न हो लेकिन क्या वह लोकसभा नियमावली के नियम-8 को भी नकार सकते हैं जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि लोकसभा उपाध्यक्ष के चुनाव की तारीख को निश्चित करने का कार्य/दायित्व लोकसभा अध्यक्ष का है। एक बार वह तारीख तय कर दें इसके बाद का काम सदन स्वयं कर लेगी। 

क्या कारण है कि लोकसभा अध्यक्ष ने अपने कर्त्तव्य का पालन अभी तक नहीं किया है? जबकि उन्हे निश्चित रूप से यह ज्ञान होगा कि 1952 में बनी पहली लोकसभा से लेकर भारतीय संसदीय इतिहास में ऐसा कभी नही हुआ कि लोकसभा उपाध्यक्ष का पद इतने समय तक के लिए रिक्त रहा हो।


शायद उन्हे यह भी ज्ञान होगा कि लोकसभा उपाध्यक्ष की ‘यथाशीघ्र’ नियुक्ति का इतिहास यह है कि ज्यादातर उपाध्यक्षों का चुनाव लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव के 30 दिन के अंदर ही सम्पन्न होता रहा है, सिवाय कुछ अपवादों के, जैसे- 10वीं लोकसभा के उपाध्यक्ष एस मल्लिकार्जुनईया का चुनाव 33 दिनों बाद, 11वीं लोकसभा के सूरज भान का 49 दिनों बाद और 12वीं लोकसभा के उपाध्यक्ष पी एम सईद का चुनाव 9 महीने बाद हुआ था। 

केंद्र सरकार के एक मंत्री ने हाल ही में कहा था कि उपाध्यक्ष के बिना भी सदन की कार्यवाही अच्छे से चल रही है, सदन के लिए पीठासीन अधिकारियों की एक लंबी सूची बनाई गई है जो सदन चलने के लिए समय-समय पर लोकसभा अध्यक्ष को सहयोग देते रहते हैं। 

प्रश्न यह है कि सरकार उपाध्यक्ष चुनने की बजाय सिर्फ पीठासीन अधिकारियों की आड़ में ही क्यों बैठना चाहती है?


इसके लिए यह जानना जरूरी है कि एक उपाध्यक्ष और एक सामान्य पीठासीन अधिकारी के बीच अंतर क्या है? लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनो ही पीठासीन अधिकारी होते हैं इसके अलावा लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों में से लगभग 10 सांसदों को पीठासीन अधिकारी के रूप में चुनता है। ये 10 पीठासीन अधिकारी लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में सदन संभालते हैं। लेकिन मूल बात यह है कि अन्य पीठासीन अधिकारियों के विपरीत लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद अनुच्छेद-93 के तहत एक संवैधानिक पद है। लोकसभा उपाध्यक्ष, अध्यक्ष की अधीनस्थ संस्था नहीं है और न ही उपाध्यक्ष अध्यक्ष के प्रति जवाबदेह है उसकी जवाबदेही सदन के प्रति ही है। 

लोकसभा अध्यक्ष की तरह ही उपाध्यक्ष का वेतन भारत की संचित निधि से दिया जाता है जिस पर सरकार और सदन का कोई जोर नहीं है। साथ ही उपाध्यक्ष के लिए अन्य सेवा शर्तें भी लगभग अध्यक्ष के समकक्ष ही हैं।
सबसे अहम बात तो यह है कि लोकसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के किसी भी निर्णय को उलट नहीं सकता जबकि अन्य पीठासीन अधिकारियों के मामले में अध्यक्ष को यह शक्ति रहती है। यदि उपाध्यक्ष पीठासीन रहते हुए 10वीं अनुसूची के तहत किसी सदस्य को सदन के अयोग्य करार दे दे तो लोकसभा अध्यक्ष इस निर्णय के खिलाफ कुछ नहीं कर सकते। शायद सरकार उपाध्यक्ष की इन्ही शक्तियों और लोकसभा की विपक्ष के किसी सदस्य को उपाध्यक्ष बनाने की स्वस्थ परंपरा से डर रही है अन्यथा उपाध्यक्ष का चुनाव ऐतिहासिक रूप से इतना दिनों तक रोकना नहीं पड़ता। लेकिन विपक्षी दल से उपाध्यक्ष का चुनाव भी कोई नई बात नहीं है। 

अब तक के संसदीय इतिहास में यदाकदा ही उपाध्यक्ष का पद सत्ता पक्ष के सदस्य के पास रहा है।


भारतीय जनता पार्टी, जिसकी वर्तमान में सरकार है, के 1980 में जन्म के बाद से अब तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि उपाध्यक्ष जैसा संवैधानिक और आधिकार सम्पन्न पद विपक्ष के पास न रहा हो। यहाँ तक कि ‘इमरजेंसी’ और तथाकथित एकाधिकारवाद की प्रवृत्ति के लिए लगभग हर दिन कोसी जाने वाली पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के लगभग 16 साल के प्रधानमंत्री कार्यकाल में लगभग 14 सालों तक उपाध्यक्ष को विपक्षी दल से चुनने की स्वस्थ परंपरा रही है। मतलब उन्हे सदन में विपक्ष की संवैधानिक शक्ति की परंपराओं से कोई गुरेज नहीं था, जबकि आज वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीब 9 सालों के कार्यकाल में लगभग 4 सालों से उपाध्यक्ष का शक्ति सम्पन्न पद रिक्त रखा गया है। ऐसा क्यों है?

अब तो यह मामला सर्वोच्च न्यायालय की 3 जजों की पीठ के सामने भी जा पहुँचा है जिसने सरकार को नोटिस भी भेज दिया है, अब सरकार को जवाब देना है कि आखिर क्यों संवैधानिक रूप से बाध्यकारी एक सशक्त संस्था के कार्यों को रोका जा रहा है? इसलिए वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए जल्द से जल्द उपाध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए। भले ही ब्रिटिश संसदीय परंपरा के विपरीत भारतीय लोकसभा अध्यक्ष को अपने राजनैतिक दल से इस्तीफा न देना पड़ता हो फिर भी मुझे नहीं लगता कि उन पर कोई राजनैतिक दबाव होगा, होना भी नहीं चाहिए आखिर वह सदन के अध्यक्ष हैं सदन के प्रतिनिधि हैं।
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद और उसका इतिहास नया नहीं है। भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत इन पदों का सृजन हुआ था तब इन्हे क्रमशः प्रेसीडेंट व डिप्टी प्रेसीडेंट कहा जाता था। यद्यपि भारत सरकार अधिनियम 1935 में प्रेसीडेंट और डिप्टी प्रेसीडेंट के पदों को अध्यक्ष व उपाध्यक्ष नाम दे दिए गए परंतु अधिनियम लागू न होने कारण पहले के नाम 1947 तक चलते रहे। इसके बाद 1921 में भारत के गवर्नर जनरल ने स्वस्थ परंपरा के रूप में जहां फ़्रेडरिक व्हाइट को प्रेसीडेंट बनाया वहीं भारतीय विद्वान सच्चिदानंद सिन्हा को डिप्टी प्रेसीडेंट नियुक्त किया। यहाँ तक कि अंग्रेजों ने उस व्यवस्था का विरोध नहीं किया जिसके तहत 1925 में विट्ठल भाई पटेल को जो कि एक भारतीय थे, वे केन्द्रीय विधान परिषद के प्रेसीडेंट चुन लिए गए। 

संविधान किस बात को कितना आवश्यक समझता है यह बात उसके अनुच्छेदों की भाषा से समझी जा सकती है। अनुच्छेद-94(ख), को ही ले लीजिए लोक सभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य “किसी भी समय, यदि वह सदस्य अध्यक्ष है तो उपाध्यक्ष को संबोधित और यदि वह सदस्य उपाध्यक्ष है तो अध्यक्ष को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा”।
क्या अनुच्छेद-94(ख) इस बात को स्पष्ट नहीं कर रहा है कि किसी भी नई लोकसभा को लगभग अपने पूरे कार्यकाल के लिए अध्यक्ष के साथ साथ उपाध्यक्ष की भी आवश्यकता है?यदि आज किसी कारणवश लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को अपने पद से इस्तीफा देना पड़े तो वह इस्तीफा किसको संबोधित करेंगे? उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में तो यह एक संवैधानिक संकट होगा!

लगभग इसी तरह अनुच्छेद-95, अपने शब्दों के चयन और उनके क्रम से यह चीख चीख कर कह रहा है कि लोकसभा में अध्यक्ष के साथ साथ उपाध्यक्ष भी होना ही चाहिए। अनुच्छेद-95(1) के अनुसार, “जब अध्यक्ष का पद रिक्त है तब उपाध्यक्ष, या यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो लोकसभा का ऐसा सदस्य, जिसको राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा”। संविधान स्पष्ट रूप से आशा करता है कि अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष उसके कार्यों का निर्वहन करे। क्या जानबूझकर उपाध्यक्ष का चुनाव न करना संविधान का उल्लंघन नहीं है?
संविधान द्वारा ऐसी ही गूंज अनुच्छेद-95(2) के माध्यम से भी पैदा की गई है जिसे वर्तमान लोकसभा अनदेखा कर रही है। इस अनुच्छेद के अनुसार, “लोकसभा की किसी बैठक के अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो लोकसभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो लोकसभा द्वारा अवधारित किया जाए, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा”। 

संवैधानिक वास्तविकता तो यह है कि लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पद अलग किए ही नहीं जा सकते, ये तो अनुच्छेद 93, 94 95 और 96 के माध्यम से आपस में गुंथे हुए हैं। इन्हे अलग करके देखना संवैधानिक धागों को गलत नियत से उधेड़ने की साजिश समझ आती है।


पहले ही किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्लू मामले (1993) में सर्वोच्च न्यायालय सदन के अध्यक्ष की निष्पक्षता पर संदेह दर्शा चुका है इसलिए जरूरी है कि सदन की गरिमा को लेकर अध्यक्ष सतर्क रहें। जनमानस में ऐसा कोई भी संदेश जाना अत्यंत नकारात्मक और लोकसभा के लिए अपमानजनक भी है। यह अध्यक्ष की जिम्मेदारी है कि ऐसा कोई संदेश न जाने पाए। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा के अध्यक्ष की भूमिका और उसकी संवेदनशीलता व दायित्व बोध को कुछ इन शब्दों में बयान किया। उन्होंने कहा था-

अध्यक्ष सदन की गरिमा तथा उसकी स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है और चूँकि सदन राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिये अध्यक्ष एक प्रकार से राष्ट्र की स्वतंत्रता और स्वाधीनता का प्रतीक होता है।


- जवाहर लाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री

लोकसभा अध्यक्ष पद गरिमा से भरा हुआ है सदन में और सदन के बाहर वह लोकसभा के सदस्यों और इसलिए भारत के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए जिम्मेदार संस्था है। उसकी देखरेख में चल रही सदन की किसी भी कार्यवाही को देश की किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। अध्यक्ष पद का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि वरीयता सूची में अध्यक्ष को भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ 7 वें स्थान पर रखा गया है। 
एक तरफ भारत के संविधान का ‘अभिरक्षक’ सर्वोच्च न्यायालय का सर्वोच्च अधिकारी है तो दूसरी तरफ भारत के नागरिकों के प्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्था का मुख्य, पीठासीन अधिकारी। अध्यक्ष को पार्टी, विचारधारा और अपने व्यक्तित्व से बाहर निकलकर संवैधानिक दायित्व निभाने होते हैं। भले ही उसकी उन्हे कैसी भी और कितनी भी कीमत चुकानी पड़े। 

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सीपीएम के विशाल व्यक्तित्व सोमनाथ चटर्जी ने लगभग 40 वर्षों तक लोकसभा में अपने दल का प्रतिनिधित्व किया इसके बावजूद सीपीएम द्वारा संसद के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण (भारत-यूएसए न्यूक्लियर डील) के दौरान निष्पक्षतापूर्ण रुख पर टिके रहने के कारण निष्कासित कर दिया गया। परंतु उन्होंने इसकी चिंता नहीं की। उन्हे चिंता थी तो सिर्फ अपने संवैधानिक दायित्व की। ऐसे वर्ष 1988 में तमिलनाडु विधानसभा अध्यक्ष पी.एच. पांडियन ने अपनी ही पार्टी (AIADMK) के छह वरिष्ठ मंत्रियों को अयोग्य ठहरा दिया था। इन जैसी घटनाओं ने संविधान निर्माताओं द्वारा अध्यक्ष को दी गई शक्तियों के निर्णय को गौरवान्वित किया है। क्या वर्तमान 17वीं लोकसभा अपने इस गौरव को बरकरार रख पाई है?

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वंदिता मिश्रा
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