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प्रधानमंत्री की गारंटी पर भरोसा नहीं किया जा सकता

एक प्रतिष्ठित हिन्दी अखबार के मुख्य पृष्ठ का ऊपरी आधा हिस्सा चार ऐसी खबरों से भरा था जिन्हे पढ़कर भारत के वर्तमान परिदृश्य को समझा जा सकता है। पहली खबर, ‘भारत बनेगा तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था: नरेंद्र मोदी’, दूसरी खबर, ‘मणिपुर में भीड़ ने फूँक डाले 30 मकान’, तीसरी खबर, मोदी ‘सरकार की कथनी और करनी में अंतर’ और चौथी खबर थी, ‘मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव मंजूर’। 

ये चारों खबरें अपनी अपनी कहानी तो बयान कर ही रही हैं साथ ही आपस में संवाद करती भी नजर आ रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के प्रगति मैदान में ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी एवं सम्मेलन केंद्र(IECC) परिसर का उद्घाटन करने गए थे। यहाँ बने सम्मेलन केंद्र का नाम ‘भारत मंडपम’ रखा गया है। इसके नाम से कुछ संदेह हो सकता है लेकिन तथ्य यह है कि यह न ही धार्मिक भवन है और न ही किसी की व्यक्तिगत इमारत! यहाँ9-10 सितंबर को भारत की मेजबानी में G-20 की बैठक होनी है। 

उद्घाटन के बाद स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री जी ने भाषण भी दिया। उन्होंने भारत मंडपम की व्याख्या करते हुए कहा, “भारत मंडपम आह्वान है भारत के सामर्थ्य का, भारत की नई ऊर्जा का। यह भारत की भव्यता और इसकी इच्छाशक्ति का दर्शन है”। इसके बाद उन्होंने अपनी सरकार की तमाम योजनाओं के बारे में जनता/वोटरों को अवगत कराया ताकि जनता आज भी यही सोचे कि वर्तमान केंद्र सरकार का फाउंडेशन जनहित की योजनाओं पर टिका है। भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देखते देखते अचानक से पीएम विपक्ष पर हमलावर हो जाते हैं मानो भारत और इसका राजनैतिक विपक्ष आपस में दो अलग अस्तित्व हों। विपक्ष को ‘नकारात्मक सोच’ वाला कहकर पीएम आरोप लगाते हैं कि कुछ लोग तो चाहते ही नहीं थे कि भारत मंडपम का निर्माण हो। 
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इससे अधिक हास्यास्पद, तर्कहीन और नकारात्मक बात क्या हो सकती है जिसमें देश का प्रधानमंत्री देश के विपक्ष पर यह आरोप लगाने लगे कि वह देश के अवसंरचनात्मक विकास को रोक रहा है। क्या पीएम को यह लगा कि भारत मंडपम उनकी व्यक्तिगत या उनके दल की संपत्ति है? क्या उन्हे यह लगा कि वो और उनका दल सदा ही सत्ता में बने रहेंगे? मुझे पूरी आशा है कि पीएम मोदी से भी यह सवाल पूछे जाते तो उनका उत्तर ‘नहीं’ में होता! तब तो उन्हे ऐसा नहीं सोचना चाहिए था। विपक्ष यदि किसी अस्पताल के निर्माण में भी सवाल उठाएगा तो इसका मतलब है कि वह उस निर्माण में अंतर्निहित कमियों और भ्रष्टाचार को उजागर करना चाह रहा होगा। 
यदि भारत मंडपम पर सवाल उठाए गए होंगे तो वो सरकार की नीयत, भ्रष्टाचार और निर्माण के औचित्य को लेकर रहे होंगे न कि भारत के विकास को रोकने की मंशा से! लेकिन प्रधानमंत्री जी ने शायद कुछ और समझ लिया है!
अपने इसी भाषण में पीएम ने नीति आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए गरीबी में आई कमी और भारत की आर्थिक प्रगति की भी चर्चा की। यह चर्चा भी उचित ही है। 90 के दशक के शुरुआत में नरसिम्हाराव सरकार द्वारा उठाए गए आर्थिक सुधारों ने जो राह पकड़ाई भारत ने उसे कभी छोड़ा नहीं। राव के बाद के सभी प्रधानमंत्रियों ने कमोबेश वही मॉडल इस्तेमाल किया इसलिए भारत लगातार प्रगति करता रहा। वही प्रगति भारत 2014 के बाद भी करता, इससे कोई फ़र्क नहीं था कि देश का प्रधानमंत्री कौन बना है या कितने समय तक रहने वाला है, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार के एक के बाद एक बिना सोचे समझे लिए गए फैसलों ने भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी। पूरी तरह अवैज्ञानिक और बिना किसी सोच-विचार और आँकलन के ‘नोटबंदी’ लगा देने और जीएसटी के खराब कार्यान्वयन ने भारतीय अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से को व्यापक चोट पहुंचाई। भारत में काम करने वाले भारत के लोग किसी तरह इस समस्या से लड़ ही रहे थे कि कोरोना ने उनके संघर्ष पर पानी फेर दिया। 

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि मोदी सरकार की जीएसटी और नोटबंदी जैसी नीतियाँ विफल न हुई होतीं तो भारत की अर्थव्यवस्था में कोरोना का इतना अधिक दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। प्रधानमंत्री यदि सही समय पर सही निर्णय लेते तो भारत आज और बेहतर आर्थिक स्थिति में होता। पीएम मोदी भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्विक स्तर पर जिस पाँचवे स्थान से इतना खुश नजर आ रहे हैं उन्हे और भी खुशी मिलती, जिस नीति आयोग की गरीबी कम होने संबंधी रिपोर्ट ने उन्हे उत्साह दिया है उसी नीति आयोग की रिपोर्ट में भारत और भी अधिक गरीबों को गरीबी से बाहर निकालता दिखता! लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि पीएम मोदी और उनकी सरकार ने सही समय पर सही कदम नहीं उठाए इसलिए आज उन्हे अपनी सरकार की उपलब्धियों में चमक लगाने के लिए विपक्ष पर कीचड़ फेंकना ज्यादा लाभकर प्रतीत हो रहा है। इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि “10वें नंबर से 5वें नंबर पर और 5वें से तीसरे नंबर पहुँचने के लिए जिन आंकड़ों को आधार बनाया जा रहा है वो आँकड़े ही सही नहीं है…

2016 के बाद से अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2-3% या शून्य प्रतिशत से ज्यादा नहीं रही है खासकर तब जब नोटबंदी के कारण सब बंद पड़ा था”। उनका मानना है कि प्रति-व्यक्ति आय में तो हम आज भी 142वें नंबर पर हैं। प्रो. कुमार ने आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि “सरकार केवल आंकड़ों का खेल खेल रही है। हम 10वे नंबर से 5वें नंबर पर नहीं पहुंचे हैं। अभी तो हम 10वें नंबर के आसपास ही हैं जहां हम पहले थे”। 

इसके बाद भी अगर पीएम भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की ‘गारंटी’ दे रहे हैं तो उस पर कितना भरोसा किया जा सकता है? गारंटी देने वाले व्यक्ति की विश्वसनीयता सबसे अहम है और प्रधानमंत्री जी के विषय में यही एक गुण है जो ‘विलुप्त’ हो चुका है।
इस बात को देश में चल रही विभिन्न घटनाओं से समझा जा सकता है। एक व्यक्ति के पास दो से अधिक आँखें होना संभव नहीं है लेकिन भारत जैसे बड़े और विविधतापूर्ण देश में प्रधानमंत्री जैसे राष्ट्रीय नेता के पास कई आँखें होना जरूरी है, और यह संभव भी है। प्रधानमंत्री के पास जो तंत्र उपलब्ध होता है उसके आधार पर उसकी कई आँखें संभव हैं ताकि वह देश के हर कोने की स्थिति को समझ सके, उस पर प्रतिक्रिया दे सके और जल्द से जल्द समाधान निकाल सके। लेकिन यदि प्रधानमंत्री अपनी कुछ आँखों को बंद ही रखे या न देखने का प्रहसन करता रहे तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है। ऐसी ही विस्फोटक स्थिति इन दिनों उत्तर पूर्वी भारत में बनी हुई है। 

हिन्दी अखबार की दूसरी खबर थी, कि ‘मणिपुर में भीड़ ने फूँक डाले तीस मकान’! और इस खबर के बगल में प्रधानमंत्री की देश को तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की गारंटी की घोषणा! यह एक ऐसा विरोधाभाष है जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है। एक छोटा सा राज्य मणिपुर जो पहले लगभग पूरी तरह से शांत था और सुचारु रूप से चल रहा था वह आज पूरी तरह ‘आग’ के हवाले हो चुका है। महिलाओं के सामूहिक बलात्कार के नृशंस वीडियो सामने आ रहे हैं, पुलिस द्वारा कस्टडी में लोगों की मौत हो रही है, घर जलाए जा रहे हैं और दो समुदाय आपस में एक दूसरे के खून के प्यासे हो चुके हैं। तो दूसरी तरफ एक अक्षम मुख्यमंत्री है जो लगातार अपने नागरिकों को मरता देख रहा है, पाशविक प्रवृत्तियों को न सिर्फ पनपता देख रहा है बल्कि यह बोलने में भी संकोच नहीं कर रहा है कि ऐसी पाशविक घटनायें सैकड़ों की संख्या में हो रही है? हजारों की संख्या में केन्द्रीय बल और पुलिस तैनात है इसके बावजूद मणिपुर लगातार सुलग रहा है। किसी ने दो समुदायों में ऐसी आग लगाई है जिसे बुझाना अब मुश्किल होता जा रहा है। आज के दौर में भी लोकतंत्र प्रेमी और शांतप्रिय भारत और इसके निवासी आपस में इतना भीषण तरीके से भी लड़ सकते हैं, यह आश्चर्यजनक है। 
पीएम मोदी और केंद्र सरकार लगातार यह देख रहे हैं कि कैसे एक राज्य अपने मुख्यमंत्री की अक्षमता की वजह से निरन्तरता में ढह रहा है इसके बावजूद उन्हे नहीं हटाया गया, राष्ट्रपति शासन लगाकर प्रदेश की जनता को आश्वासन और अपराधियों को कठोर संदेश नहीं दिया गया। एक छोटे से राज्य में शांति की गारंटी देने में असक्षम प्रधानमंत्री जी कैसे पूरे देश को कोई भी और किसी भी किस्म की गारंटी दे सकते हैं? लेकिन फिर भी वह ऐसा बोल रहे हैं साथ ही 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का स्वप्न भी दिखा रहे हैं। सैकड़ों लोगों की मौत के सन्नाटे में ही ऐसी नींद आ सकती जिसमें आज से 25 साल बाद के सपने देखे जा सकें! 
ऐसे में अखबार की तीसरी खबर मोदी सरकार को आईना दिखा रही होती है जिसमें कॉंग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे‘सरकार की कथनी और करनी में अंतर’ को उजागर करते नजर आते हैं। महात्मा गाँधी कहा करते थे “खुशी तब होती है जब आप जो सोचते हैं, जो कहते हैं और जो करते हैं उनमें सामंजस्य हो”। लेकिन प्रधानमंत्री के विषय में यह सच नहीं लगता है। चाहे दिल्ली में महिलाओं का मुद्दा(2023) हो या मणिपुर में(2023), चाहे दिल्ली जल रही हो(2020) या सुदूर मणिपुर (2023) नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार हर बार सोती रही और समय पर अपराधियों पर कार्यवाही नहीं कर सकी। बड़ी और लंबी खामोशी के बाद भी जब 36 सेकेंड के लिए पीएम बोले भी तब भी उन्हे विपक्षी राज्यों में हो रहे महिला अपराधों को शामिल करने की जरूरत महसूस हुई। कितने शर्म की बात है कि जहां बात महिलाओं के साथ इतने दुर्दांत घटना की हो रही हो वहाँ भी ‘तेरा प्रदेश-मेरा प्रदेश’ करने की प्रवृत्ति राजनैतिक-नैतिक पतन का प्रतिबिंब ही है इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। 

लेकिन अखबार की चौथी खबर, ‘मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव मंजूर’ यह बता रही है कि लोकतंत्र का चरम बिन्दु अर्थात देश का विपक्ष सरकार की नींद खोलने की तैयारी कर चुका है। ‘इंडिया’ गठबंधन बनाकर विपक्ष वर्तमान मोदी सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा है। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि ‘संख्याबल’ किसके पास है फ़र्क इससे पड़ता है कि नागरिकों की परेशानियों के ऊपर बिस्तर लगाकर सो रही सरकार के नेत्र खोले जा सकें। सत्ता के पत्ते बिछाने में माहिर वर्तमान सरकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोर आपत्ति के बावजूद ED के मुखिया, संजय मिश्रा, के कार्यकाल को सर्वोच्च न्यायालय से ‘राष्ट्रहित में’ बढ़वा लिया है। एक बार मजबूती से मना किए जाने के बावजूद सरकार दोबारा न्यायालय क्यों पहुंची होगी? विपक्ष के नेताओं और उनके सहयोगियों पर कार्यवाही करने वाली ED के प्रमुख सरकार के इतने प्रिय क्यों हैं यह समझ में आ रहा है लेकिन यह नहीं समझ में आ रहा है कि केंद्र सरकार को क्यों आने वाले किसी अन्य ED प्रमुख पर कोई भरोसा नहीं है? मुझे तो नहीं पता पर शायद सरकार को पता हो! 
लोकतंत्र में स्वतंत्र संस्थाएं इसकी इमारत की सुरक्षा करती हैं। यह सुरक्षा हर उस झंझावात के खिलाफ मिलती है जिसका उदेश्य लोकतंत्र की दीवारों और स्तंभों को कमजोर करना है। संस्थाओं की स्वतंत्रता छिनते ही दीवारें ढहने लगती हैं और नागरिक अकेले पड़ने लगते हैं। कमजोर लोकतंत्र में इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वहाँ कितने एयरपोर्ट चल रहे हैं और प्रतिदिन कितनी सड़क और रेललाइन बनाई जा रही है। 
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इस बात से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा कि देश ने कितने फाइटर जेट खरीदे और उसमें से कितने पाँचवी पीढ़ी के थे और कितने उससे आगे की पीढ़ी के! कमजोर संस्थाएं कमजोर नागरिकों को जन्म देती हैं और कमजोर नागरिक जन्म देते हैं तानाशाह सरकारों को, फिर चाहे ऐसी सरकार किसी लोकतंत्र के ढांचे में ही क्यों न विकसित हुई हो। ऐसे में, तमाम गारंटियों के बीच क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात की ‘गारंटी’ दे सकते हैं कि जिस राह पर आज भारत को चलाया जा रहा है वह इसमें आगे जाकर नहीं फँसेगा?

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वंदिता मिश्रा
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