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प्रधानमंत्री के शब्द और उनके वादे पर कितना भरोसा करें?

“देश का अधिकांश काला धन नकद के रूप में नहीं है। वास्तव में यह धन गोल्ड और रियल एस्टेट असेट्स के रूप में है। और यह पहल (विमुद्रीकरण) इन असेट्स पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं डालेगी”।

यह स्टेटमेंट भारतीय रिजर्व बैंक की 561वीं मीटिंग के मिनट्स का हिस्सा है। यह मीटिंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस ऐलान से लगभग ढाई घंटे पहले हुई थी, जिसमें मोदी जी विमुद्रीकरण की घोषणा करने वाले थे। 

मोदी जी ने आरबीआई की प्रोफेशनल (पेशेवर) राय को तवज्जो न देकर अपने ‘मन की बात’ पर फोकस करना ज़्यादा उचित समझा। अंततः आरबीआई की राय सच साबित हुई। प्रधानमंत्री जी के ‘मन’ ने जिसे काला धन समझ लिया था उसका 99.9% हिस्सा वास्तव में ‘व्हाइट’ निकला। मोदी जी ने आरबीआई की उस राय को भी अनदेखा कर दिया जिसमें इस क़दम के बाद देश की जीडीपी पर नकारात्मक प्रभाव की चेतावनी शामिल थी। हुआ भी वही जिसका डर था। जो अर्थव्यवस्था 5.2% (2011-12) से 8.3%(2016-17) तक लगातार बढ़ती रही थी वो विमुद्रीकरण के कारण 4% (2019-20) के निम्न स्तर पर पहुँच गई। प्रधानमंत्री द्वारा काले धन को लेकर ढेर सारे वादे किए गए। कभी यह वादा 15 लाख रुपये हर देशवासी के खाते में डालने को लेकर था, तो कभी यह आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खात्मे को लेकर जनता के बीच झूठ के रूप में आता रहा।

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नरेंद्र मोदी मई, 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बने। लोगों ने उनके ‘विकास’ के नैरेटिव पर भरोसा किया। उन्होंने अपनी रैलियों में खुद कहा है, “विकास यही मेरा एक सपना है, विकास यही मेरा रास्ता है, …यही मेरी मंजिल है, ...यही मेरा मकसद है, …यही मेरी ताक़त है, …यही मेरी प्रेरणा है”। वो आगे कहते हैं “सबका साथ, सबका विकास” और साल दर साल इसी नारे/वादे में एक-एक शब्द जोड़ते रहे। नरेंद्र मोदी जब तक इस पद पर हैं उनका सम्मान करना हमारा संवैधानिक दायित्व है लेकिन भरोसा करना कोई मजबूरी नहीं, विशेतया तब, जब उन्होंने अपने हर वादे को खुद भुला दिया हो। उनके किसी भी शब्द पर भरोसा करना अब मुश्किल जान पड़ता है।

2014 के स्वतंत्रता दिवस भाषण पर प्रधानमंत्री जी ने ‘सामाजिक न्याय’ और राजनैतिक दलों के साथ ‘आम सहमति’ के आधार पर देश चलाना और ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ जैसे वादों को जनता की ओर फेंका। जनता ने भरोसा कर लिया। लेकिन सामाजिक न्याय की बात तब झूठी निकली जब, उनके स्वयं के राज्य गुजरात में खुलेआम दलितों के साथ अत्याचार हुआ। 

एससी, एसटी ऐक्ट-1989 के तहत दर्ज हुए मामलों को देखें तो पता चलेगा कि 2003 के मुक़ाबले 2018 में दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ़ हुए अपराधों की संख्या में 70% की बढ़ोत्तरी हुई है। 2015-18 के बीच इन मामलों में अभियुक्तों को दोषी साबित करने की दर मात्र 5% ही रही। सांसद आदर्श ग्राम योजना (2014), इसके तहत 2019 तक तीन आदर्श ग्रामों की स्थापना करना था और उसके बाद 2024 तक कम से कम एक आदर्श ग्राम प्रतिवर्ष विकसित करने की योजना थी। 

प्रधानमंत्री द्वारा बड़े नवाचार और बहुत जोर शोर से शुरू की गई इस सांसद आदर्श ग्राम योजना के बारे में इस योजना के नोडल मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, की सोशल ऑडिट रिपोर्ट पीएम के वादे की पोल खोल देती है।

इस रिपोर्ट के अनुसार, यह योजना गांवों के जिस सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के दृष्टिकोण के साथ शुरू की गई थी यह ऐसा कोई महत्वपूर्ण परिणाम पाने में या अपने उद्देश्यों को पूरा करने में सफल नहीं रही है। प्रधानमंत्री ने कभी दोबारा इस योजना का ज़िक्र ही नहीं किया।

प्रधानमंत्री ने 2015, के स्वतंत्रता दिवस भाषण में काले धन और स्टार्टअप इंडिया जैसे कई ऐलान किए। नाम बदलने में माहिर पीएम मोदी ने कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर ‘कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय’ कर दिया। लेकिन जिस तरह रेसकोर्स का नाम ‘लोककल्याण मार्ग’ रखने से कल्याण के कोई बीज नहीं फूटे उसी तरह कृषि मंत्रालय में ‘कल्याण’ जोड़ने से किसानों के कल्याण के मार्ग नहीं खुले। नवंबर 2021 से लगभग एक साल तक किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर बैठे रहे, सैकड़ों किसान ठंडी गर्मी और बरसात बर्दाश्त नहीं कर पाए और 700 से अधिक किसानों की मौत हो गई। लेकिन सरकार की नींद तब खुली जब यूपी चुनाव सर पर आ गए। 

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पीएम मोदी युवाओं से किए अपने उस वादे को भी लगता है भूल गए जिसमें वो युवाओं को स्टार्टअप लगाने के लिए प्रेरित कर रहे थे। आईबीएम इंस्टिट्यूट स्टडी के अनुसार भारत में 90% स्टार्टअप अपने शुरू किए जाने के 5 सालों बाद अस्तित्व में नहीं रहते। इसका कारण शायद इस अध्ययन में छिपा है जिसमें 33,000 स्टार्टअप पर किए गए शोध में यह पाया गया कि उनमें से 80% सिर्फ इसलिए असफल हो गए क्योंकि उन्हे स्टार्टअप इंडिया स्कीम के तहत कोई मदद नहीं मिली। शायद पीएम मोदी की वादा करके भूल जाने की आदत का ही ये उपोत्पाद है कि उनकी सरकार इम्प्लीमेंटेशन (कार्यान्वयन) के मोर्चे पर बुरी तरह विफल रही। 

प्रधानमंत्री ने 2016 के स्वतंत्रता दिवस भाषण को विदेश नीति के वादों पर फोकस किया। इस दिन उन्होंने पीओके, गिलगिट-बाल्टिस्तान पर खूब ओजपूर्ण भाषण दिए और ईरान के साथ चाबहार पोर्ट पर अपनी पीठ ठोंकी। लेकिन यहाँ भी कुछ नहीं हुआ। भारत विदेश नीति पर बुरी तरह विफल है, पाकिस्तान, चीन के साथ मिलकर PoK में बेल्ट रोड इनिशियेटिव के तहत अवसंरचना प्रोजेक्ट तैयार कर रहा है, ईरान ने भारत की अनिर्णयता और उदासीनता के चलते चाबहार रेल प्रोजेक्ट से उसे बाहर कर दिया है। चीन स्वयं डोकलाम और बाद में पोंग-सो लेक और गलवान घाटी में अतिक्रमण कर चुका है, अरुणाचल में LAC के अंदर दो गाँव बना चुका है और अरुणाचल के 12 गाँव के नाम भी बदल चुका है। इकनॉमिक टाइम्स में हाल में छपी एक रिपोर्ट कहती है कि अगस्त, 2020 में चीनी सैनिक उत्तराखंड के बाराहोती में घुस आए थे और वहाँ स्थित अवसंरचना को खूब नुकसान पहुंचाया। 

प्रधानमंत्री के “देश नहीं झुकने दूंगा” का नारा और देश को अक्षुण्ण रखने का वादा; मीडिया मैनेजमेंट और अपनी छवि के सुधार व चुनावों तक सिमट कर रह गया है।

2017 के स्वतंत्रता दिवस भाषण में यह जानते हुए कि विमुद्रीकरण एक असफल कार्यवाही थी, उसे महिमामंडित करने से पीएम पीछे नहीं हटे। सैकड़ों लोग विमुद्रीकरण के कारण बैंकों के सामने लाइन में लगे लगे मर गए लेकिन सरकार और पीएम अपने ‘मन’ का करते रहे।

2019 में ठीक इसी अवसर पर पीएम ने फिर एक वादा किया। यह वादा था देश को 2024 तक, 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाने का। कोविड के पहले से ही ढलान पर रही देश की जीडीपी को कोविड महामारी ने और पीछे ढकेल दिया। लेकिन केंद्र सरकार लगातार आज भी इस टारगेट को समय पर पूरा करने का वादा कर रही है। केंद्र सरकार के एक मंत्री हरदीप सिंह पुरी को अक्टूबर, 2021 तक लगता रहा कि कोविड-19 ‘आपदा’ ने अलग क़िस्म के ‘अवसर’ पैदा किए हैं और उनकी सरकार 2024-25 तक 5 ट्रिलिअन और 2030 तक 10 ट्रिलिअन का लक्ष्य पूरा कर लेगी। जबकि प्रख्यात अर्थशास्त्री और आरबीआई के पूर्व गवर्नर सी रंगराजन का मानना है कि अब यह टारगेट पूरा कर पाना संभव नहीं। क्योंकि इसके लिए 5 वर्षों तक लगातार कम से कम 9% की जीडीपी दर की आवश्यकता होगी। लेकिन लगता है कि सरकार और उसके प्रधान कभी सच नहीं बताएंगे।

pm narendra modi promises ahead of elections  - Satya Hindi
सी रंगराजन

हर तरफ़ झूठ है और वादाखिलाफी भरी हुई है फिर भी अगर कुछ लोगों को लगता है कि जनता प्रधानमंत्री के शब्दों पर भरोसा करती है तो ये उनका वहम है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सीना चौड़ा करने वाले प्रधानमंत्री राफेल डील को लेकर जाँच के घेरे में आ सकते हैं। भ्रष्टाचारी और उनके एक समय के मित्र ‘मेहुल भाई’ (मेहुल चोकसी) और नीरव मोदी जैसे भगोड़े अपराधियों को आजतक सरकार देश वापस नहीं ला सकी। बुलेट ट्रेन का “डायमंड क़्वाडीलैटेरल” प्रोजेक्ट नेपथ्य से झांक रहा है। और महंगाई से मार खाया देशवासी चुनाव के पहले मिलने वाले खाद्य तेल को खाते समय इस संशय में है कि चुनाव बाद छौंका मारने को भी तेल नसीब होगा या देशभक्ति से ही जीरे को भूनेगा!

किसान भी उस वादे को लेकर पीएम की ओर देख रहे हैं जिसके तहत उनकी आय को 2022 तक दोगुना करने का वादा किया गया था। साथ ही यह भी कहा गया था कि खेती में आने वाले ख़र्च से कम से कम 50% अधिक लाभ उनको मिलेगा। लेकिन वो तो एक स्टोर से दूसरे स्टोर उर्वरक खोजते घूम रहे हैं और उनके खेतों में घूम रहे हैं वो मवेशी, जिन्हें भगाने मात्र से जेल जाने का ख़तरा उत्पन्न हो सकता है। 

इस समय यूपी चुनाव में मुद्दा विहीन बीजेपी और पीएम मोदी, वर्तमान मुख्यमंत्री के उस नारे के साथ खड़े दिख रहे हैं जिसमें उन्हें अखंड प्रदेश से बेहतर 80:20 में बंटा हुआ समाज चाहिए।

‘वोकल फॉर लोकल’ का नारा लगाने वाले पीएम मोदी मल्टीब्रांड रीटेल को लेकर नरम हैं और ये नरमी पार्टी के उन मंत्रियों और कार्यकर्ताओं तक भी बँटी हुई है जो कठुआ जैसे बलात्कार में रेप पीड़िता के साथ न खड़े होकर बलात्कारी के समर्थन में रैली निकलवाते हैं। जब उन्नाव रेप पीड़िता का पूरा परिवार नष्ट हो गया और सुप्रीम कोर्ट ने प्रदेश सरकार को फटकार लगाई तब जाकर शर्म में आकर उन्नाव के विधायक को पार्टी से हटाया गया।

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प्रधानमंत्री का हर वादा डूब रहा है, किसी बात का कोई भरोसा नहीं। लगता है प्रत्येक योजना, एक-एक रुपया और मिलने वाला एक-एक दाना सिर्फ ‘चुनाव-सापेक्ष’ है। सरकार से जिस साहस, सच और छाँव की आशा की गई थी उसमें सीलन आ गई है। ऊपरी पपड़ी उखड़ने की वजह से सरकार और उसके प्रधान दोनों का असली रंग साफ़ दिख रहा है। अब पुट्टी लगाने से काम नहीं चलेगा, नई दीवार बनानी होगी। मुझे नहीं पता, लेकिन क्या पता जनता ने पहला पत्थर रख ही दिया हो! भारत की जनता का मूल स्वभाव ‘भावुकता’ और ‘भरोसे’ से जुड़ा है। यहाँ की सामाजिक संस्थाओं, परंपराओं और त्योहारों में इसकी झलक साफ़ देखी जा सकती है। ऐसे में जब एक नेता प्रधानमंत्री की हैसियत से कुछ कहता है तो जनता उस पर सहर्ष ही भरोसा कर लेती है।

आज भी बहुत से राजनैतिक विचारक इस बात पर ‘अड़े’ हुए हैं कि ‘पीएम मोदी के शब्दों पर जनता को आज भी बहुत भरोसा है’, ‘उनकी छवि में थोड़ी कमी ज़रूर आई है लेकिन वो आज भी सर्वमान्य नेता हैं’। ऐसे लोग संभवतया यह भूल जाते हैं कि ‘भरोसा जिस ढलान वाले रास्ते से चढ़कर परवान चढ़ता है वह उतरते समय भी उसी रास्ते से उससे कहीं अधिक वेग से नीचे गिरता है। अब शायद उन्हें सिर्फ़ उनके संगठन के लोग ही याद करें वो भी इस बात के लिए कि उन्होंने आज़ादी की नींव में पिलर की तरह बैठे गाँधी को स्वच्छता कार्यक्रमों तक समेटने के लिए अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी। 

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वंदिता मिश्रा
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