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जब समाज में स्वतंत्रता का बोध लुप्त होने लगे !

पढ़कर तसल्ली हुई कि दिल्ली विश्वविद्यालय के उन छात्रों ने माफ़ी माँगने से मना कर दिया है जिन्हें विश्वविद्यालय प्रशासन ने बी बी सी की डाक्यूमेंट्री दिखलाने या देखने के आरोप में अलग अलग क़िस्म की सजाएँ दी थीं और कहा था कि वे माफ़ी माँग लें तो सजा कम कर दी जाएगी या वापस ले ली जाएगी। उन्होंने कहा है कि फ़िल्म देखने दिखाने के क्रम में उन्होंने कोई हिंसा नहीं की थी। बल्कि उपद्रव तब हुआ जब विश्वविद्यालय के सुरक्षा कर्मियों और पुलिस ने जबरन फिल्म प्रदर्शन रोकने की कोशिश की। छात्रों ने इसका विरोध किया, खींचातानी हुई और आख़िरकार फ़िल्म नहीं दिखलाने दी गई। लेकिन जो छात्र इसमें शामिल थे या इन कार्यक्रमों को संगठित करने में अगुवाई कर रहे थे, उन्हें पहचान कर दंडित किया गया। 
बाद में कुलपति ने कहा कि अगर छात्र माफ़ी माँग लें ताज़ा वापस लेने पर विचार किया जा सकता है। अब छात्रों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया है। उनका तर्क यह है कि विश्वविद्यालय विविध प्रकार के विचारों की अभिव्यक्ति का परिसर है और अगर वे घृणा या हिंसा का प्रचार न कर रहे हों तो उन्हें अपनी बात कहने या किसी की बात सुनने से मना नहीं किया जा सकता।
अध्यापक होने के नाते हमें इन छात्रों के वर्तमान और भविष्य की चिंता होनी चाहिए। फिर क्या यह उचित न होता कि हम छात्रों को समझाते कि वे बात न बढ़ाएँ और माफ़ी माँग लें? आख़िर उनका वक्त क़ीमती है! यह लिखने के पहले यह बता देना ज़रूरी है कि इस लेखक समेत 50 से ज़्यादा अध्यापकों ने दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन से अनुरोध किया था कि वह इन छात्रों को दी गई साझा रद्द कर दे।
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हमारा तर्क बहुत साफ़ है। यह फ़िल्म प्रतिबंधित नहीं है। सरकार ने यह ऐलान नहीं किया है कि इस फ़िल्म सामाजिक शांति भंग होने का ख़तरा है। जबकि प्रशासन  ने अपने आदेश में लिखा है कि फ़िल्म पर पाबंदी है इसलिए इसे देखना, दिखाना अनुशासन का उल्लंघनथा। जब दंड का उल्लिखित आधार ही ग़लत है तो दंड भीबेमानी हो उठता है। हमारे पत्र का कोई उत्तर नहीं मिला है।इस टिप्पणी के छपने के दिन विश्वविद्यालय की कार्यसमिति की बैठक है। हम उम्मीद करें कि शायद उसमें इस पर विचार किया जाएगा और यह दंड वापस ले लिया जाएगा।
संभवतः आज के माहौल को देखते हुए यह एक प्रकार की आशावादी इच्छा है। क्योंकि अगर हम दंड के परिमाण और तरीक़े को देखें तो मालूम पड़ता है कि प्रशासन मात्र अनुशासन क़ायम करने के अपने कर्तव्य से प्रेरित नहीं है।उसका इरादा छात्रों को उसके आदेश के उल्लंघन के लिए मज़ा चखाने का है। मानवशास्त्र के एक शोधार्थी को एक साल तक शोध प्रबंध जमा करने से रोक दिया गया है।लेकिन यह विश्वविद्यालय के परीक्षा विभाग द्वारा उनका शोध प्रबंध जमा कर लेने, उस परीक्षा का शुल्क ले लेने  के बाद किया गया।अगर शोध प्रबंध पर शोध निदेशक, विभाग के अध्यक्ष के दस्तखत हो जाएँ और शुल्क जमा कर दिया जाए तो परीक्षा की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।शुल्क और शोध प्रबंध ले लेने के बाद उसे वापस करने से मालूम होता है कि प्रशासन बताना चाहता है कि वह उस छात्र को दंडित करने को कटिबद्ध है। यह एक असामान्य स्थिति है। यह छात्र के साथ शत्रुवत् व्यवहार है। 
इस एक उदाहरण से मालूम पड़ता है कि शायद विश्वविद्यालय प्रशासन का इरादा परिसर में अनुशासन कायम रखने से ज़्यादा यह है कि वह आज के सत्ताधारी दल को यह बतला सके कि वह उसकी छवि की रक्षा के लिए कितना प्रतिबद्ध है। वरना प्रशासन को मालूम है कि इस फ़िल्म को सामूहिक रूप से देखने से परिसर में शांति व्यवस्था के भंग होने का कोई ख़तरा न था। हाँ! यह हो सकता था कि सत्ताधारी दल से जुड़े लोग फिल्म देखने वालों पर हमला करें। क्या इसी आशंका के कारण प्रशासन नहीं चाहता था कि उन्हें यह मौक़ा या बहाना मिले? इस झंझट से बचने के लिए वह फ़िल्म के प्रदर्शन को ही पचड़े की जड़ मानता है और छात्रों से नाराज़ है कि उन्होंने यह असुविधाजनक स्थिति क्यों पैदा की?
वैसे, ऐसी आशंका हो तो प्रशासन को क्या करना चाहिए था? उसे क़ायदे से फ़िल्म प्रदर्शन के लिए सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए थी। लेकिन भारत में यह नहीं किया जाताहै। उपद्रवियों को रोकने की जगह उन लोगों को नियंत्रित किया जाता है जो क़ानून के दायरे में काम कर रहेहैं।या, वजह यही थी कि प्रशासन को सरकार की फ़िल्म से नाराज़गी का अहसास है और वह सरकार के वफ़ादार की तरह काम कर रहा है? 
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के ऐतराज का ध्यान प्रशासन रखता है।उसके हंगामे के कारण दिल्ली विश्वविद्यालय ने ए के रामानुजन के प्रख्यात निबंध ‘तीनसौ रामायण’ को पाठ सूची से हटा दिया। मुझे याद है कि मेरे विभागाध्यक्ष ने इसी संगठन के द्वारा हंगामे की आशंका  के कारण  भीष्म साहनी लिखित उपन्यास ‘तमस’ पर आधारित फ़िल्म के प्रदर्शन को न करने की सलाह दी थी। 

ऐसे उदाहरण अनेक हैं जहाँ ए बी वी पी ने कई कार्यक्रमों पर आक्रमण किया। छात्रों और शिक्षकों पर हमला किया।लेकिन शायद ही कभी कारणों पर कार्रवाई की गई हो। उसे राष्ट्रवादी रोष मानकर उसका लिहाज़ किया जाता है।


कई लोगों ने बतलाया कि ऐसा नहीं कि परिसर में किसी प्रकार का जमावड़ा नहीं होने दिया जाता या कोई सामूहिक कार्यक्रम नहीं होते। अभी कुछ दिन पहले आर्ट्स फैकल्टी गेट पर एक बड़ा धार्मिक आयोजन खासे शोर शराबे के साथ किया गया। कुछ लोगों का कहना है कि परिसर के भीतर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा तक आयोजित की जाती है। ए बी वी पी के कार्यक्रमों पर किसी तरह की रोक नहीं है। पाबंदी मात्र वैसे स्वरों पर है जो विसंवादी हैं। यह अब भारत  के तक़रीबन सारे केंद्रीय विश्वविद्यालयों की हालत है। 
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विश्वविद्यालय पिछले 8 वर्ष से आधिकारिक रूप से ऐसे आयोजन कर रहे हैं जिन्हें आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनता पार्टी के विचार के प्रचार के कार्यक्रम कह सकते हैं।आर एस एस के ‘बौद्धिकों’ को वक्ताओं के तौर पर बुलाया जाता है और वैसे ही विषयों पर कार्यक्रम किए जाते हैं जो ‘राष्ट्रवादी’ या ‘सनातनी’ दृष्टि से स्वीकार्य हों। यहाँ तक कि अध्यापकों की विशेषज्ञता के संवर्धन के लिए आयोजित कार्यशालाओं में भी संघ के बौद्धिक आमंत्रित किए जाते हैं। ऐसा करके शायद विश्वविद्यालय के अधिकारी संघ और सरकार के सामने अपने नंबर बढ़वा रहे होते हैं।
लेकिन इतना काफ़ी नहीं है। उन्हें संघ के अनुसार प्रतिवादी स्वरों को क़ाबू भी करना है। ऐसा न करने पर नंबर काट सकते हैं। इसीलिए बी बी सी की फ़िल्म को दिखलाने न देना प्रशासन के लिए राष्ट्रीय कर्तव्य बन गया था। जिन विद्यार्थियों ने इस फ़िल्म को सामूहिक रूप से दिखलाने की हिमाकत की,उन्हें तो सज़ा मिलनी ही थी। प्रशासन ने ऐसा किया, इसपर कोई आश्चर्य नहीं।लेकिन अभी भी ऐसे छात्र हैं जो यह जानते हुए भी अपने विचार और अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए जोखिम उठा सकते हैं, यह हमारे लिए संतोष की बात है। उन्होंने यह जो किया, वह स्वातंत्र्य के विचार को जीवित रखने के लिए ही था। ऐसे समय  जब समाज में स्वतंत्रता का बोध लुप्त होने लगे, यह करना जनतांत्रिक व्यक्ति होने  के अपने दायित्व का निर्वहन है।इसी वजह से जब मालूम हुआ कि उन्होंने अपने किए कीमाफ़ी माँगने से इंकार कर दिया है तो उन्हें शुक्रिया कहे बिना रहा न गया। 
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अपूर्वानंद
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