भारतीय जनता पार्टी का भाग्योदय! नीतीश के भाग्य सूर्य की चमक बरक़रार! महागठबंधन का सूर्य डूबा।बिहार विधान सभा के चुनाव के नतीजों के बाद इस तरह की सुर्ख़ियाँ भी लगाई जा सकती हैं।लेकिन कोई नहीं पूछता कि बिहार की जनता के भाग्य का सूर्य कहाँ जा छिपा है।
चुनाव नतीजों के कारणों की पड़ताल की जा रही है। इस टिप्पणी में वह करने का इरादा नहीं है। हमारे एक अर्थशास्त्री मित्र ने कहा कि इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। बिहार की राजनीतिक अर्थव्यवस्था जबतक इस प्रकार की बनी रहेगी, ऐसे ही नतीजे आते रहेंगे। सरल तरीक़े से समझें तो अगड़ी जातियों के प्रभुत्व या उनके दबदबे के भय से या उसके ख़िलाफ़ बिहार में अब मतदाता संगठित नहीं होते। अब यादवों के राजनीतिक प्रभुत्व के भय या आशंका से अति पिछड़ी और दलित जातियाँ एकजुट हो जाती हैं। हम जानते हैं कि मतदाता एक ही तरह के लोग नहीं हैं। इसलिए चुनाव में उनके फ़ैसले का एक ही कारण नहीं हो सकता।
मतदाताओं के निर्णय के कारण कुछ हो सकते हैं और उनके फ़ैसले से जो जनादेश उभर कर आता है, उसके नतीजे या निहितार्थ कुछ और हो सकते हैं। संभव है, उन्होंने जो कुछ भी सोचकर जनादेश दिया हो, उस जनादेश से सत्ता पानेवाली शक्ति उसका कोई और ही इस्तेमाल करे।
जीतने वाले नतीजे की व्याख्या जैसे करेंगे, उसी के अनुसार बाद में वे आचरण भी करेंगे। एक व्याख्या यह है कि यह जंगल राज के भय के ख़िलाफ़ वोट है, कि यह चुनाव के बीच नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी द्वारा डेढ़ करोड़ महिलाओं के खाते में 10,000 रुपए के दान का बिहार की महिलाओं के द्वारा प्रतिदान है। भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने इसके लिए चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के शुद्धीकरण को धन्यवाद दिया है। उनके मुताबिक़ यह ‘घुसपैठियों’ को बिहार से बाहर करने के संकल्प की पुष्टि है।
चुनाव नतीजों के तुरत बाद संघीय सरकार में मंत्री अशोक सिंघल ने लिखा कि बिहार की जनता ने गोभी की खेती पर सहमति दी है। गोभी की खेती भागलपुर की मुसलमान विरोधी हिंसा का एक अश्लील और हिंसक प्रत्येक है। इसका मतलब भाजपा का एक हिस्सा इस चुनाव नतीजे को मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का आदेश मानता है। एक छोटे से उदाहरण से इसे समझा जा सकता है।गायिका मैथिली ठाकुर ने अपना दावा पेश करते हुए कहा था कि वे अपने चुनाव क्षेत्र अली नगर का नाम बदलकर सीतापुर कर देंगी। तो क्या यह बिहार की सांस्कृतिक पुनर्रचना का आदेश है?
इस जनादेश को हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि बिहार की जनता ने किसी भी तरह के परिवर्तन से इनकार कर दिया है। वह जिस हाल में है, खुश है। वह यथास्थिति बरक़रार रखना चाहती है। वह यथास्थिति क्या है? मित्र उत्तम सेनगुप्ता ने कहा पटना में उनके ड्राईवर ने शान से कहा कि पटना में पुलेपुल है।कहीं सड़क पर उतरना ही नहीं है।
पुलों के अलावा पटना में मेट्रो का जाल भी बिछ रहा है। पटना में मॉल ही मॉल है। इस तड़क भड़क के पीछे छिपी बिहार की जनता का स्वास्थ्य कैसा है? बिहार की साक्षरता लगभग 61 % है जो दर राष्ट्रीय दर से 20% कम है।बिहार में उम्र के लिहाज़ से कम वजन के बच्चों का प्रतिशत 41 है। कुल बच्चों में 42% बच्चे ऐसे हैं जिनका शारीरिक विकास अवरुद्ध हो गया है जिसका सीधा कारण कुपोषण है। 70% बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं। प्रजनन दर प्रति माँ 3 बच्चों की है, राष्ट्रीय दर 2 की है। सिर्फ़ 47% लोगों को शौचालय आदि की सुविधा है। 10वीं क्लास के बाद लगभग 74% बच्चे स्कूल के बाहर हो जाते हैं; राष्ट्रीय दर 35% की है। 15 साल के ऊपर सिर्फ़ 30% औरतें श्रम की दुनिया में हैं।
बिहार की जनता को अपनी बदहाली की जानकारी के लिए इन आँकड़ों की ज़रूरत नहीं। वह उसमें रोज़ाना घिसट रही है। लेकिन प्रधानमंत्री का ख़याल कुछ और है। उनका मानना है कि सुशासन की विजय हुई है। विकास की विजय हुई है। अगर 20 साल के सुशासन और विकास के बाद बिहार के लोग इस जगह पहुँचे हैं तो कुशासन क्या होता है और पतन क्या होता है?
चुनाव प्रचार की रिपोर्टिंग करने जो पत्रकार बिहार के अलग-अलग हिस्सों में घूम रहे थे, उन्होंने कहा कि इतनी भयंकर दरिद्रता उन्होंने दूसरे राज्यों में नहीं देखी है। एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने कहा कि सड़क किनारे नंगे बच्चे देखकर उन्हें सदमा लगा। पटना में दड़बों जैसे कमरों में किसी तरह रहनेवाले छात्र सालों-साल न जाने किस नौकरी के लिए तैयारी किए जा रहे हैं!
जो लोग यह सब कुछ झेल रहे हैं, वे किसी एक जाति के नहीं हैं। माना जा सकता है कि आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति वाले अगड़ी जाति के लोग शायद बिहार में नहीं हैं। लेकिन शेष सब तो हैं। फिर अपनी इस साझा दुर्दशा पर वे एक साथ क्यों नहीं सोच पाते? क्या यह जनता नहीं समझ पाती कि अगर उसे अपनी फ़िक्र न होगी तो सरकार उनकी फ़िक्र कभी न करेगी?
एक साथ सोचने का मतलब है, साझा हित की कल्पना। जिसमें एक के हित का अर्थ दूसरे का अहित नहीं है। इस तरह हम एक जनता के निर्माण की बात सोच सकते हैं।
कहा जा सकता है कि जाति विभाजित समाज में एक जनता की बात करना मज़ाक़ है। लेकिन एक राजनीतिक दल भाजपा तो हमारे सामने है जो इन जातियों को जाति के साथ अस्तित्व के साथ एक हिंदू समाज का हिस्सा होने का आश्वासन दे रहा है। जाति-विभाजन के जरए ही हिंदुत्व की राजनीति के मज़बूत होने का रास्ता खुलता है। अगर हिंदुत्व का रास्ता बंद करना है तो जनता को एक करने का दूसरा जनतांत्रिक प्रस्ताव करना होगा। वह प्रस्ताव क्या होगा, इस पर विचार किया जा सकता है लेकिन उसकी प्राथमिक भाषा जाति की नहीं होगी, यह तय है। यह रास्ता मुश्किल है लेकिन इस रास्ते पर चले बग़ैर बिहार की जनता अपना सूर्योदय नहीं देख सकती।