दीवाली की रात और उसकी अगली सुबह दिल्ली में वायु की गुणवत्ता भीषण रूप से बुरी बताई गई। उस रात दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों से पिछले साल के मुक़ाबले कहीं आधिक उत्साह के साथ पटाखे छोड़ने की ख़बरें आईं। उत्साह से अधिक ठीक इसे प्रतिशोध कहना होगा। लेकिन क्या यह अपने आप से ही तो 'बदला' नहीं लिया जा रहा था!
दिल्ली सरकार के मुताबिक़, इस दीवाली पर दिल्ली के प्रदूषण और कोरोना महामारी को देखते हुए पटाखों पर पाबंदी थी। लेकिन शासक दल के नेताओं ने, जो यों तो विज्ञापन पर जाने कितना ख़र्च करते रहते हैं, इसके बारे में जनता से बात करके उसे समझाने की कोई कोशिश नहीं की। बीजेपी के कुछ नेता इस निर्णय के विरोध में पटाखे मुफ्त बाँटते हुए नज़र आए।
शासक दल से जुड़े एक मीडिया समूह ने दीवाली को वापस हासिल करने का अभियान चलाने का एलान किया। इसे “मिशन लाउड एंड ब्राइट दीवाली 2021” कहा जा रहा है। इस एलान में कहा गया है कि शोध, क़ानूनी और सड़क की कार्रवाई के जरिए दीवाली पर अन्यायपूर्ण तरीके से लगाए गए प्रतिबंध को हटवाया जाएगा और दीवाली को वापस हासिल किया जाएगा।
अब सरकार ने छठ को घाटों पर मनाने पर पाबंदी लगाई है। लेकिन फिर से बीजेपी के नेता इसे हिंदुओं के साथ अन्याय बता रहे हैं!
झूठ बोला गया
इसी मीडिया समूह ने ‘ख़बर’ छापी कि दीवाली की अगली सुबह दिल्ली की वायु की हालत में सुधार आया है। ख़बर के नाम पर यह झूठ था। किस यकीन के साथ यह झूठ बोला जा सका? यह सोचकर ही यह किया गया होगा कि इसके पाठक इस झूठ पर यकीन करना चाहेंगे और अपने खुद के तजुर्बे को भी झुठला देंगे।
दीवाली पर छाई बकरीद
दिल्ली के बाहर भी कुछ लोगों ने कहा कि वे तो पटाखे फोड़ेंगे ही, सर्वोच्च न्यायालय कुछ भी क्यों न कहे। जब उनसे कहा गया कि वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि कोरोना महामारी और बढ़ते प्रदूषण के बीच पटाखे और नुक़सानदेह साबित होंगे तो जवाब आया, “आप लोग बकरीद पर कुछ क्यों नहीं बोलते?” यह जवाब बेतुका था लेकिन दीवाली के पूरे दिन ट्विटर पर “बकरीद” ही छाई रही।
अनेक लोगों ने दीवाली के दिन इस बकरीदग्रस्तता पर हैरानी जाहिर की। ट्विटर तो सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है। दूसरे देशों के लोग समझ नहीं पाए कि अपने पर्व के रोज़ आखिर हिंदू लोग ‘बकरीद’ पर अपना क्षोभ क्यों व्यक्त कर रहे हैं!
हिंदू ही संयम क्यों रखें?
दीवाली के दिन बकरीद की चर्चा में एक सामाजिक कुंठा की ही अभिव्यक्ति थी। वह कुंठा इसे लेकर है कि अपने ही देश में हिंदुओं को ही हर बात में रोका जाता है, उन्हीं को संयम बरतने के लिए कहा जाता है, उन्हीं के पर्व-त्योहार में हस्तक्षेप किया जाता है। उन्होंने आज तक बहुत बर्दाश्त किया है, अब जब उनका ‘राज’ आ गया है तो वे और इस नाइंसाफी को नहीं सहेंगे। लेकिन यह खुद तक सीमित न था। इसमें एक स्पष्ट घृणा थी मुसलमानों को लेकर। अपने हर धार्मिक अवसर पर भी पहले मुसलमानों को अपमानित करना अब एक ख़ास तरह के लोगों के लिए नियम बनता जा रहा है।
यह एक तरह से आत्मघात है लेकिन लगता है कि एक बड़ी आबादी इसे ही अपना मोक्ष मान रही है। वह किसी काल्पनिक अपमान और नियंत्रण से खुद को आज़ाद करने के पुनीत कर्तव्य में लग गई है।
गम के माहौल में उत्सव
भारत में हर धर्म में और दुनिया के दूसरे देशों और समाजों में भी शोक और गमी की एक धारणा है। परिवार में, वृहत्तर परिवार में अगर किसी की मृत्यु हो जाए तो उस साल पर्व त्योहार के मौक़े पर उत्सव के मामले में संयम बरता जाता है। आम तौर पर राजनेता किसी बड़ी आपदा के बाद पड़ने वाले त्योहार में घोषणा करते हैं कि वे उत्सव नहीं मनाएंगे। बाढ़, सूखे, भूकंप जैसे कुदरती हादसों के बाद भी यह देखा गया है।
इस साल तो चारों तरफ आपदा ही आपदा है। हरेक के किसी न किसी परिजन और मित्र को शोक झेलना पड़ा है। फिर भी उत्सव और वह भी धमाकेदार उत्सव मनाने की जिद से आखिर इस समाज के बारे में क्या पता चलता है! यही कि वह संवेदनशून्य हो चला है और मूर्खता के दलदल में धँस रहा है।
कुत्तों को पीटने की प्रथा
मैं देवघर के पंडा समुदाय का हूँ। दीवाली की रात के पहलेवाली रात को एक अजीब सी रस्म होते हुए बचपन में देखी है और अब सोचकर शर्म आती है कि उसमें भाग भी लिया है। वह ‘जम के दिए’ की रात होती है और उस रात “दलिद्दर” को बाहर किया जाता है। उसमें मालूम नहीं क्यों लेकिन कुत्तों को पीट-पीट कर भगाया जाता है।
देखा है कि अपने पिछले तकलीफदेह अनुभव की याद शहर के कुत्तों को रहती थी और वे इस रात शहर छोड़ देते थे। मालूम नहीं अभी भी यह क्रूर परिपाटी चल रही है या नहीं। लेकिन क्या इसके विरुद्ध बोलने पर यह कहा जाएगा कि बकरीद में कुछ क्यों नहीं बोलते हैं?
समाज में आडंबर हावी
एक समय था जब धर्मों के भीतर भी ‘सुधार’ का विचार सम्मानजनक था। आडंबर बुरा माना जाता था। किसी तरह का अतिरेकपूर्ण प्रदर्शन असभ्य माना जाता था। वह कोई प्राचीनकाल की बात नहीं थी। हमने ही अपने बचपन में शादियों में अतिथियों की संख्या को सीमित करने के सरकारी आदेश देखे हैं। सादगी पर सरकार भी जोर देती थी। अब वक्त उलट गया है। शासक अपने पहरावे, ओढ़ावे और सामाजिक व्यवहार में आडंबर को लेकर संकुचित नहीं हैं।
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केजरीवाल का दीवाली पूजन
दीवाली के कुछ रोज़ पहले से दिल्ली के मुख्यमंत्री की एक अपील प्रसारित होने लगी। अपील यह कि दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में वे अपने सम्पूर्ण मंत्रिमंडल के साथ दीवाली का पूजन करेंगे! शाम 7 बजकर 39 मिनट का शुभ मुहूर्त बतलाया गया और यह भी बताया गया कि पूजन साथ-साथ टीवी पर दिखलाया जाएगा। वे दिल्ली की 2 करोड़ जनता से इस पूजन में उसी समय भाग लेने का आह्वान कर रहे थे। इस विराट सामूहिक पूजन से तरंगें उठेंगीं और वे इस प्रदूषण आदि का नाश कर देंगी।
राजसी अहंकार का प्रदर्शन
जो देखा वह स्वांग था। राजाओं के द्वारा पूजा-अर्चना की जो फ़िल्मी याद गढ़ी गई है, दिल्ली के मुख्यमंत्री और उनके शेष मंत्रीगण उसका स्वांग भर रहे थे। उस “विधिपूर्वक” पूजन के बाद वे एक राजा की तरह ही विराजमान रहे और एक विचित्र-सा सामूहिक नृत्य प्रस्तुत किया गया। उस नृत्य की मुद्राओं में पूजन के समय की श्रद्धा की जगह एक युद्ध की तैयारी की आक्रामकता थी। यह सब कुछ एक राजसी अहंकार का फूहड़ और अश्लील प्रदर्शन था।
इतिहास रच दिया!
यह संभवतः आडंबरपूर्ण दृश्यात्मकता की राजनीति की प्रतियोगिता में पिछड़ जाने के भय से किया गया हो! क्योंकि दीवाली की रात अयोध्या में 5 लाख 84 हजार दिए सरयू तट पर जला कर रिकॉर्ड बनाया गया। वादा किया गया कि अगले वर्ष 7 लाख 51 हजार दिए जलाए जाएँगे। “इतिहास रच दिया गया है”, यह हर्षध्वनि मीडिया में छा गई।
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राजनीतिक षड्यंत्र
जो आत्मघाती मनोवृत्ति दिल्ली में देखी गई, वह जयपुर और मुंबई में न थी। क्यों? क्या इसका कोई संबंध इस बात से भी है कि वहाँ सत्ता में कौन है? दृश्यात्मकता से लोगों को अचंभित करके उनकी विचारशक्ति को स्तब्ध कर देने का राजनीतिक षड्यंत्र खुलेआम किया जा रहा है। यह दृश्य-छल की राजनीति है।
जनता को वापस प्रजा बनाया जा रहा है जिसके लिए राजा बीच-बीच में आनंद का आयोजन किया करेगा। मूर्तियों की रिकॉर्डतोड़ ऊँचाई और दियों की संख्या के आधिक्य से लोगों में भव्यता का भ्रम भरा जा रहा है।
प्रत्येक समाज में भव्यता, विशालता और विस्तार की आकांक्षा रहती ही है। प्रश्न यह है कि क्या वह इस पर विचार करता है कि किसी भी राष्ट्र की वास्तविक भव्यता उसके जन की भव्यता से निर्धारित होती है, विस्तार इससे तय होता है कि वह अपने आत्म का विस्तार कितना अन्य तक कर पाता है।
चुप रहे लोग
किसी भी समाज की समृद्धि इससे मापी जाती है कि उसके कितने सदस्य अपने आतंरिक जीवन को समृद्ध कर पा रहे हैं या वे बाहरी, शारीरिक स्तर पर ही जीकर खत्म हो जाएँगे! जब बाह्य दृश्य का अतिरेक होने लगे और वह भी सत्ता के द्वारा किया जा रहा हो तो मान लेना चाहिए कि वह जनता से उसकी आंतरिकता का अपहरण कर लेना चाहता है। उसे आत्मशून्य बना देना चाहता है। आश्चर्य नहीं कि भव्यता का यह छल स्टालिन ने भी रचा और हिटलर ने भी। उनका धर्म से कोई लेना- देना नहीं था।
इस दीवाली पर भी आत्महीनता का दुखद प्रदर्शन देखा गया। उससे अधिक अफ़सोस इसका है कि कोई ऐसी आवाज़ धर्म के दायरे से न उठी जो श्रद्धालुओं को इस क्षरण से सावधान करे। इसमें हानि किसकी है और लाभ किसका है, यह बताने की आवश्यकता नहीं।
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