यह सब लिखने के पहले मुझे कहना ही होगा कि अगर ये नतीजे ठीक हैं तो ने मेरे मित्रों और छात्रों के अनुमान ग़लत थे। मेरे युवा साथी, चाहे पूर्वांचल के हों या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के, या राजस्थान के या बिहार के, सभी देख और कह रहे थे कि भाजपा पराजित हो रही है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल की तो बात ही क्या! दिल्ली में भी उन्होंने चुनाव प्रचार में देखा और महसूस किया था कि जनता अपने दुनियावी मसलों के कारण भाजपा को सत्ता से हटाना चाहती थी।क्या वे सबके सब ग़लत समझ रहे थे? क्या सबकी मेहनत अकारथ गई?
ये युवा निश्चित थे और अभी भी हैं कि 35 साल से कम उम्र के लोगों ने भाजपा के ख़िलाफ़ वोट दिया है। तो क्या बूढ़ों ने नौजवानों के वर्तमान को ताक पर रखकर हिंदू राष्ट्र के भविष्य के लिए वोट दिया है?
यह बात बहुत ख़तरनाक है। भाजपा ने इस प्रचार के ज़रिए जो कहा है वह यह कि भले ही एक भौगोलिक प्रदेश में हिंदू मुसलमान साथ रह रहे हों, वे बिलकुल पृथक समुदाय हैं जिनके हित एक दूसरे के विरोधी हैं। मुसलमानों की आर्थिक या सामाजिक स्थिति में बेहतरी का कोई भी कदम अनिवार्यतः हिंदुओं के हितों का अपहरण है।भारत के कुछ हिस्सों को उससे अलग कर पाकिस्तान के निर्माण के बाद वहाँ से भारत आने वाले लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दो हिस्सों में बाँटा था: घुसपैठिया और शरणार्थी।
मुसलमानों के लिए घुसपैठिया कूटशब्द का प्रयोग मीडिया के लिए सुविधाजनक था। हिंदू और मुसलमान, दोनों मात्र अपने धर्म के कारण अलग नहीं हैं, उनके सांसारिक हित भी परस्पर विरोधी हैं। मुसलमान की उन्नति का मतलब है हिंदुओं का ह्रास, इस चुनाव प्रचार में भाजपा के संदेश का सार यही था।
इतना ही नहीं, भाजपा नेताओं ने सिखों और ईसाइयों को भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़ा करने की पूरी कोशिश की। सिखों को बार बार याद दिलाया गया कि उनके गुरुओं ने मुसलमानों के अत्याचार के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था इसलिए वे दोनों एक पंगत में बैठ ही नहीं सकते।भाजपा ईसाइयों के भीतर बैठे मुसलमान विरोधी द्वेष का लाभ उठाकर साथ एक अस्थायी मुसलमान विरोधी गठबंधन बनाने की कोशिश कर रही है।
मुसलमानों को हर किसी के दुश्मन के रूप में चित्रित करके उन्हें अलग-थलग करने की कोशिश की जा रही है। ईसाइयों की तो लगातार पिटाई की जा रही है लेकिन उनके धार्मिक नेताओं को मिलाने की कोशिश भी साथ चल रही है।
यह भौगोलिक नहीं, राजनीतिक बँटवारा है। क्या हिंदू मतदाताओं पर इसका कोई असर नहीं पड़ा होगा? यह मात्र भाजपा नेता कर रहे हों, ऐसा नहीं। इस चुनाव प्रचार के पहले ही पिछले 10 साल दिन रात मुसलमान विरोधी कार्यक्रमों, लेखों के माध्यम से टी वी, अख़बारों ने हिंदुओं को मुसलमानों का विरोधी नहीं तो उनके प्रति चिरआशंकित आबादी में बदल तो दिया ही है। हर नया पैदा होनेवाला मुसलमान हिंदुओं की जगह घेरने आया है, हर मुसलमान जो नौकरी ले रहा है, वह हिंदुओं की होनी चाहिए थी, हर मुसलमान नौजवान हिंदू लड़कियों को फुसलाने की साज़िश में लिप्त है।अगर वह अशिक्षित है तो रूढ़िवादी अहि और देश के गले में पत्थर है, अगर वह कुछ पढ़ा लिखा है तो उसकी शिक्षा और उसकी चुप्पी में भी साज़िश है जैसा उमर ख़ालिद के बारे में दिल्ली की अदालत ने कहा।
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भाजपा ने इस तरह हद को हिंदुओं की सेना के रूप में पेश किया। भाजपा के इस प्रचार पर मीडिया ने सवाल नहीं उठाया। एकाध बार नाक सिकोड़ने के बाद मीडिया ने इस बदबू की आदत ही नहीं डाली बल्कि उसमें आनंद लेने लगा।
भाजपा बार बार मुसलमान को सामने कर रहा था।विपक्ष ने पूरा प्रयास किया कि यह शब्द कम से कम इस्तेमाल हो। उसने मुसलमान की जगह महँगाई, बेरोज़गारी, मणिपुर में हिंसा जैसे विषयों से मुसलमान की चर्चा को ढाँकने की कोशिश की। लेकिन हिंदुओं की निगाह से मुसलमान की भाजपा की गढ़ी हुई शत्रु छवि को हटाना इतना आसान नहीं।
भाजपा के चुनाव प्रचार में विश्वविद्यालयों ने भी हिस्सा लिया। दिल्ली विश्वविद्यालय ने ही चुनाव के दौरान विकसित भारत के नाम पर कई कार्यक्रम किए।
22 जनवरी के आसपास देखा था कि हर जगह जय श्रीराम वाले भगवा झंडे हर जगह लटका दिए गए हैं। अप्रैल तक वे फट चिट गए थे। लेकिन चुनाव के दौरान देखा कि उनकी जगह उसी तरह के, बल्कि बड़े और चमकीले झंडे रिक्शों पर और बिजली के खंभों पर टाँग दिए गए हैं। यह अपने आप नहीं हो रहा है। और यह सिर्फ़ एक शहर में नहीं हो रहा था।
भोले लोग ही मानते हैं कि हिंदुत्व का प्रसार दक्षिण भारत में नहीं होगा। आर एस एस और भाजपा ने कर्नाटक के अलावा तमिलनाडु और केरल में जितनी ताक़त और ऊर्जा लगाई है, वह व्यर्थ जाएगी, यह मानना मूर्खता है। मित्र वेंकटचेलापति ने ठीक ही कहा कि पिछली सदी में हुए सुधार आंदोलनों के उत्तराधिकार की शक्ति को ज़्यादा आँकना ठीक न होगा। भाजपा ने काशी और तमिलनाडु को लेकर जो अभियान चलाया है, वह निष्फल होगा, यह भी ठीक समझ नहीं है।
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