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मोरबी पुल तो एक रूपक है! 

सत्ता को जवाबदेह बनाने के काम में आधुनिक समाजों के जन संचार माध्यम भूमिका निभाते हैं। मोरबी के हादसे के बाद उन्होंने जो किया वह घिनौना ही कहा जा सकता है। कई टीवी चैनलों ने इसके लिए जनता को जिम्मेदार ठहरा दिया। उनके मुताबिक हिला हिलाकर लोगों ने पुल तोड़ दिया। 
अपूर्वानंद

गुजरात में मोरबी के झूलते पुल का टूटना और  141 से ज्यादा लोगों का डूबकर मर जाना क्या ईश्वर की इच्छा थी? इस हादसे के बाद गुजरात और भारत में जो खामोशी है, उससे कुछ ऐसा ही लगता है कि हमने इसे ईश्वरीय प्रकोप मान लिया है जिसके आगे इंसान बेबस था। जैसे कोई भूकंप हो या तूफ़ान जिस पर आदमी का कोई बस नहीं।लेकिन पहले हम भाषा ठीक कर लें। मोरबी में जो हुआ उसे सामूहिक हत्या कहना अधिक मुनासिब है। और इसके अपराधी भी जाने हुए हैं।

लोग पूछ सकते हैं कि आख़िर यह हत्या कैसे है। कुछ लोगों के मुताबिक़  पुल पर उसकी सँभालने की ताक़त से ज़्यादा लोग थे। पुल उनका वजन बर्दाश्त न कर सका। टूट गया और उस पर खड़े लोग पुल के साथ ही नदी में गिर गए। उसमें डूबने की वजह से उनकी मौत हुई। इसे हत्या कहना क्या नाटकीय अतिशयोक्ति नहीं है?

लेकिन हम सिर्फ़ पुल टूटने के क्षण तक ख़ुद को सीमित न रखें। पुल तो टूटने का इंतज़ार कर रहा था। वह उस दिन न टूटता तो किसी और दिन उसका टूटना तय था। वह इसलिए नहीं टूटा कि उस पर ज़्यादा लोग थे। वह इसलिए टूटा कि उसकी मरम्मत के नाम पर सिर्फ़ रंग रोगन से काम चला लिया गया था। उसके तार भी नहीं बदले गए थे। उन्हें सिर्फ़ रंग दिया गया था।

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पुल के इस ध्वंस को तभी सुनिश्चित कर दिया जब इसकी मरम्मत का काम एक घड़ी बनाने वाली कंपनी को दे दिया गया। इस कंपनी को पुल बनाने या उसकी देखभाल का कोई तजुर्बा न था। यह पुल भी कोई साधारण पुल न था। इस प्रकार के झूलते पुल की, जो 100 साल पुराना हो, मरम्मत के लिए जाहिरा तौर पर इसकी ख़ास विशेषज्ञता रखनेवाले लोगों को खोजा जाएगा।

सरकारी कामों में इसकी प्रक्रिया तय है। जो काम है, उसके लिए जो योग्यता चाहिये, वह बताते हुए टेंडर बुलाए जाते हैं। जिनके पास योग्यता नहीं या तजुर्बा नहीं, भले वे काम की सबसे कम क़ीमत बतलाएँ, उन्हें स्वीकार नहीं किया जाता। टेंडरों की जाँच दो स्तरों पर होती है। तकनीकी जाँच के बाद ही बाक़ी फ़ैसला होता है। 

यह पुलिस की आरंभिक जाँच से ही मालूम हो  गया है कि पुल की मरम्मत का ठेका बिना इस प्रक्रिया के घड़ीसाज कंपनी ओरेवा को दे दिया गया था।यह सारा निर्णय मोरबी की नगरपालिका को करना था। स्पष्ट तौर पर वह जवाबदेह है। कंपनी का मालिक तो ज़िम्मेवार है ही। मालूम हो रहा है कि लंबे अरसे से मरम्मत के लिए बंद पड़े पुल को ठीक करने के लिए कंपनी को 2 करोड़ रुपये दिए गए थे। उसने मात्र 12 लाख खर्च किए। क्या हम इसे भी यह कहकर उचित ठहरा देंगे कि बेचारी कंपनी क्या मुनाफ़ा भी न कमाए! 

Morbi bridge collapse incident - Satya Hindi
पुल के रख रखाव के साथ एक तरह से पुल की मिल्कियत कंपनी के हवाले कर दी गई थी। उस पर आप टिकट लेकर ही जा सकते थे। फिर क्षमता से अधिक लोगों को टिकट कैसे बेचे जा रहे थे? क्या इसके लिए सिर्फ़ टिकट खिड़की पर बैठे लोग दोषी हैं? क्या यह कंपनी के मालिक की जानकारी के बिना किया जा रहा था? आख़िर टिकट से होनेवाली कमाई तो उन्हीं के पास जा रही थी? फिर पुलिस ने अब तक अपनी शिकायत में उनका नाम भी क्यों नहीं लिया है?  
Morbi bridge collapse incident - Satya Hindi

वह भी तब जब दिल्ली में उपहार सिनेमा में आग लगने के बाद उसके मालिकों को लंबी क़ानूनी जद्दोजहद के बाद सज़ा देने की नजीर मौजूद है। यह अलग मसला है और उस पर बात होनी चाहिए कि क्यों सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी क़ैद की अवधि कम कर दी! फिर भी तो ज़िम्मेदारी तय की गई और उन्हें सज़ा हुई। यह उदाहरण कोई भूल नहीं सकता। तब क्यों गुजरात पुलिस को ओरेवा कंपनी  मालिक का नाम लेने में संकोच हो रहा है? 

मोरबी नगरपालिका के मुख्य अधिकारी को सिर्फ़ निलंबित किया गया है। नगरपालिका पर कोई 30 साल से भारतीय जनता पार्टी का क़ब्ज़ा है। अब तक उन जन प्रतिनिधियों ने कोई ज़िम्मेवारी नहीं ली है। सब यह कह कर पल्ला झाड़ रहे हैं कि पुल मरम्मत के लिए बंद था। उनकी जानकारी और इजाज़त के बिना ओरेवा कंपनी के मालिक ने उसे आवाजाही  लिए खोल दिया। यह नाजारकारी क्या मुजरिमाना नहीं है? नगरपालिका या सरकार क्या लोगों की जान की हिफाजत के लिए जिम्मेदार नहीं? क्या वे इस अपने नागरिकों की सुरक्षा के अपने बुनियादी काम के प्रति ऐसी बेपरवाही दिखा सकते हैं? 

मोरबी का पल टूटना संयोग न था। वह कई स्तरों पर निश्चित किया गया था। राजनीतिक और प्रशासनिक। 

लेकिन यह सवाल गुजरात में लोगों को मथ रहा हो कि आखिर उनके साथ ऐसा अपमानजनक बर्ताव राजनीतिक सत्ता और प्रशासन कैसे कर सकता है, इसका कोई प्रमाण नहीं है। गुजरात में जनता को कोई क्षोभ नहीं है। अगर है तो वह अपने राजनीतिक शासकों को उससे तकलीफ नहीं देना चाहती है।

यह बात अब वहाँ की सरकार और अधिकारियों के रवैये से भी जाहिर है कि उन्हें जनता से क्रोध की कोई आशंका नहीं रह गई है। वरना प्रधानमंत्री इस भयंकर मानवीय त्रासदी के बीच भी वस्त्र बदल-बदल कर आयोजनों में भाषण देते न फिरते रहते। यह कहा जा सकता है कि आखिर इसमें उन्हें क्यों घसीटा जा रहा है। लेकिन जब प्रधानमंत्री हर बार जनता को यह कहते हों कि मतदान के समय वह सिर्फ उनका चेहरा याद रखे, उम्मीदवार का नहीं,तो फिर इस जिम्मेवारी से भी वे बच नहीं सकते। भावुकता के नाटक भर से वे इस जवाबदेही से मुक्त नहीं हो सकते। 

Morbi bridge collapse incident - Satya Hindi
ओरेवा समूह के एमडी जयसुख पटेल
सत्ता को जवाबदेह बनाने के काम में आधुनिक समाजों के जन संचार माध्यम भूमिका निभाते हैं। मोरबी के हादसे के बाद उन्होंने जो किया वह घिनौना ही कहा जा सकता है। कई टीवी चैनलों ने इसके लिए जनता को जिम्मेदार ठहरा दिया। उनके मुताबिक हिला हिलाकर लोगों ने पुल तोड़ दिया। सरकार को बचाने के लिए जनता को ही जिम्मेदार बताने के लिए इंसानियत से काफी नीचे गिरना पड़ता है। हमारे संचार माध्यमों के पतन की कोई सीना नहीं, यह इस हादसे की उनकी रिपोर्ट से फिर मालूम हुआ। 
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यह सवाल तो हमें करना ही चाहिए कि क्यों ओरेवा कंपनी के मालिक, नगरपालिका के जन प्रतिनिधि, राज्य सरकार और भारतीय जनता पार्टी इस त्रासदी के बाद भी निश्चिंत हैं? क्या उन्हें इसका इत्मीनान है कि गुजरात और भारत में जनता अपना जन बोध पूरी तरह से गँवा चुकी है? क्या अब यह तय हो चुका है कि ऐसी त्रासदी हमारे लिए मात्र एक घटना है और उसके बाद हम दूसरी घटना का इंतजार करने लगते हैं? हम जनता से तमाशबीन में तब्दीलहो गए हैं? 

मोरबी का पुल एक तरह का रूपक है। भारत के जनतंत्र का। वह जब पूरी तरह टूट जाएगा तो किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा?

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