‘गाँधीजी को गोली क्यों मारी गई?’ स्कूल में पढ़नेवाले किसी भी विद्यार्थी का यह प्रश्न बहुत ही स्वाभाविक है। इसका उत्तर उसे अपनी किताब या कक्षा से मिलना चाहिए।लेकिन अगर किताब दिल्ली में गाँधी स्मृति की यात्रा जैसी हो तो इसका उत्तर कुछ इस तरह का होगा: “बापू को 30 जनवरी की शाम प्रार्थना में जाते हुए  गोली लग गई।”
दिल्ली में तीस जनवरी मार्ग पर स्थित ‘गाँधी स्मृति’ के परिसर में गाँधी के जीवन पर एक बड़ी प्रदर्शनी स्थायी तौर पर लगी रहती है। इस भवन को  पहले बिड़ला हाउस कहा जाता था। सितंबर, 1947 से अपनी हत्या के दिन तक यानी 30 जनवरी, 1948 तक गाँधी ने इसी को अपना ठिकाना बनाया था। यहीं से वे दिल्ली में मुसलमान विरोधी हिंसा को रोकने की कोशिश कर रहे थे।उस कोशिश के कारण ही उन्हें एक साज़िश के तहत नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थी।
गाँधी स्मृति में उस जगह को आप देख सकते हैं जहाँ गाँधी को गोली मारी गई थी।वहाँ खड़ी एक गाइड ने मुझे बतलाया, “यहीं बापू को गोली लग गई थी।” मैंने पूछा , “क्या गोली उड़ते उड़ते ख़ुद ही लग गई? क्या बापू गोली के रास्ते में आ गए थे जो वह उन्हें लग गई? किसी ने तो उन्हें गोली मारी होगी?” गाइड ख़ामोश रहीं।
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राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद की किताब कुछ कुछ इस गाइड की तरह है।गाँधी की हत्या के कृत्य को किताब में कुछ इस तरह बतलाया गया है: “बहुत सारे भारतीयों को उनका यह सहृदय आचरण पसंद नहीं था। इसके बावजूद गांधीजी ने सशस्त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा। आखिरकार, 30 जनवरी 1948 की शाम को एक युवक ने उन पर गोली चला दी। उसका नाम नाथूराम गोडसे था।” विद्यार्थी स्वाभाविक तौर पर पूछेंगे कि गोडसे कौन था, उसने गाँधी को क्यों मार डाला? एन सी ई आर टी की किताब इसपर ख़ामोश है।
यह 2023 के पहले तक किताब इस पर चुप न थी। उसके मुताबिक़ “बहुत सारे भारतीयों को उनका यह सहृदय आचरण पसंद नहीं था। हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों के अतिवादी अपनी स्थिति के लिए गांधीजी पर दोष मढ़ रहे थे। जो लोग चाहते थे कि हिंदू बदला लें अथवा भारत सिर्फ़ हिंदुओं का राष्ट्र बने जैसे पाकिस्तान मुसलमानों का राष्ट्र बना था — वे गांधीजी को खासतौर पर नापसंद करते थे। उन लोगों ने आरोप लगाया कि गांधीजी मुसलमानों और पाकिस्तान के हित में काम कर रहे हैं। गांधीजी मानते थे कि ये लोग गुमराह हैं। उन्हें यह पक्का विश्वास था कि यदि भारत को सिर्फ हिंदुओं का देश बनाने की कोशिश की गई, तो भारत बर्बाद हो जाएगा। 

हिंदू–मुस्लिम एकता के उनके अडिग प्रयासों से अतिवादी हिंदू इतने नाराज़ थे कि उन्होंने कई दफ़े गांधीजी को जान से मारने की कोशिश की। इसके बावजूद गांधीजी ने सशस्त्र सुरक्षा स्वीकारने से इंकार कर दिया और अपनी प्रार्थना सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा। आखिरकार, 30 जनवरी 1948 की शाम को एक हिंदू अतिवादी नाथूराम विनायक गोडसे, गांधीजी की प्रार्थना सभा में करीब जाकर, उन पर गोली चला दी और तुरंत मार डाला।”

2023 में यह सब कुछ हटाकर इतना भर कर दिया गया, “बहुत सारे भारतीयों को उनका यह सहृदय आचरण पसंद नहीं था। इसके बावजूद गांधीजी ने सशस्त्र सुरक्षा हासिल करने से मना कर दिया और अपनी प्रार्थना सभा में हर किसी से मिलना जारी रखा। आखिरकार, 30 जनवरी 1948 की शाम को एक युवक ने उन पर गोली चला दी। उसका नाम नाथूराम गोडसे था।”
पिछली किताब से यह भी मालूम होता था कि गाँधी की हत्या का देश पर क्या असर पड़ा और गोडसे की विचारधारा के संगठनों का क्या हुआ। नई किताब ने वह सब कुछ उड़ा दिया।
2023 में इस संपादन के बाद कुछ शोर हुआ लेकिन एन सी आर टी पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। वह ढिठाई से तथ्यों के संपादन और उन्हें लुप्त कर देने के अपने काम में लगी रही।अब तो वह खुलेआम भारतीय जनता पार्टी की सरकार के प्रचार में जुट गई है।यह प्रचार सरकार का है और भाजपा की हिंदुत्ववादी विचारधारा का भी। इधर उसने किताबों के अलावा विद्यार्थियों के लिए ऑपरेशन सिंदूर पर पूरक पाठ्य सामग्री  जारी की है।तीसरी से आठवीं कक्षा तक के लिए एक और उसके आगे के लिए दूसरी सामग्री है। दावा है कि इसके ज़रिए विद्यार्थियों में देशभक्ति, साहस, राष्ट्रीय सुरक्षा की समझ, और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना पैदा की जाएगी। उन्हें रणनीतिक दृष्टिकोण, तकनीकी नवाचार, सैन्य क्षमताओं के बारे में बतलाया जाएगा। 
पहलगाम के हमले के पीछे कौन था, इसका आधिकारिक ब्योरा सरकार नहीं दे पाई है। लेकिन एन सी आर टी की यह पूरक सामग्री स्पष्ट तरीक़े से कहती है कि यह पाकिस्तान के आदेश पर किया गया था। उसी तरह ऑपरेशन सिंदूर के ब्योरे को लेकर अभी बही काफ़ी मतभेद हैं। विशेषज्ञ भारत सरकार से कई सवाल कर रहे हैं जिनका उत्तर वह नहीं दे पाई है। लेकिन यह सामग्री इस बहस के बारे में कुछ नहीं बतलाती, मात्र सरकारी नज़रिया पेश करती है। इस तरह यह शिक्षण सामग्री नहीं, प्रचार सामग्री बन गई है।
एन सी ई आर टी के इस कदम पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई है। इसके साथ ही उसने भारत विभाजक पर जो सामग्री जारी की है, उस पर भी बहस नहीं हुई है। इस सामग्री में विभाजन के लिए जिन्ना, कांग्रेस पार्टी और माउंटबेटन को ज़िम्मेवार ठहरा दिया गया है। लेकिन इसकी पृष्ठभूमि की कोई चर्चा नहीं है। मसलन हिंदुओं और मुसलमानों को दो क़ौम मानने का सिद्धांत सावरकर और हिंदू महासभा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी था, यह ऐतिहासिक तथ्य छिपा लिया गया है। 
हिंदुत्ववादी ज़रूर भौगोलिक रूप से भारत को एक रखना चाहते थे लेकिन उनका कहना था कि यहाँ हिंदू पहले दर्जे के नागरिक होंगे। इसकी प्रतिक्रिया यह होनी ही थी कि मुसलमानों का एक हिस्सा यह कहे कि हम दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर नहीं रहना चाहते। जो भी हो, विभाजन एक लंबी और जटिल प्रक्रिया का परिणाम था। यह बात आगे चलकर इस पर शोध करने वाले समझ पाते हैं और उनमें भी इसके बारे में पूर्ण सहमति नहीं है। 

अगर विभाजन पर बात करनी है तो इस बहस से परिचित कराना स्कूल का दायित्व है।लेकिन ऐसा न करके अब वह मात्र हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण का प्रचार कर रहा है। जो विद्यार्थी 12वीं के आगे जा पाएँगे और जिनकी इस इतिहास में और रुचि होगी वे शायद उस बहस से परिचित हो सकेंगे लेकिन ऐसे भाग्यशाली विद्यार्थी अत्यल्प होंगे। बाक़ी सब हिंदुत्ववादी प्रचार के शिकार होकर जीवन बिताने को अभिशप्त हैं।

इतिहास या अपने वर्तमान को, जैसा वह है वैसे समझने में मदद देने की जगह सत्ता जैसा उसे देखना चाहती है, वैसा पेश करने से न तो इतिहास बदलेगा और न समाज। भारत की स्कूली किताबों में मुग़ल नहीं होंगे, टीपू सुल्तान ग़ायब होंगे लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में भारत के इतिहास में मुग़ल अपनी जगह पर होंगे।उसी तरह भारत की स्कूली किताबें जातिगत भेदभाव पर चुप रहेंगी लेकिन समाज में , और स्कूल में भी  वह दिन के उजाले की तरह साफ़ महसूस होगा। 
वाल्टर बेंजामिन ने सावधान किया था कि अगर शत्रु जीत गया तो मुर्दे भी सुरक्षित नहीं रहेंगे। भारत में पहले हिंदुत्ववादी राजनेताओं ने बाबर, अकबर, शिवाजी, आदि पर हमला किया और फिर गाँधी, नेहरू, आदि पर। बाद में स्कूली किताबों से यह करना शुरू कर दिया। उससे आगे बढ़कर अब वे किताबें वर्तमान के यथार्थ और विद्यार्थियों के बीच दीवार बन कर खड़ी हो गई हैं जबकि उनका काम इस यथार्थ की तरह खिड़की खोलने का था।