पिछले पखवाड़े जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जाने का मौक़ा मिला। राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों के एक समूह ने “असहमति का आख़िरी गढ़: विश्वविद्यालय’ विषय पर चर्चा आयोजित की थी। शाम का वक्त था। समाज विज्ञान केंद्र की इमारत के बाहर टेबल-कुर्सी ला कर यह गोष्ठी की जा रही थी। सामने दरी पर कुछ विद्यार्थी बैठे थे। कुछ उनके चारों तरफ़ रेलिंग से टिके हुए खड़े थे।अभी क़ायदे से ठंड शुरू नहीं हुई थी, सो बाहर बैठना उतना नागवार नहीं था। हवा में हल्की खुनकी सी थी। वक्ताओं के ऊपर छत थी लेकिन श्रोता तो बिलकुल खुले में आसमान तले बैठे थे।कुछ कुत्ते दौड़ रहे थे। एक नीलगाय अनिश्चयपूर्वक आ-जा रही थी। यह गोष्ठी किसी कमरे में हो सकती थी, मैंने सोचा। लेकिन आज के वक्त परिसर में यह हो ही पा रही थी, यही ग़नीमत।
क्या विश्वविद्यालय असहमति और प्रतिरोध की शिक्षा देते हैं? यह प्रश्न बातचीत के दौरान माथे में घुमड़ता रहा: क्या हम सब समाज में प्रतिरोधकर्ताओं को तैयार करके भेजते हैं? मुझे शांतिनिकेतन की एक घटना याद गई। कुछ बरस पहले की बात है, प्राथमिक अध्यापकों के एक सम्मेलन में वहाँ गया था। सम्मेलन ‘प्रतीची’ संस्था ने आयोजित किया था।’प्रतीची’ अमर्त्य सेन द्वारा स्थापित संस्था है जो शिक्षा के सवालों पर काम करती है।
उस अवसर पर अध्यापक सेन एक सार्वजनिक व्याख्यान भी देने वाले थे।बारिश होने लगी और उन्हें आने में देर हुई। देर कुछ अधिक ही हुई। यह सेन साहब के स्वभाव के अनुरूप न था। ख़ैर! सभा में वे बांग्ला में बोले। बाद में उनके सहयोगी, लेखक और शोधार्थी कुमार राणा से कारण मालूम हुआ: अध्यापक सेन ने अपना वक्तव्य लिख रखा था।लेकिन बारिश की बूँदों के चलते स्याही फैल गई थी और कुछ शब्द धुँधले पड़ गए थे।उन पृष्ठों को दुबारा लिखने में देर हो गई थी।
अध्यापक सेन बिना काग़ज़ की मदद के तो बोल ही सकते थे।लेकिन वे ठीक ठीक शब्द चाहते थे और शब्दों का एक निश्चित क्रम भी।शब्दों की सटीकता और वाक्य का संयोजन उनके लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण था, जितनी वह बात जो उनके ज़रिए लोगों तक पहुँचती। यही वह प्रशिक्षण है जो विश्वविद्यालय देने की कोशिश करते हैं।वह गणित हो, विज्ञान हो या साहित्य, प्रयास हमेशा सटीकता हासिल करने का रहता है।
विज्ञान के लोग अक्सर यह सोचते हैं कि साहित्य या समाज विज्ञान के लोग लगभगपन के दायरे में काम करते हैं।लेकिन यह सच नहीं है। वह विचार हो या उसका माध्यम, कक्षा का काम हमेशा लगभगपन के आलस से मुक्ति पाने का होता है। इसी वजह से सामान्य लोगों को कक्षा में नींद आ सकती है और कुछ लोग शिकायत करते पाए जाते हैं कि पढ़ाई में विचारों की बारीक कताई ही तो की जाती है।
पहला काम कक्षा का होता है हर चीज़ को ध्यान से देखने को प्रेरित करना। शब्द का चयन, उनका क्रम, उनके बीच तारतम्यता पर ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है। प्रायः हम पन्ने पलटते चले जाते हैं, यह मानकर कि हम समझ रहे हैं।लेकिन लिखे पर गौर करने से कई बार मालूम होता है कि उसमें कहाँ कहाँ झोल है।या हम जो माने बैठे थे कि हम सब कुछ समझ गए हैं, वही कितना ग़लत था।
एक तरह से कक्षाएँ अनुशासन का प्रशिक्षण देती हैं। वे यह भी बतलाती हैं कि इतिहास का अनुशासन क्यों समाजशास्त्र के अनुशासन से भिन्न है। लेकिन इतना काफी नहीं:वे उनके बीच का रिश्ता भी उजागर करती हैं।भाषा की समझ, समाज की समझ और प्रकृति के कार्य व्यापार की समझ: इन सबमें एक संबंध है। विज्ञान की कोई खोज मानव इतिहास के बारे में हमारी समझ को बदल दे सकती है या उसे गहरा कर सकती है।इसके बारे में सजग रहना हम सबका कर्तव्य है।
असहमति या प्रतिरोध से पहले कक्षा में यह सवाल उठता है कि किसी विषय पर बात करने का अधिकार किस प्रकार अर्जित किया जाता है।एक ही विषय पर कई किताबें या लेख हैं: हम उनमें अधिकारिकता की तलाश करते हैं। यह मात्र सदिच्छा से नहीं मिलती। किसी भी विषय पर विचार की एक दीर्घ परंपरा है: हम उसके एक बिंदु पर खड़े हैं।उस विचार परंपरा के प्रति हमारा एक दायित्व है।यानी जिस अनुशासन में हम काम कर रहे हैं, उसके प्रति हमारी ज़िम्मेवारी है।
उसके साथ ही अध्यापक की ज़िम्मेवारी विद्यार्थियों के प्रति भी है।उस अनुशासन में प्रवेश करने के लिए मार्ग प्रशस्त करना और फिर उसकी दुनिया के सदस्य होने के लिए संसाधन उपलब्ध कराना कक्षाओं का काम है। यदि उपाधि मिल जाने के बाद भी स्नातक किसी अवधारणा के समक्ष निरुपाय या साधनविहीन महसूस करने लगे तो शिक्षा अधूरी रह गई है।
इसी क्रम में हम सवाल करना भी सीखते हैं। यहाँ विद्यार्थियों को स्कूल से एकदम अलग माहौल मिलता है क्योंकि भारत के स्कूलों में एक आदर्श उत्तर में विश्वास करना सिखलाया जाता है जो पाठ्यपुस्तक के भीतर है। परीक्षा में विद्यार्थियों को वही उत्तर और उन्हीं शब्दों में देना सिखलाया जाता है जो पाठ्यपुस्तक में हैं।अगर विद्यार्थियों ने इस आदर्श उत्तर से अलग कुछ लिखा तो उसके नंबर कट जाएँगे।स्कूल की कक्षा में पाठ्यपुस्तक एक तरह की बेड़ी या जंजीर है जो अध्यापक को भी आज़ादी से चलने फिरने से रोकती है, विद्यार्थी की तो बात ही क्या!
विश्वविद्यालय में आकर मालूम होता है कि एक पाठ्यपुस्तक से काम नहीं चलता, बल्कि एक ही विषय पर कई किताबें हैं।उन सबमें एक ही तरह से बात नहीं की जा रही।विद्यार्थियों के सामने चुनौती आ जाती है, उनके बीच तुलना करने की और अपना निर्णय लेने की।
अपना निर्णय लेने में विद्यार्थियों की मदद करना अध्यापकों का काम है, न कि उन्हें ख़ुद से सहमत करवाना।उसका पहला चरण है सवाल करने के अवसर पैदा करना।इन सवालों के ज़रिए वे यह तय करेंगे कि वे क्या स्वीकार करें और क्या अस्वीकार करें।
लेकिन सवाल करना भी जिम्मेदारी का काम है।उसमें कितनी ईमानदारी है, यह भी देखना होता है। सवाल वे दरवाज़े हैं जिनसे हम किसी विषय, किसी अवधारणा में प्रवेश करते हैं।लेकिन कक्षा में ही हम यह भी सीखते हैं कि अकेली मेरी आवाज़ ही महत्त्वपूर्ण नहीं, बाक़ी आवाज़ों के लिए जगह बनाना भी हम सबका सामूहिक काम है।सामूहिकता और सहकारिता से ही संवाद निर्मित होता है। इसके लिए अपने आप पर संयम रखना सीखना पड़ता है।समय सबका है, स्थान सबका है, यह समझ इतनी आसानी से नहीं आती। आपका निरंतर बोलना किसी को चुप भी करा रहा है, यह समझना इतना आसान नहीं।
किसी अवधारणा पर दबाव डालना, उसका परीक्षण करना कक्षा का काम है।विचारों के बीच टकराहट, उनके बीच घर्षण के बिना नए विचार की चिंगारी या आग पैदा नहीं हो सकती।यही प्रतिरोध की शिक्षा है।प्रतिरोध के बिना गति की कल्पना नहीं की जा सकती।ज्ञान की राह चिकनी नहीं होती जिसपर आप फिसलते चले जाएँ।उसपर चलते हुए प्रतिरोध का सामना करना होता है। और हम ख़ुद भी प्रतिरोध करना सीखते हैं।
‘लंदन रिव्यू ऑफ़ बुक्स’ में प्रतिरोध पर ऐडम फ़िलिप्स के लेख का आरंभ डी डब्ल्यू विनिकॉट के इस उद्धरण से होता है: “ प्रतिरोध की समाप्ति का मतलब है किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंतिम विलोप …वास्तव में मात्र मनोविश्लेषक ही प्रतिरोधों का सम्मान करते हैं और देख पाते हैं कि उनमें व्यक्ति की ख़ुद को हासिल करने की एक जद्दोजहद है जिसके प्रति वह सचेत नहीं भी हो सकता है।”
विश्वविद्यालय इस अर्थ में प्रतिरोध की शिक्षा देते हैं। सामूहिकता के बीच अपनी शख़्सियत की तलाश में हर विद्यार्थी का साथ देना ही अध्यापक का और कक्षा का काम है।
शाम गहरा गई थी।श्रोताओं में कुछ व्यस्त भाव से कहीं और चले गए थे। संख्या के विरल होने का चर्चा की गहनता पर असर नहीं पड़ा था।मित्र वक्ता प्रोफ़ेसर ज़ोया हसन ने ध्यान दिलाया कि अब एक नहीं, दो नीलगाएँ दौड़ लगा रही थीं।