चुनाव आयोग भारत के हर मतदाता के साथ चट्टान की तरह खड़ा है। चुनाव आयोग की आड़ लेकर मतदाताओं पर हमला किया जा रहा है और इसे आयोग बर्दाश्त नहीं करेगा। जब बिहार के 7 करोड़ मतदाता चुनाव आयोग के साथ खड़े हैं तो उसकी और मतदाता की साख पर कोई भी सवाल नहीं उठाया जा सकता है। क्या आप अपनी माताओं, बेटियों की निजता भंग करने की इजाज़त दे सकते हैं?

भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त के मुँह से यह सब कुछ सुनते हुए क्या आपको कुछ याद आ रहा था? 2002 में जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री पर हिंसा भड़काने और उसे जारी रहने देने के आरोप लगे तो उन्होंने गरज गरज कर कहा था कि यह गुजरात की 5 करोड़ जनता पर आरोप है। अपने ऊपर लगे आरोप को उन्होंने गुजरात की जनता का अपमान बतलाया था। दावा किया था कि वे गुजरात का अपमान नहीं होने देंगे। सरकार पर लगे हर आरोप के जवाब में उन्होंने कहा कि यह भारत की 125 करोड़ जनता पर आरोप है। जब उनपर देश की सुरक्षा के मामले में असफलता का आरोप लगा, उसे उन्होंने भारत की फ़ौज का अपमान बतलाया। हाल में ऑपरेशन सिंदूर में भी भारतीय पक्ष की कमजोरी के बारे में सवाल करने पर उनका जवाब था कि यह सवाल करके देश का और सेना का अपमान किया जा रहा है। जब विपक्ष या किसी और ने भारतीय अर्थव्यवस्था के ध्वस्त होने का आरोप लगाया तो जवाब था कि यह कहना भारत के लोगों का अपमान है क्योंकि इसका मतलब यह है कि वे काम नहीं कर रहे, उत्पादन नहीं कर रहे।
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यह नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के पदाधिकारियों का पुराना पड़ चुका तरीक़ा है। वे अपने हर निर्णय को जनता की तरफ़ से, उसकी सहमति से लिया निर्णय बताते हैं और ख़ुद को सवाल और जवाबदेही के दायरे से बाहर कर लेते हैं। वे अपने आलोचकों को जनता का दुश्मन करार देकर उन्हें जनता के सामने खड़ा कर देते हैं और ख़ुद बच निकलते हैं।

यह सब कुछ एक राजनेता कर सकता है भले ही उसे यह नहीं करना चाहिए। लेकिन जब कोई नौकरशाह भी जनता के नाम पर अपने कुकृत्यों को जायज़ ठहराने लगे तो सावधान हो जाना चाहिए। वह जनता की तरफ़ से नहीं, बल्कि सत्ता की तरफ़ से बोल रहा है।

विपक्ष पर टूट पड़े सीईसी 

17 अगस्त, 2015, इतवार के दिन केंद्रीय चुनाव आयोग की प्रेस कांफ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार की ढिठाई, सीनाज़ोरी और झूठ देखकर लोग स्तब्ध रह गए। आयोग पिछले कुछ सालों से सत्ताधारी दल के हित में और विपक्षी दलों के ख़िलाफ़ पक्षपात करता आ रहा है, यह माननेवाले भी इस प्रेस कांफ्रेंस में ज्ञानेश कुमार की बेशर्मी की हद देखकर हैरान रह गए। उन्होंने आयोग की कार्य प्रणाली और उसके हाल के निर्णयों पर उठनेवाले किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया। ज्ञानेश कुमार ने अपनी पेशेवराना ज़िम्मेदारी को धता बताते हुए सत्ताधारी दल के किसी नेता की तरह का वक्तव्य दिया।

यह भी कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग के पास अपनी विश्वसनीयता को बहाल करने का एक मौक़ा था जो उसने जान बूझ कर गँवा दिया। क्या उसने यह जनता को आख़िरी तौर पर यह बताने के लिए किया कि वह निष्पक्ष नहीं है और न दीखना चाहता है?

ईसीआई की साख गर्त में धकेला!

यह केंद्रीय चुनाव आयोग के इतिहास में अब तक की सबसे महत्त्वपूर्ण प्रेस कांफ्रेंस थी। चुनाव आयोग के सामने उसकी साख को लेकर पिछले हफ़्तों में जो सवाल उठ रहे थे, उनका जवाब देने का मौक़ा था। यह इत्तफ़ाक़ था कि प्रेस कांफ्रेंस की सुबह ही हिंदू अख़बार में सीएसडीएस के एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट छपी जो बतलाती है कि लोगों के बीच इस समय चुनाव आयोग की साख बहुत नीचे गिर गई है। उनमें अपने मताधिकार को लेकर कई तरह की शंकाएँ पैदा हो गई हैं। आयोग इसे देखते हुए भी अपनी मर्यादा के अनुसार आचरण कर सकता था। वह इन शंकाओं का निराकरण कर सकता था। उसकी जगह ज्ञानेश कुमार के लड़ाकू तेवर अपनाए। प्रेस कांफ्रेंस में ज्ञानेश कुमार की क्रुद्ध आक्रामक मुद्रा में भाजपा नेताओं की झलक मिल रही थी। 

आयोग पर सवाल गंभीर हैं और ज़िम्मेवार पदों पर बैठे लोगों ने लगाए हैं। कुछ वक्त पहले विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस करके बंगलौर की एक विधान सभा की मतदाता सूची का गहन परीक्षण करके दावा किया था कि उसमें 1 लाख से ज़्यादा नामों की हेराफेरी है। राहुल गाँधी यों ही आरोप नहीं लगा रहे थे। वे सबूतों के साथ सवाल कर रहे थे। यह इतना ठोस था कि आम तौर पर राहुल गाँधी पर टूट पड़ने को तैयार मीडिया को भी स्वीकार करना पड़ा कि उनके आरोप में दम है। इसका सीधा जवाब हो सकता था कि आयोग इसकी जाँच करेगा। यह कहने की जगह ज्ञानेश कुमार ने राहुल गाँधी को धमकी देना शुरू किया कि वे इस आरोप को बाक़ायदा हलफ़नामे के साथ आयोग के आगे जमा करें वरना देश से माफ़ी माँगें। फिर कहना शुरू किया कि अगर आप उस क्षेत्र के मतदाता नहीं हैं तो आपको उसके बारे में बोलने का अधिकार ही नहीं है। लेकिन यही आरोप भाजपा के नेताओं ने भी लगाए। आयोग उनसे क्यों हलफ़नामा नहीं माँग रहा है? क्यों सिर्फ़ विपक्षी नेताओं से ही वह यह माँग कर रहा है? क्या भाजपा नेताओं के आरोप से उसका या मतदाताओं का अपमान नहीं हो रहा?
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एक नाम का मतदाता कई जगह जायज़?

एक मतदाता के नाम कई जगह पाए जाने को भी यह कहकर उसने जायज़ ठहरा दिया कि लोग इधर से उधर आते-जाते रहते हैं इसलिए कई जगह नाम हो सकते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि वह हर जगह वोट दे रहा है। कहा कि अगर किसी एक पीयूष कुमार का नाम कई जगह है तो वह कहीं से भी कैसे काटा जा सकता है क्योंकि एक ही नाम के कई लोग हो सकते हैं। यह इतना हास्यास्पद तर्क था कि लोगों ने तुरत ही पूछा कि अलग-अलग पीयूष के माता-पिता तो अलग-अलग होंगे! एक ही माता पितावाले पीयूष 7 जगह मतदाता कैसे हो सकते हैं? अगर उनका नाम 7 जगह है तो इसका अर्थ यही है कि 6 जगह उनकी जगह कोई और मत दे सकता है। एक मतदाता का नाम कई जगह होने का मतलब यह नहीं कि वह मतदाता इसके लिए ज़िम्मेवार है। यह हो सकता है कोई और कर रहा हो।

उसी तरह मतदान केंद्रों के सीसीटीवी ब्योरे की माँग पर ज्ञानेश कुमार ने जो कहा उसे सुनकर हँसा भी नहीं जा सकता। उनके अनुसार ऐसा करने से माताओं, बहनों, बेटियों की तस्वीरें लोग देख लेंगे और वे बेपर्दा हो जाएँगी। रोषपूर्वक उन्होंने पूछा कि क्या हम अपनी माँओं, बहनों और बेटियों की निजता का हनन होने दे सकते हैं? 

माता, बहन, बेटी के रक्षक के रूप में ख़ुद को पेश करते हुए लोगों ने मोदी, शाह, आदित्यनाथ, हिमंता सरमा को देखा है। अब ज्ञानेश कुमार भी देश की माताओं, बेटियों, बहुओं की लाज के रक्षक बन गए हैं।

सीसीटीवी फुटेज क्यों नही दे रहे?

सीसीटीवी में दर्ज यह ब्योरा क्यों माँगा जा रहा है? सिर्फ़ जानने के लिए कि मतदान के आख़िरी घंटे में अचानक वोटों की संख्या बढ़ने के जो आरोप हैं, उनकी सत्यता की परीक्षा हो जाए। लोग देख सकें कि क्या आख़िरी घंटे में मतदान केंद्र के आगे अचानक क़तार लंबी हो गई थी। किसी का इरादा लाइन में लगे लोगों का चेहरा देखने का नहीं है। ज्ञानेश कुमार ने सोचा कि माँ-बहन की बात करते ही लोगों की ज़ुबान बंद हो जाएगी। वह नहीं हुआ। लोग अब उनका मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।

राहुल गाँधी के इस आरोप के अलावा और सवाल थे। बिहार में विधान सभा चुनाव के कुछ ही पहले चुनाव आयोग ने अचानक मतदाता सूची का जो तीव्र और गहन पुनरीक्षण अभियान चलाया उसे लेकर गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं। लोग पूछ रहे हैं और पत्रकारों ने ज्ञानेश कुमार के सामने भी पूछे कि आख़िर आयोग ने अपना नियम क्यों तोड़ा कि चुनाव के वर्ष में मतदाता सूची का पुनरीक्षण नहीं किया जाएगा। इस सवाल का जवाब भी नहीं दिया गया कि आख़िर इतनी अफ़रा तफ़री में चुनाव के ठीक पहले बाढ़ के बीच क्यों यह काम किया जा रहा है? यह सवाल भी था कि क्यों आयोग पूरी सूची इस शक्ल में जारी नहीं कर रहा कि लोग मशीन से उसकी छानबीन कर सकें। मशीन से सूची की जाँच करने में निजता का उल्लंघन कैसे होता है?

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आज न्यायालय के कहने पर आयोग ने सूची जारी की। उसके पहले तक वह अड़ा हुआ था कि वह यह सूची साधारण नागरिक को नहीं देगा। वह उन लोगों का आधार कार्ड भी अब स्वीकार करेगा जो उसकी कार्रवाई से पीड़ित हैं। अगर उनके लिए आधार ठीक है तो बाक़ी के लिए क्यों नहीं?

यह सवाल तो था ही कि मतदाता के पास अपनी पहचान प्रमाणित करने के लिए जो काग़ज़ है, यानी आधार कार्ड, उसे आयोग क्यों नहीं स्वीकार कर रहा है? जो पिछले चुनाव तक जायज़ था, वह आज कैसे संदिग्ध हो उठा? सीएसडीएस के सर्वेक्षण से ही ज़ाहिर है कि आयोग अब जो काग़ज़ माँग रहा है, वे अधिकतर मतदाताओं के पास नहीं हैं। लोगों का नाम काटने की इतनी तत्परता आयोग को क्यों है? क्या आधार होने के बावजूद मतदाता संदिग्ध है?

अगर आधार विश्वसनीय नहीं है तो वह बैंक में या बाक़ी जगहों पर क्यों स्वीकार किया जा रहा है? और क्यों इस सरकार ने ज़िद करके सबको आधार बनवाने पर मजबूर किया?

योगेंद्र यादव बार-बार पूछ रहे हैं कि आख़िर यह कैसा पुनरीक्षण है कि एक भी नया नाम जुड़ा नहीं, नाम सिर्फ़ काटे जा रहे हैं?

मताधिकार पर थोपी जा रहीं शर्तें?

ज्ञानेश कुमार जिस मतदाता के साथ चट्टान की तरह खड़े होने का संकल्प कर रहे हैं, उस मतदाता के प्रति उनका रुख़ क्या है? जिसे उनके आयोग ने मृत घोषित कर दिया, सर्वोच्च न्यायालय में वह मतदाता जब योगेंद्रजी के साथ सशरीर हाज़िर हुआ तो ज्ञानेश कुमार के वकील की त्योरियाँ चढ़ गईं। उस मामूली हिंदुस्तानी के ख़ुद को पेश किए जाने पर आयोग ने भौं टेढ़ी करके पूछा: “यह क्या ड्रामा है?” आयोग से उलट अदालत ने भारत के एक साधारण नागरिक के अदालत में आने को अपना गौरव बतलाया था।

ज्ञानेश कुमार कह रहे हैं कि वे हर मतदाता के साथ खड़े हैं। लेकिन वे उसे यह भी कह रहे हैं कि उसका ब्योरा उसे नहीं, राजनीतिक दलों को दिया जा चुका है। वह अपने बारे में जानने के लिए उनसे मिले। लेकिन अपना अधिकार लेने को राजनीतिक दलों के पास जाने को भारत का नागरिक क्यों मजबूर हो?

भारतीय जनतंत्र भारत के साधारण नागरिक को और किसी प्रकार की समानता की गारंटी नहीं कर पाया है। किसी और दूसरे अधिकार की भी पक्के तौर पर नहीं। विभिन्न प्रकार की असमानताओं के बीच सिर्फ़ एक समानता और एक अधिकार का आश्वासन उसे इन 78 सालों में रहा है: वह है मतदान का अधिकार। आयोग इस सरकार के साथ मिलकर उसके इस अधिकार पर शर्तें लगाने की साज़िश कर रहा है। आयोग ने अपनी मर्यादा को तिलांजलि दे दी है। देखना है कि इस देश का नागरिक अपने अधिकार के प्रति कितना सजग है? यानी अपनी जनतांत्रिक मर्यादा की वह रक्षा कर पाता है या नहीं?