पश्चिम बंगाल में क्या बड़े पैमाने पर योग्य मतदाताओं के नाम कटने का ख़तरा है? वह भी बिना सुनवाई के ही। चुनाव आयोग ने ड्राफ्ट सूची से नाम कटने वाले या संदिग्ध वोटरों की सुनवाई का मौक़ा तो दिया है, लेकिन इसके लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई है, उसपर सवाल उठ रहे हैं। इसके लिए नियम है कि ऐसे मतदाताओं को नोटिस भेजने, पड़ताल करने और मतदाता सूची में नाम रहेगा या नहीं, यह तय करने का अधिकार इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर यानी ईआरओ के पास है। लेकिन आरोप लग रहे हैं कि यह काम ईआरओ के नाम पर चुनाव आयोग खुद कर रहा है। ऐसे मतदाताओं को ईसी के सॉफ्टवेयर से खुद-ब-खुद नोटिस भेजा जा रहे हैं और इसमें ईआरओ कुछ नहीं कर सकते हैं।

विशेष गहन संशोधन यानी एसआईआर प्रक्रिया के तहत इलेक्टोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर यानी ईआरओ ने शनिवार से सुनवाई शुरू कर दी है, जिसमें तय होगा कि लाखों लोगों के नाम लिस्ट में रहेंगे या नहीं। लेकिन अब राज्य के सिविल सेवा अधिकारियों की एक एसोसिएशन ने बड़ा मुद्दा उठाया है। उन्होंने कहा है कि सिस्टम से खुद-ब-खुद बड़े पैमाने पर नाम कट सकते हैं और इसके लिए ईआरओ को जिम्मेदार ठहराया जाएगा, जबकि वे नोटिस बनाने में शामिल ही नहीं हैं।
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पश्चिम बंगाल सिविल सेवा (एग्जीक्यूटिव) ऑफिसर्स एसोसिएशन ने बुधवार को राज्य के चीफ इलेक्टोरल ऑफिसर यानी सीईओ मनोज अग्रवाल को चिट्ठी लिखी। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार इसकी कॉपी चीफ इलेक्शन कमिश्नर ज्ञानेश कुमार के ऑफिस को भी भेजी गई। चिट्ठी में कहा गया है कि एसआईआर प्रक्रिया में ड्राफ्ट वोटर लिस्ट से मतदाताओं के नाम खुद-ब-खुद कट रहे हैं और इसमें ईआरओ की कानूनी भूमिका को नजरअंदाज किया जा रहा है।

कानून क्या कहता है?

रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट 1950 के अनुसार, अगर किसी मतदाता की योग्यता पर शक हो तो सिर्फ ईआरओ ही नोटिस जारी कर सकता है। ईआरओ ही फैसला करता है कि नाम कटेगा या नहीं। लेकिन एसआईआर में चुनाव आयोग का सेंट्रलाइज्ड पोर्टल खुद नोटिस बना रहा है। द इंडियन एक्सप्रेस ने ख़बर दी है कि बिहार में भी ऐसा ही हुआ था और वहां ईआरओ के लॉगिन पर पहले से भरे हुए नोटिस दिखाई दिए, जबकि उन्होंने खुद नहीं बनाए थे।
पश्चिम बंगाल के एक ईआरओ ने नाम नहीं बताने की शर्त पर अंग्रेज़ी अख़बार से कहा, "नोटिस चुनाव आयोग के सॉफ्टवेयर से खुद बन रहे हैं। हमारे पास नोटिस बनाने का बटन है, लेकिन क्लिक करने पर ऑटोमैटिक जनरेट होता है। अभी 2002 के एसआईआर डेटा से मैच न करने वाले वोटर्स के लिए नोटिस बन रहे हैं। लेकिन 'लॉजिकल डिस्क्रेपेंसी' वाले मामलों में हम तय नहीं कर सकते कि किसे सुनवाई के लिए बुलाया जाए। यह सिर्फ चुनाव आयोग तय करेगा।'
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'लॉजिकल डिस्क्रेपेंसी' वाले मामले क्या?

'लॉजिकल डिस्क्रेपेंसी' वाले मतदाता का मतलब है कि वोटर लिस्ट में कुछ ऐसी गलतियाँ हैं जो तार्किक आधार पर सही नहीं लगतीं। यानी ऐसी ग़लतियाँ जो सामान्य समझ से परे या संदिग्ध हों। चुनाव आयोग 2002 की पुरानी वोटर लिस्ट से नई जानकारी को मैच कर रहा है और कुछ डेटा में ऐसी गड़बड़ियाँ मिली हैं जो लॉजिकल नहीं हैं। मिसाल के तौर पर पिता का नाम नहीं मैच करना। यह स्पेलिंग मिस्टेक या सरनेम अलग हो सकता है। उम्र का फर्क असंभव सा लगना। कोई वोटर कहता है कि उसके माता-पिता से उम्र का अंतर सिर्फ 15 साल से कम है, यह बहुत दुर्लभ है। एक व्यक्ति के 6 से ज्यादा बच्चे दिखाए गए हैं तो संदिग्ध लगता है। जेंडर मिसमैच या कोई 45 साल से ज्यादा उम्र का व्यक्ति खुद को नया वोटर बता रहा हो, जबकि पुरानी लिस्ट में उसका नाम होना चाहिए।

'लॉजिकल डिस्क्रेपेंसी' वाली गड़बड़ियाँ फॉर्म भरते समय की भी हो सकती हैं, लेकिन कुछ में फर्जी एंट्री का शक भी होता है। यही पड़ताल करने का ज़िम्मा ईआरओ के पास होता है। ऐसे में यदि ईआरओ को दरकिनार कर दिया जाए तो क्या होगा?

एसोसिएशन ने क्या कहा?

बहरहाल, एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी सैकत अशरफ अली ने चिट्ठी में लिखा, 'मतदाताओं के नाम ईआरओ की जानकारी के बिना कट सकते हैं। ईआरओ ही कानून के अनुसार जिम्मेदार अधिकारी है। लेकिन प्रक्रिया से उन्हें बाहर रखा जा रहा है। आम लोग गुस्सा होंगे तो ईआरओ को ही दोष देंगे, जबकि वे इसमें शामिल नहीं हैं।'

अली ने कहा, 'हम चाहते हैं कि चुनाव आयोग कानून का पालन करे और पारदर्शिता रखे। अगर नाम कट रहे हैं तो साफ़ करे कि ईआरओ जिम्मेदार नहीं है। हम नहीं चाहते कि कोई असली मतदाता का नाम कटे।'
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सीईओ कार्यालय का जवाब

सीईओ ऑफिस के एक अधिकारी ने अख़बार से कहा, "अक्टूबर में ही सभी डिस्ट्रिक्ट इलेक्शन ऑफिसर्स यानी डीईओ, ईआरओ और असिस्टेंट ईआरओ को विस्तार से निर्देश दिए गए थे। अब इतने दिन बाद सवाल क्यों? अभी सिर्फ 2002 एसआईआर से मैच न करने वाले क़रीब 31 लाख मतदाताओं को नोटिस दिए जा रहे हैं। बाद में 'लॉजिकल डिस्क्रेपेंसी' वाले 1.36 करोड़ मतदाताओं की जांच होगी।"

एसोसिएशन ने कहा कि चुनाव आयोग को निर्देश देने का अधिकार है, लेकिन बड़े पैमाने पर नाम काटना क़ानून को बायपास करना है। इससे ईआरओ को जिम्मेदार ठहराया जाएगा जबकि वे सुनवाई नहीं कर पा रहे। साथ ही, योग्य मतदाताओं के अधिकारों का हनन हो सकता है, जो सुनवाई में मौजूद नहीं हो पाते।

ड्राफ्ट लिस्ट में मरने, शिफ्ट होने, अनुपस्थित या डुप्लीकेट होने के नाम पर कई नाम पहले ही कट चुके हैं। कानून कहता है कि नाम काटने से पहले व्यक्ति को सुनवाई का मौका देना जरूरी है।

बंगाल में एसआईआर की स्थिति

सीईओ मनोज अग्रवाल ने पहले कहा था कि पहले 2002 लिस्ट से मैच न करने वालों की सुनवाई होगी। कुल 'लॉजिकल डिस्क्रेपेंसी' वाले 1.36 करोड़ और बिना मैपिंग वाले 31 लाख हैं। यानी कुल 1.67 करोड़। जांच के बाद संख्या बदल सकती है।

16 दिसंबर को ड्राफ्ट लिस्ट जारी हुई, जिसमें 58 लाख से ज्यादा नाम कटे थे। अब सुनवाई 27 दिसंबर से शुरू हो रही है। चुनाव आयोग ने 12 राज्यों में एसआईआर के लिए नए निर्देश दिए हैं कि दस्तावेजों की जांच 5 दिनों में हो।

यह मामला वोटर लिस्ट की साफ-सफाई और मतदाताओं के अधिकारों से जुड़ा है। कई लोग डर रहे हैं कि उनका नाम गलती से कट न जाए। चुनाव आयोग का कहना है कि लिस्ट साफ करने से फर्जी वोटिंग रुकेगी।