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अमित शाह के जीत के दावों में छुपी है एक ख़तरनाक चाल

बीजेपी नेता अमित शाह पश्चिम बंगाल में घूम-घूम कर यह दावे क्यों कर रहे हैं कि उनकी पार्टी चुनाव जीत रही है और ममता बनर्जी लगातार उसकी काट करने में लगी हैं? इसके बदले वे लुभावने वादे और विकास की बात क्यों नहीं कर रहे हैं? आख़िर 'जीत' के इन दावों के पीछे क्या है रणनीति, बता रहे हैं नीरेंद्र नागर...
नीरेंद्र नागर

अपनी जीत का दावा तो हर कोई करता ही है। लेकिन बंगाल में जीत के इन दावों को बहुत गंभीरता से लिया जा रहा है। इतनी गंभीरता से कि जब अमित शाह हर चरण के बाद अपनी सीटें गिना रहे हैं तो ममता बनर्जी तुरंत उनको काउंटर करती हैं कि क्या वे भगवान हैं या उन्होंने ईवीएम में झाँककर देखा है कि किसने किसको वोट दिया है। हाल में तो उन्होंने पिछले कई चुनावों का हवाला देते हुए यह साबित किया कि किस तरह अमित शाह के पिछले चुनावी अंदाज़े बिल्कुल ग़लत साबित हुए थे।

आख़िर क्यों बंगाल में बहुमत के दावों पर भी वाद-विवाद हो रहा है? चुनावों में तो नेता बढ़चढ़कर वादे और दावे करते ही हैं। आख़िर बंगाल की पार्टियाँ, ख़ासकर तृणमूल कांग्रेस, इन्हें इतनी गंभीरता से क्यों ले रही हैं?

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दरअसल, बंगाल में चुनावी युद्ध दो स्तरों पर लड़ा जा रहा है। एक ज़मीनी स्तर पर, दूसरा दिमाग़ी स्तर पर। ज़मीनी स्तर पर जो युद्ध हो रहा है, वही दिमाग़ी युद्ध को भी प्रभावित कर रहा है और दिमाग़ी तौर पर जो युद्ध हो रहा है, वह ज़मीनी युद्ध पर भी असर डाल रहा है। कैसे, यह हम नीचे समझेंगे।

यह हम जानते हैं कि पिछले छह-सात महीने में तृणमूल कांग्रेस के दो मंत्री और कोई 15-20 विधायक बीजेपी में शामिल हुए हैं। भले ही ये लोग अपने-अपने कारणों से बीजेपी में गए हों- शुभेंदु और राजीव बनर्जी के पर कतर दिए गए थे, और कई विधायकों के टिकट काट दिए गए थे या टिकट मिलने पर भी उनकी जीत निश्चित नहीं थी- लेकिन बीजेपी और उसका समर्थक मीडिया इस दलबदल के आधार पर यह हवा बनाने में कामयाब रहे थे कि तृणमूल कांग्रेस के अब गिने-चुने दिन रह गए हैं - आख़िर डूबते हुए जहाज़ को ही तो लोग छोड़ते हैं। इस नकारात्मक प्रचार का असर तृणमूल के नेताओं, कार्यकर्ताओं और वोटरों पर भी हुआ है, जिसका एक प्रमाण यह है कि जनवरी के महीने में हुए जिस ओपिनियन पोल में तृणमूल को ठीकठाक बढ़त मिलती दिख रही थी, उसी पोल में अधिकांश वोटर यह कहते पाए गए कि सरकार संभवतः  बीजेपी की बन रही है। यानी ज़मीनी स्तर पर तृणमूल आगे थी लेकिन दिमाग़ी स्तर पर बीजेपी की बढ़त देखी जा रही थी।

संभावित पराजय का यह भाव जो हमें इस ओपिनियन पोल में दिखा यदि वह व्यापक जन-समुदाय में फैल जाए तो इससे किसी भी पार्टी को चार स्तरों पर नुक़सान हो सकता है।

1. पार्टी की पराजय निश्चित जानकर अवसरवादी नेता प्रतिपक्ष में जा सकते हैं या भीतरघात कर सकते हैं।

2. वे नेता और कार्यकर्ता जो प्रतिबद्धता के कारण पार्टी में बने रहें, उनके भी निष्क्रिय या कम सक्रिय हो जाने की आशंका है। इससे पार्टी की वोट मशीनरी प्रभावित हो सकती है।

3. अगर किसी वोटर को यह प्रतीत हो कि उसकी पार्टी नहीं जीत रही तो वह वोट देने से विरत रह सकता है। वह सोच सकता है कि अगर पार्टी हार ही रही है तो वोट देने से क्या फ़ायदा।

4. हर चुनाव में 3-5% मतदाता ऐसे होते हैं जो वोट के दिन तक समझ नहीं पाते कि किसको वोट दें। ऐसे वोटर आम तौर पर उस पार्टी को वोट दे देते हैं जो जीतती दिख रही हो। वे सोचते हैं कि जब अधिकतर लोग उसी को वोट दे रहे हैं तो वही ठीक होगी। 

कहने का अर्थ यह कि बीजेपी राज्य में तृणमूल की संभावित पराजय की हवा फैलाकर युद्ध शुरू होने से पहले ही उसको परास्त करने की कोशिश कर रही थी। बीजेपी की यह कोशिश उस ज्योतिषी जैसी थी जो किसी अच्छे-भले इंसान की शीघ्र मृत्यु की भविष्यवाणी करके उसे अधमरा कर दे।

ममता बनर्जी यह देख रही थीं कि कुछ मंत्रियों और विधायकों के दलबदल से उनके नेता, उनके वर्कर और उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल गिर रहा है। इसीलिए उन्होंने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने की घोषणा की जो बाग़ी हो चुके पुराने सिपहसालार की सीट थी। इस फ़ैसले के द्वारा उन्होंने अपने समर्थकों में यह संदेश दिया कि ‘देखो, मैं तो शुभेंदु को उसके गढ़ में जाकर चुनौती दे रही हूँ। मैं अगर हार रही होती या हमारी स्थिति कमजोर होती तो क्या मैं ऐसा करती? 'ममता के इस फ़ैसले ने पार्टी में नई ऊर्जा भरी और जो पराजय भाव पिछले कुछ महीनों से छा रहा था, वह घटने लगा। मार्च के ओपिनियन पोल में इसकी झलक भी दिखी जब समर्थन और संभावना दोनों ही स्तरों पर तृणमूल के पक्ष में ही राय आई।

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लेकिन पिक्चर अभी बाक़ी थी और बीजेपी इतनी आसानी से हार नहीं मानने वाली थी। उसने चुनाव प्रचार में मोदी समेत सारे दिग्गज उतार दिए, रैलियों और रोड-शो की झड़ी लगा दी। हर भाषण में यही घोषणा की कि दीदी अब जाने वाली है और बीजेपी आने वाली है। जब मतदान शुरू हुआ तो अमित शाह ने हर चरण के बाद सीटें गिनवाना शुरू कर दिया। शुभेंदु ने मतदान के दिन अपनी बॉडीलैंग्वेज से यह आभास दिया कि वे चुनाव जीत चुके हैं। मोदी ने भी ममता की हार का ऐलान कर दिया। ऐसे में यह आशंका फिर उभरने लगी कि कहीं तृणमूल का वोटर भी उनके बहकावे में न आ जाये और यह न मान बैठे कि तृणमूल कांग्रेस वाक़ई हार रही है। अगर ऐसा हुआ तो बाक़ी के चरणों में तृणमूल के पक्ष में पड़ने वाले वोटों पर असर पड़ सकता है जैसा कि हमने ऊपर दिए गए चार बिंदुओं के आधार पर समझा।

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इसी आशंका को ख़त्म करने के लिए ममता शाह और मोदी के सीटों के दावों को ग़लत बताना अत्यंत ज़रूरी समझ रही हैं। यही नहीं वे अपने समर्थकों से यह भी कह रही हैं कि उनको 160 सीट नहीं, 200 से ऊपर सीटें चाहिए ताकि बीजेपी आगे चल कर मध्य प्रदेश या कर्नाटक की तरह दलबदल करवा कर सत्ता न हथिया सके। वे तृणमूल के वोटरों को वोट देने से रोकने वालों को भी चेता रही हैं कि सत्ता में आने के बाद सबको देख लिया जाएगा।

इन सब बातों का एक ही संदेश देना है कि बीजेपी नहीं, हम ही सत्ता में दुबारा आ रहे हैं परंतु इसके लिए ज़रूरी है कि आप हर मुश्किल का सामना करते हुए बूथ पर पहुँचें और अपना वोट दें।

यही संदेश देने के लिए वे नंदीग्राम के एक बूथ पर दो घंटे बैठी रहीं जहाँ उनके कुछ समर्थक वोट नहीं दे पा रहे थे।

अगर पिछले तीन चरणों के वोट प्रतिशत को देखा जाए तो लग रहा है कि वे अपने समर्थकों में जीत के प्रति विश्वास जगाने और उनको बूथ तक ले जाने में कामयाब रही हैं। पिछले तीन चरणों का मत-प्रतिशत (85%) न केवल 2019 (81%) से बल्कि 2016 (83%) से भी अधिक रहा है।

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