गंगा किनारे बसे हजारों लोगों के लिए SIR नई चुनौती बनकर उभरा है। रिपोर्टों के मुताबिक़ SIR के लागू होने से मताधिकार पर असर पड़ सकता है। जानिए उनकी कैसी-कैसी मुश्किलें।
पश्चिम बंगाल में गंगा नदी के दोनों किनारों पर बसे मुर्शिदाबाद और मालदा जिले के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर एक नई मुसीबत बन कर आया है। दशकों से इस नदी, जिसे इलाके में भागीरथी भी कहा जाता है, के तटकटाव की वजह से उसके करीब रहने वाले लोगों के पते अक्सर बदलते रहते हैं। उनके गांव कभी बंगाल में रहते हैं तो कभी झारखंड में चले जाते हैं। ऐसे में एसआईआर के लिए जरूरी दस्तावेज कहां से आएंगे।
इलाके में बड़े पैमाने पर होने वाला तट कटाव अक्सर सुर्खियों में रहता है। राज्य के हर चुनाव में यह इलाके में सबसे प्रमुख मुद्दा रहता है। आजादी के बाद के करीब आठ दशकों में तमाम सरकारों के सत्ता में रहने के बावजूद यह समस्या जस की तस है। तट कटाव की वजह से कई गांव नदी में समा चुके हैं। यहाँ आने वाली बाढ़ लोगों के घरों के साथ उनके दस्तावेजों को भी बहा ले जाती है।
नदी के कटाव से आई परेशानी
नदी के तटवर्ती इलाकों को बंगाल में चर कहा जाता है। नदी के कटाव और उसके रास्ता बदलने के कारण यहां रहने वाले लोगों के राज्य बदलते रहते हैं। फ़िलहाल मालदा जिले में गंगा के किनारे 86 चर इलाके हैं।अब वहां रहने वाले एसआईआर की वजह से आतंक में दिन काट रहे हैं।
इनमें से ज्यादातर इलाके पहले अविभाजित बिहार में थे और फिर झारखंड में आ गए। बाद में नदी का रास्ता बदला तो यह एक बार फिर बंगाल का हिस्सा बन गए। लेकिन यहां रहने वालों के नाम 2002 की सूची में नहीं हैं। इनका नाम वर्ष 2008 में मतदाता सूची में शामिल किया गया था। उससे पहले ये लोग अविभाजित बिहार की सूची में थे। लेकिन अब इन लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि एसआईआर का फॉर्म कैसे भरें। उनमें से किसी को भी याद नहीं है कि 2002 में उनका मतदान केंद्र कहां था।मालदा जिले के कालियाचक में ऐसे ही एक इलाके में रहने वाले केदारनाथ मंडल का कहना है कि चर इलाकों में रहने वाले ज्यादातर लोग इसी समस्या से जूझ रहे हैं। यहां रहने वालों का कोई स्थायी पता नहीं होता। नदी के तट कटाव के कारण अक्सर पता बदलता रहता है।
अब इन लोगों की उम्मीदें चुनाव आयोग पर टिकी हैं। राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी मनोज कुमार अग्रवाल ने हाल में इलाके के दौरे के समय स्थानीय लोगों की समस्या सुनकर उनका नाम सूची से नहीं कटने का भरोसा दिया था। उन्होंने कहा था कि इस साल 27 अक्टूबर को प्रकाशित मतदाता सूची में जिनके नाम हैं वो वोट डाल सकेंगे।
आयोग का कहना है कि इन इलाकों में रहने वाले लोगों के मामले में बाद में सुनवाई होगी और उनसे 12 में से कोई एक दस्तावेज मांगा जाएगा।
लेकिन इलाके के लोगों की दिक्कत यह है कि उनके पास कोई दस्तावेज ही नहीं हैं। जो थे वो गंगा के पेट में समा चुके हैं। इसलिए अपना मताधिकार वापस पाना उनके लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकती है।
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मदद की गुहार लगा रहे लोग
यहां रहने वाले शफीकुल इस्लाम बताते हैं कि उनके पास तीन बीघे जमीन और पक्का मकान था। लेकिन सब कुछ गंगा में समा चुका है। जान बचाने के प्रयास में कोई दस्तावेज भी नहीं बचा सका। वो जिस जमीन पर रहते हैं उसका मालिकाना हक भी उनके पास नहीं है।
हमीदपुर चर में रहने वाले समर घोष, मदन मंडल, नजरूल शेख और उनके जैसे सैकड़ों लोगों के सामने यही दिक्कत है।
गंगा तट कटाव नागरिक एक्शन कमिटी के सचिव खिदिर बख्शी कहते हैं कि आयोग को इस मामले में मदद करनी चाहिए। हमें अविभाजित बिहार और झारखंड की मतदाता सूची मुहैया कराई जानी चाहिए ताकि अपना नाम तलाश सकें।
जिले के मोथाबाड़ी की विधायक और राज्य की मंत्री सबीना यास्मीन कहती हैं कि यहाँ रहने वाले लोग बंगाल के निवासी हैं, बांग्लादेशी या रोहिंग्या नहीं। इनमें से ज़्यादातर के नाम राज्य की मतदाता सूची में 2003 के बाद शामिल हुए हैं। लेकिन बाढ़ उनके तमाम दस्तावेज बहा ले गई है। सुनवाई के नाम पर इनके नाम मतदाता सूची से नहीं काटे जा सकते। तृणमूल कांग्रेस ने इस मामले में मदद का भरोसा तो दिया है।
लेकिन इलाक़े के लोगों को यही चिंता खाए जा रही है कि कहीं चुनाव आयोग उनको बांग्लादेशी ठहरा कर सीमा पार न भेज दे।