loader
फ़ाइल फ़ोटो

जो अमेरिका में हुआ वह भारत में क्यों नहीं होगा?

आख़िर समाज को क्या हो गया है कि वह ऐसे नेताओं की बातों पर भरोसा करने लगा है, उन्हें अपना नेता मान मरने-मारने पर उतारू हो जाता है? क्या समाज पूरी तरह से बदल गया है? क्या जनता पर पागलपन सवार हो गया है? वह ऐसे नेताओं पर क्यों भरोसा करने लगी है जिन्हें वह अपने घर में मेहमान के तौर पर बुलाना पसंद नहीं करे? क्या लिबरल समाज यह आत्ममंथन करने को तैयार है?
आशुतोष

आख़िर अमेरिका में वह हो गया जिसकी आशंका लंबे समय से जताई जा रही थी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप जिन शक्तियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उन शक्तियों ने अपना असली, क्रूर और विभत्स चेहरा दिखा दिया। ट्रंप समर्थकों ने अमेरिकी कांग्रेस पर ही हमला बोल दिया। यह तब हुआ जब संसद जो बाइडन के राष्ट्रपति होने की औपचारिकता पूरी करने के लिये बैठी थी। ख़बर लिखे जाने तक चार लोगों की मौत हो चुकी है, सैकड़ों घायल हैं। तक़रीबन सौ लोगों को गिरफ़्तार किया जा चुका है और अमेरिका में इस बारे में चर्चा चल रही है कि ट्रंप को अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले ही महाभियोग लगा कर हटा दिया जाए। 

अमेरिका के इतिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। पिछले दो सौ साल में हारने वाले नेताओं ने आपत्तियाँ हज़ारों की हों, अदालत का दरवाज़ा खटखटाया हो लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि कुर्सी पर बैठा हुआ राष्ट्रपति चुनावी प्रक्रिया को लगातार डिस्क्रेडिट करे और यह मानने को तैयार न हो कि वह हार गया है। और जब सारे दरवाज़े बंद हो जाएँ तो अपने समर्थकों को संसद पर ही हमले के लिए उकसाए।

सम्बंधित ख़बरें

यह अकल्पनीय था। जो हुआ है वह सोच के परे है। बहुत सारे विद्वानों को यह आशंका थी कि ट्रंप हारने के बाद आसानी से पद नहीं छोड़ेंगे पर वह इस हद तक गिर जायेंगे, इसकी आशंका उनके दुश्मनों को भी नहीं थी।

अमेरिका में यह चिंता पिछले छह महीने से जताई जा रही थी कि ट्रंप हारने के बाद शायद गद्दी नहीं छोड़ें। ख़ुद ट्रंप ने इस बात के साफ़ संकेत दिये थे कि वह हारने पर आसानी से नये राष्ट्रपति के लिये जगह खाली नहीं करेंगे। हज़ारों लेख इस बारे में लिखे गये। कई विद्वानों ने यह समझने की कोशिश की थी कि अगर राष्ट्रपति ऐसा करते हैं तो फिर संविधान में इससे निपटने का रास्ता क्या हो सकता है।

क्या सेना को बुलाकर उन्हें ज़बरन व्हाइट हाउस से निकालना पड़ेगा? पर इन लोगों ने भी यह नहीं सोचा था कि ट्रंप भीड़ को ही भड़का कर चुनाव के नतीजों को पलटने की कोशिश करेंगे। यह एक तरह से तख्ता पलट की कोशिश थी। फ़र्क़ सिर्फ इतना था कि यहाँ राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा आदमी ही यह काम कर रहा था। अमूमन तख्ता पलट कार्यवाही सत्ता पर बैठे व्यक्ति के ख़िलाफ़ होती है।

सबसे पहले तो यह सवाल पूछना चाहिये कि ट्रंप जैसा आदमी अमेरिका का राष्ट्रपति कैसे बन जाता है? ऐसा कौन सा अवगुण उनमें नहीं है जिसकी निंदा नहीं की जानी चाहिये, जिसके आधार पर उन्हें अमेरिका की जनता को उम्मीदवार तक नहीं बनने देना चाहिये।

ट्रंप ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ और ‘अमेरिका को फिर महान बनाना है’ के नारे पर आये थे। पर वह ख़ुद एक लंपट से अधिक कुछ नहीं हैं, मुहल्ले के उचक्के की तरह उनमें हर वह बुरी आदत है जिसे कोई भी समाज नापसंद करता है या कोई सभ्य व्यक्ति ऐसे आदमी को अपने घर में घुसने नहीं देता।

यह ट्रंप ही थे जिन्हें कैमरे पर यह कहते सुना गया कि कैसे महिलायें मशहूर आदमियों के जाल में ख़ुद ही फँस जाती हैं। यह वही शख़्स हैं जिन्होंने क़ानून की ख़ामियों का फ़ायदा उठा कर बड़े पैमाने पर टैक्स की चोरी की। यह वही ट्रंप हैं जो टैक्स न देना पड़े इसलिये कई बार अपने को दिवालिया घोषित करवाया। यह वही ट्रंप हैं जिनके हज़ारों झूठों की लंबी फ़ेहरिस्त न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट जैसे प्रतिष्ठित अख़बारों ने बना रखी है। यह वही ट्रंप हैं जो मीडिया को खुलेआम फ़ेक न्यूज़ कहते रहे। यह वही ट्रंप हैं जो सरेआम मुसलमानों, लैटिन अमेरिकी लोगों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने से नहीं चूकते। यह वही ट्रंप हैं जो नस्लवादी संगठनों की आलोचना नहीं करते। यह वही ट्रंप हैं जिन्होंने एक अश्वेत नागरिक की पुलिस के हाथों मौत हो जाने पर सड़कों पर हो रहे प्रदर्शन को कुचलने के लिये सेना का आह्वान किया था और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन का मज़ाक़ उड़ाया था।

trump supporters us capitol building violence learning for india - Satya Hindi

सवाल यह उठता है कि आख़िर ऐसा हुआ क्यों? अब तक अमेरिका के लोकतंत्र की दुनिया में मिसाल दी जाती थी। अमेरिका दुनिया के आधुनिक इतिहास का सबसे पुराना लोकतंत्र हैं। 1776 में अमेरिका के 13 राज्यों ने एक साथ ब्रिटेन के शासन के ख़िलाफ़ बग़ावत की। तक़रीबन 6 साल तक अमेरिका को आज़ादी हासिल करने के लिये ब्रिटेन की फ़ौज से जंग लड़नी पड़ी थी। जॉर्ज वाशिंगटन ने इस अमेरिकी फ़ौज का नेतृत्व किया था। और वही पहले राष्ट्रपति भी बने। एक लिहाज़ से अमेरिका को आधुनिक समय का पहला रिपब्लिक भी कह सकते हैं। तब से लेकर अब तक उसको दुनिया के सामने एक आदर्श की तरह इसे पेश किया जाता रहा था और यह कहा जाता था कि तमाम मतभेदों के बावजूद अमेरिका में मिल बैठ कर आपसी मतभेदों को सुलझा लिया जाता है। पर ट्रंप ने इस मिथक को चूर चूर कर दिया।

ट्रंप अकेले उदाहरण नहीं हैं। दुनिया के दूसरे देशों में भी इस तरह के लोग राष्ट्राध्यक्ष की कुर्सी पर बिराजमान हैं। ये वो लोग हैं जो लोकतंत्र के ज़रिए सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे।

विरोधियों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाना, लोगों को भड़काना ऐसे लोगों की राजनीति का मूल है। सीएनएन के एक एंकर ने सही कहा है कि ट्रंप ने ‘मतभेदों को वेपनाइज’ किया यानी मतभेद जो लोकतंत्र की मूल आत्मा है, उसे ही एक हथियार के तौर पर ट्रंप ने इस्तेमाल किया। अलग विचार या विरोधी विचार रखने वालों को देश के दुश्मन की तरह से पेश किया, ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा और नफ़रत का वातावरण बनाया। जिसका नतीजा यह हुआ कि देश के एक तबक़े ने यह मानना शुरू कर दिया कि ट्रंप अकेले नेता हैं जो देश के हित में काम कर रहे हैं और इसलिये उनके प्रतिद्वंद्वी उन्हें सत्ता से हटाना चाहते हैं। और जब वह सही तरीक़े से नहीं हटा पाए तो चुनाव में गड़बड़ी कर हरा दिया। यह मानसिकता कितनी ख़तरनाक है इसका सबूत दुनिया ने देख लिया है। 

वीडियो चर्चा में देखिए, डोनल्ड ट्रंप मज़ाक कर रहे हैं या तख्तापलट की कोशिश?

क्या यह मानसिकता आज भारत में नहीं देखी जा सकती है? क्या यह सच नहीं है कि सोशल मीडिया और टीवी के ज़रिये विरोधियों और अल्पसंख्यक तबक़े के ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा का माहौल बनाया जा रहा है? शाहीन बाग़ प्रोटेस्ट, कोरोना के समय तबलीग़ी जमात पर हमला और अब किसान आंदोलन को खालिस्तानी बताने की कोशिश, इस ओर इशारा नहीं करते कि भारत में भी कमोवेश वैसी ही स्थिति बना दी गयी है। 

सत्ता से इत्तिफ़ाक़ न रखने वालों को देशद्रोही बताना, देश का दुश्मन कहना, एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। ऐसे में इस आशंका से कैसे इंकार किया जा सकता है कि जो कुछ अमेरिका में हुआ देर सबेर वह स्थिति भारत में नहीं होगी?
लेकिन एक चीज़ पर और ग़ौर करना चाहिए कि आख़िर समाज को क्या हो गया है कि वह ऐसे नेताओं की बातों पर भरोसा करने लगा है, उन्हें अपना नेता मान मरने-मारने पर उतारू हो जाता है? क्या समाज पूरी तरह से बदल गया है? क्या जनता पर पागलपन सवार हो गया है? वह ऐसे नेताओं पर क्यों भरोसा करने लगी है जिन्हें वह अपने घर में मेहमान के तौर पर बुलाना पसंद नहीं करे? क्या लिबरल समाज यह आत्ममंथन करने को तैयार है? ट्रंप और उन जैसों की निंदा करना तो आसान है पर आत्म-परिष्कार के लिये आत्ममंथन करने को कितने राज़ी हैं? मुझे लगता है समस्या बेहद गंभीर है और यह समझना कि जो अमेरिका में हुआ वह एक अपवाद है, बेहद आत्मघाती क़दम साबित होगा।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
आशुतोष
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

दुनिया से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें