उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक और रहस्यमय इस्तीफे के बाद खाली हुए उपराष्ट्रपति पद के लिए 9 सितंबर को होने वाले चुनाव में एनडीए ने तमिलनाडु के दिग्गज बीजेपी नेता और पूर्व राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन को अपना उम्मीदवार बनाया है। वहीं, इंडिया गठबंधन ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी को मैदान में उतारा है। जस्टिस रेड्डी, जो आंध्र प्रदेश के एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं, ने अपने करियर में आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट, गुवाहाटी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इंडिया गठबंधन उन्हें प्रगतिशील और सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित व्यक्तित्व के रूप में पेश कर रहा है।

चुनावी माहौल में शालीनता की उम्मीद थी, लेकिन गृहमंत्री अमित शाह के एक बयान ने विवाद को जन्म दे दिया। शाह ने छत्तीसगढ़ के सलवा जुडूम अभियान को 2011 में असंवैधानिक घोषित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना करते हुए जस्टिस रेड्डी पर निशाना साधा। मलयाला मनोरमा न्यूज कॉन्क्लेव में शाह ने कहा कि जस्टिस रेड्डी का यह फैसला नक्सलवाद को बढ़ावा देने वाला था और अगर यह फैसला न आया होता, तो 2020 तक नक्सलवाद खत्म हो गया होता। इस बयान ने न केवल जस्टिस रेड्डी को निशाने पर लिया, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता पर भी सवाल उठाए, जिसके बाद 18 पूर्व जजों ने इसकी सार्वजनिक निंदा की।
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जस्टिस रेड्डी ने शालीनता के साथ जवाब देते हुए कहा कि गृहमंत्री को सुप्रीम कोर्ट के 40 पन्नों के फैसले को पढ़ना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह फैसला उनका व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट का था। उन्होंने बहस में शालीनता बनाए रखने की अपील की। 

18 पूर्व जजों ने की निंदा

18 पूर्व जजों ने गृहमंत्री के बयान को सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा बताया है। इनमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जैसे ए.के. पटनायक, अभय ओका, गोपाला गौड़ा, विक्रमजीत सेन, कुरियन जोसेफ, मदन बी. लोकुर और जे. चेलमेश्वर, साथ ही तीन पूर्व हाईकोर्ट मुख्य न्यायाधीश शामिल हैं। इन पूर्व जजों ने एक संयुक्त बयान जारी किया है। बयान में कहा गया कि शाह का सलवा जुडूम फैसले की गलत व्याख्या करना और उसका राजनीतिकरण करना न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर कर सकता है। पूर्व जजों ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि फैसले में कहीं भी नक्सलवाद का समर्थन नहीं किया गया।

सलवा जुडूम: एक विवादास्पद अभियान

सलवा जुडूम का अर्थ स्थानीय भाषा में "शांति अभियान" है। 2005 में छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नक्सलवाद के खिलाफ इस अभियान को शुरू किया गया था। इसके पीछे तत्कालीन कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा का हाथ था, जिन्होंने स्थानीय आदिवासियों को संगठित कर नक्सलियों के खिलाफ हथियारबंद कार्रवाई की थी।

स्थानीय लोगों को विशेष पुलिस अधिकारी (SPO) के रूप में भर्ती कर हथियार और प्रशिक्षण दिये गये। सरकार ने इसे स्वैच्छिक जन-अभियान बताया, लेकिन जल्द ही यह मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों से घिर गया।

सलवा जुडूम पर कई गंभीर आरोप

  • जबरन भर्ती: कई आदिवासियों को उनकी मर्जी के बिना शामिल किया गया और मना करने वालों को नक्सल समर्थक बताकर निशाना बनाया गया।  
  • हिंसा और अत्याचार: SPO और सुरक्षा बलों पर गांव जलाने, हत्याएं करने और यौन हिंसा करने के आरोप लगे।  
  • विस्थापन: हजारों आदिवासियों को अपने गांव छोड़कर शिविरों में रहने को मजबूर होना पड़ा।
  • जल-जंगल-जमीन की लूट: आरोप लगे कि सलवा जुडूम का असली मकसद खनन और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए आदिवासी जमीनों को खाली कराना था।

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला

2011 में जस्टिस सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस एस.एस. निज्जर की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक और गैरकानूनी घोषित किया। कोर्ट ने कहा कि हथियारबंद नागरिकों को SPO बनाना संविधान का उल्लंघन है और यह अभियान मानवाधिकारों का हनन करता है। कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार को इसे तुरंत खत्म करने और SPO प्रथा को बंद करने का आदेश दिया था।

इसी फ़ैसले के आधार पर अमित शाह जस्टिस सुदर्शन रेड्डी को ‘नक्सल समर्थक’ घोषित कर रहे हैं और बीजेपी की ट्रोल आर्मी भी सक्रिय हो गयी है। 
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नक्सलवाद का जटिल सच

नक्सलवाद की जड़ें 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में हैं जहाँ सीपीएम के नेताओं के नेतृत्व में जमींदारों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ था। बाद में ये लोग सीपीएम से निकाल दिये गये तो चारू मजूमदार के नेतृत्व में भारत में सशस्त्र कम्युनिस्ट क्रांति के इरादे से सीपीआई (एमएल) का गठन हुआ। आने वाले समय में इस पार्टी में कई विभाजन हुए जिनमें ज़्यादातर ने संसदीय रास्ते को स्वीकार लिया। 2004 में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर और पीपुल्स वार ग्रुप ने मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का गठन किया था। यह अकेली पार्टी है जो सशस्त्र क्रांति में विश्वास करती है। आंध्र प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाक़ों में इसका असर रहा है। छत्तीसगढ़ के बस्तर, सुकमा, बीजापुर जैसे क्षेत्रों में इसकी सक्रियता ज़्यादा है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की पैठ की वजहें हैं:
  • आर्थिक और सामाजिक असमानता: गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ने असंतोष को बढ़ाया।
  • जमीन की लूट: खनिज समृद्ध क्षेत्रों में आदिवासियों की जमीन छीनने से विस्थापन बढ़ा।
  • सरकारी उपेक्षा: शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं की कमी ने आदिवासियों को मुख्यधारा से काट दिया।

सैन्यवादी दृष्टिकोण

सलवा जुडूम जैसे अभियानों ने आदिवासियों के बीच आपसी टकराव को बढ़ाया। 2013 में सुकमा जिले की दरभा घाटी में नक्सलियों ने कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमला किया, जिसमें महेंद्र कर्मा समेत 30 लोग मारे गए। इस हमले में जान गँवाने वालों में विद्याचरण शुक्ल जैसे कांग्रेस के कई बड़े नेता भी थे। नक्सलियों ने इसे सलवा जुडूम के खिलाफ जवाबी कार्रवाई बताया। कुल मिलाकर नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच हिंसक संघर्ष का दुश्चक्र चलता ही रहा और आदिवासी कई बार दोनों ही तरफ़ से पिसे।
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बीजेपी सरकार नक्सलवाद को सैन्यवादी तरीक़े से हल करने पर जोर देती है। आरोप है कि इसका मक़सद आदिवासी जमीनों को कॉरपोरेट्स के हवाले करना है। बीएसएफ़ के पूर्व महानिदेशक ई.एन. राममोहन ने 2010 के दंतेवाड़ा हमले की जांच के बाद कहा था कि नक्सलवाद का समाधान केवल सैन्य कार्रवाई नहीं है। उन्होंने संविधान की पांचवीं अनुसूची और आदिवासियों के वन व भूमि अधिकारों की रक्षा पर जोर दिया। यूपीए सरकार ने इसीलिए पेसा कानून बनाया था।

अमित शाह का 14 साल पुराने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को राजनीतिक मुद्दा बनाना और जस्टिस रेड्डी पर निशाना साधना न केवल न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठाता है, बल्कि नक्सलवाद जैसे जटिल मुद्दे को सरलीकृत करने की कोशिश भी है। आदिवासियों को सामाजिक-आर्थिक न्याय, उनके मानवाधिकारों की रक्षा और समावेशी विकास की ज़िम्मेदारी निभाकर नक्सलवाद के प्रभाव को ख़त्म किया जा सकता है। अफ़सोस कि इस मोर्चे पर अमित शाह की सरकार का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है।