इस समय उत्तर भारत के कई शहरों में प्रदर्शन हो रहे हैं। ये प्रदर्शन अरावली पर्वतशृंखला को खनन से बचाने के लिए हो रहे हैं। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले के बाद अरावली खनन माफ़िया की शिकार हो जाएगी और इस नुक़सान की कोई भरपायी नहीं हो पाएगी। यहाँ तक कि देश की राजधानी दिल्ली के रेगिस्तान होने का ख़तरा बढ़ जाएगा। यह ऐसा मुद्दा है जिसने जाति, धर्म और वर्ग की सीमाओं के पार जाकर लोगों को एकजुट किया है जो इन दिनों एक विरल दृश्य है।
अरावली दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत शृंखलाओं में से एक है– लगभग 2-2.5 अरब साल पुरानी जिनका निर्माण प्रोटेरोज़ोइक युग में हुआ। यह युग पृथ्वी के इतिहास का वह दौर था जब वायुमंडल ऑक्सीजन से भरने लगा था और जीवन का स्पंदन बहुकोशकीय जीवन के रूप में शुरू हो रहा था। अरावली की उम्र के सामने महान हिमालय बच्चा ही है।
अरावली की लंबाई करीब 670-800 किलोमीटर है। यह उत्तर में दिल्ली के रिज से शुरू होकर राजस्थान और हरियाणा से गुजरते हुए गुजरात के पालनपुर तक फैली है। इसकी उच्चतम चोटी है गुरु शिखर (माउंट आबू, राजस्थान) – 1722 मीटर।
दिल्ली के लिए अरावली का क्या महत्व?
अरावली की एक बड़ी भूमिका यह है कि दिल्ली सहित पूरा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र रेगिस्तान होने से बचा हुआ है। राजस्थान का थार विश्व का 17वाँ सबसे बड़ा और 9वाँ सबसे बड़ा उपोष्णकटिबंधीय मरुस्थल है। यह भारत (85%) और पाकिस्तान (15%) में फैला है जिसका कुल क्षेत्रफल लगभग 2 लाख वर्ग किमी है। गर्मी में तापमान 50-52°C तक पहुँच जाता है जबकि सर्दियों में शून्य ने नीचे चला जाता है। बारिश भी बेहद कम (100-500 mm सालाना) होती है।
कई अध्ययन बताते हैं कि 2000 के दशक में थार का रेगिस्तान 0.5 किमी प्रति वर्ष की गति से पूर्व की ओर बढ़ रहा था। इससे सालाना 12,000 हेक्टेयर उत्पादक भूमि मरुस्थल में बदल रही थी। अरावली का क्षरण, अवैध खनन, ओवरग्रेजिंग, जलवायु परिवर्तन इसका कारण था।
हालाँकि नयी रिपोर्ट्स में कहा गया है कि फ़िलहाल थार का विस्तार नहीं हो रहा है। इसका बढ़ना रुक गया है।माइनिंग पर लगी रोक से अरावली की हरियाली बढ़ी जिसकी वजह से रेगिस्तान का विस्तार रुका। यानी बिना अरावली के दिल्ली-NCR, राजस्थान और हरियाणा मरुस्थल बन सकते थे।
अरावली की पहाड़ियाँ एक तरह से पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का फेफड़ा है। दिल्ली के लिए तो अरावली का ख़ास महत्व है-
- मरुस्थल रोकना: थार की रेत को रोकती है।
- पानी का स्रोत: ग्राउंडवाटर रिचार्ज करती है। चंबल, साबरमती, लूनी जैसी नदियों की शुरुआत यहीं से। राजस्थान में सूखे इलाकों में पानी की लाइफलाइन।
- जैव विविधता: तेंदुआ, हाइना, नीलगाय, मोर आदि का घर। दुर्लभ पेड़-पौधे।
- जलवायु नियंत्रण: धूल की आंधियाँ रोकती है, दिल्ली की हवा साफ रखने में मदद करती है, बारिश बढ़ाती है।
यानी अगर अरावली नष्ट हुई तो पानी की भयंकर कमी होगी। प्रदूषण बढ़ेगा, गर्मी बढ़ेगी, मरुस्थल फैलेगा। पर्यावरणविदों का कहना है कि 25% अरावली खनन से पहले ही नष्ट हो चुकी है। और यही ख़तरा सुप्रीम कोर्ट के नये आदेश से है जिसके ख़िलाफ़ लोग सड़कों पर हैं। 20 नवंबर को चीफ़ जस्टिस बी.आर. गवई की बेंच ने MoEFCC यानी मिनिस्ट्री आफ इनवायरमेंट, फारेस्ट एंड क्लाइमेट चेंज की एक अहम सिफ़ारिश मान ली जिससे लोग चिंतित हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने 100 मीटर या ज्यादा स्थानीय रिलीफ़ वाली पहाड़ियों को अरावली हिल्स माना है। अरावली रेंज में ऐसी पहाड़ियों को माना जायेगा जो 500 मीटर के दायरे में जुड़ी होंगी।
स्थानीय या लोकल रिलीफ़ किसी भू-आकृति (जैसे पहाड़ी) के आसपास की सबसे निचली सतह (surrounding terrain) से ऊँचाई का अंतर है। जैसे, किसी पहाड़ी के आधार पर सबसे निचली कंटूर लाइन 300 मीटर पर है, और शिखर 450 मीटर पर, तो स्थानीय रिलीफ 150 मीटर होगी।
यानी सुप्रीम कोर्ट ने खनन के लिए ज़रूरी कर दिया कि सौ मीटर से कम लोकल रिलीफ़ हो तो खनन किया जा सकता है। हालाँकि आदेश में नयी खनन लीज़ पर रोक लगायी गयी है। लेकिन यह रोक ‘सस्टेनेबल प्लान’ बनने तक ही है। साथ ही मौजूदा वैध खनन जारी रखने की अनुमित दे दी है।केंद्र सरकार कहती है कि अरावली का 90% क्षेत्र संरक्षित रहेगा, केवल 0.19% में खनन होगा। लेकिन फ़ैसले का विरोध करने वालों का कहना है कि यह एक चोर रास्ता है जिससे खनन तेज़ होगा और अरावली को नुक़सान होगा।
अरावली में खनन पर नज़र क्यों?
सवाल है कि अरावली में खनन होता क्यों है? दरअसल, अरावली क्षेत्र खनिजों से भरपूर है – मुख्य रूप से मार्बल, ग्रेनाइट, लाइमस्टोन, सैंडस्टोन, कॉपर, जिंक, लीड आदि मिलता है। इनका उपयोग कंस्ट्रक्शन (बिल्डिंग, रोड), मार्बल टाइल्स, सीमेंट, इंडस्ट्री में होता है। राजस्थान में माइनिंग इंडस्ट्री का सालाना टर्नओवर हजारों करोड़ का है और सरकार को बड़ी मात्रा में राजस्व भी मिलता है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि एक बार अरावली को बचाने के लिए सरकार ने अच्छी पहल की थी। 33 साल जारी हुए उस नोटिफिकेशन से अरावली पर हरियाली बढ़ी थी। 1980 के दशक में अरावली वैध-अवैध खनन से कराह रही थी। 7 मई 1992 को तत्कालीन पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने अरावली के कुछ हिस्सों को लेकर एक महत्वपूर्ण नोटिफिकेशन जारी किया था। इसके तहत अरावली के निर्दिष्ट क्षेत्रों (मुख्य रूप से गुड़गांव, हरियाणा और अलवर राजस्थान) में बिना केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति के खनन प्रतिबंधित हो गया था। नये उद्योगों की स्थापना या मौजूदा के विस्तार पर रोक लग गयी थी।
यह नोटिफिकेशन अरावली की पारिस्थितिक संवेदनशीलता को मान्यता देने वाला पहला बड़ा कदम था और बाद में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों (जैसे MC Mehta केस) का आधार बना। हालांकि, यह पूर्ण बैन नहीं था, बल्कि पूर्व अनुमति की जरूरत थी।यह नोटिफिकेशन पूरे अरावली पर नहीं, केवल निर्दिष्ट क्षेत्रों (गुड़गांव और अलवर) पर लागू था। बाद में इसके दायरे और व्याख्या पर विवाद हुए और 2025 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इसकी जगह नई परिभाषा आई जो पूरे अरावली पर लागू होगी।
सवाल है कि इतने विरोध के बावजूद सरकार क्यों चाहती है कि खनन हो?
सरकार का तर्क
सरकार का तर्क है कि उसका मक़सद अवैध खनन रोकना है। कुल बैन से माफिया बढ़ते हैं इसलिए सरकार के नियंत्रण में खनन होना चाहिए। विकास के लिए खनिज का खनन ज़रूरी है। इससे रोज़गार भी मिलेगा। क्रिटिकल मिनरल्स (जैसे टंगस्टन) नेशनल सिक्योरिटी के लिए भी ज़रूरी है।
पर पर्यावरणविद इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की परिभाषा से कम ऊँचाई वाली पहाड़ियाँ संरक्षित नहीं होंगी जबकि वे पारिस्थितकीय संतुलन के लिए ज़रूरी हैं। इस फ़ैसले से 90% क्षेत्र खनन के लिए खुल सकता है। इससे भूजल स्तर गिरेगा, धूल बढ़ेगी, जैव विविधता नष्ट होगी और मरुस्थल फैलेगा। दिल्ली-NCR में वायु गुणवत्ता बद से बदतर हो जाएगी।
इस समय दिल्ली जिस तरह से साँस को तरस रही है उससे पर्यावरण का मुद्दा फ़ैशन नहीं आम लोगों की चिंता का हिस्सा है। #SaveAravalli सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा है। सरकार की सफ़ाई है कि अरावली के 90 फ़ीसदी क्षेत्र पर कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन लोग मानने को तैयार नहीं हैं। विपक्ष, ख़ासतौर पर कांग्रेस ने इसे डेथ वारंट बताते हुए आरोप लगाया है कि बीजेपी और खनन माफ़िया के बीच मिलीभगत है। वैसे, पर्यावरण के मुद्दे पर यह जागरूकता किसी भी समाज के लिए एक शुभ संकेत है। देखना है कि सरकार का इस पर कितना असर होता है।