अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति से उपजे हालात के बीच चीनी विदेशमंत्री वांग यी का भारत दौरा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आगामी चीन यात्रा की चर्चा ने एक बार फिर दोनों देशों के रिश्तों को चर्चा में ला दिया है। ऐसा लगता है कि ट्रंप के दबाव का मुक़ाबला करने के लिए भारत का चीन के साथ संबंध सुधारने के अलावा कोई चारा नहीं है। मोदी सरकार की चीन नीति में साफ़-साफ़ यूटर्न नज़र आ रहा है। ऐसे में सवाल ये है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के उस कथित राष्ट्रवादी प्रचार का क्या होगा जो चीन को दुश्मन बताते हुए दीवाली पर चीनी झालरों के बहिष्कार की वकालत करता है?  सवाल यह भी है कि क्या भारत की विदेश नीति पेंडुलम बन गई है, जो कभी अमेरिका की ओर झुकती है, तो कभी चीन की ओर?

ऑपरेशन सिंदूर में चीन

7 मई 2025 को पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया, जो 10 मई तक चला। इस अभियान में भारत ने पाकिस्तान के कई आतंकी ठिकानों को नष्ट किया। लेकिन चर्चा है कि चीन की सैन्य तकनीकी मदद के कारण पाकिस्तान इस मुकाबले में टिका रहा। भारत के कुछ लड़ाकू विमान भी गिराए गए, जिसे सेना ने स्वीकार किया, हालांकि सटीक संख्या का खुलासा नहीं हुआ। इस दौरान न केवल पाकिस्तान, बल्कि चीन भी भारत के निशाने पर था।

27 मई को गांधीनगर में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने बिना नाम लिए चीन पर तंज कसा। उन्होंने कहा, “अब हम कोई विदेशी चीज का उपयोग नहीं करेंगे। हमें गांव-गांव व्यापारियों को शपथ दिलवानी होगी कि विदेशी सामानों से कितना भी मुनाफा क्यों न हो, कोई भी विदेशी चीज नहीं बेचेंगे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, गणेश जी भी विदेश से आ जाते हैं। गणेश जी की आंख भी नहीं खुल रही है।” यह ‘छोटी आंख’ वाला बयान, जिसे नस्लीय टिप्पणी के रूप में देखा गया, स्पष्ट रूप से चीन पर निशाना था। यह स्वदेशी अपील ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा देने के लिए थी जिसके लिए चीनी सामानों का बहिष्कार ज़रूरी बताया जा रहा था। लेकिन ढाई महीने बाद ही स्थिति बदलती दिख रही है।

चीनी विदेशमंत्री का दौरा 

19 अगस्त 2025 को चीनी विदेशमंत्री वांग यी ने दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी, विदेशमंत्री एस. जयशंकर, और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल से मुलाकात की। यह दौरा विशेष प्रतिनिधि वार्ता का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) पर शांति बनाए रखना था। LAC भारत और चीन के बीच 3,488 किलोमीटर लंबी अस्थायी सीमा रेखा है, जहां अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में विवाद हैं। वांग यी ने उर्वरक, दुर्लभ खनिज, और टनलिंग मशीनों की आपूर्ति का भरोसा दिया और लिपुलेख, शिपकी ला, और नाथू ला जैसे व्यापारिक रास्तों को फिर खोलने की बात की।

इस मुलाकात के बाद मोदी ने घोषणा की कि वे 31 अगस्त से 1 सितंबर 2025 तक तियानजिन में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। यह सात साल में उनकी पहली चीन यात्रा होगी। इससे पहले अक्टूबर 2024 में कज़ान ब्रिक्स सम्मेलन में उनकी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात हुई थी। मोदी ने X पर पोस्ट किया, “मैं तियानजिन में SCO शिखर सम्मेलन में हमारी अगली मुलाकात का इंतजार कर रहा हूं। भारत और चीन के बीच स्थिर, भरोसेमंद और रचनात्मक संबंध क्षेत्रीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक शांति और समृद्धि में बड़ा योगदान देंगे।”

SCO की स्थापना 2001 में चीन, रूस, कजाकिस्तान, किर्गिजस्तान, उज्बेकिस्तान, और ताजिकिस्तान ने की थी। भारत और पाकिस्तान 2017 में इसमें शामिल हुए। अब ईरान भी इसका हिस्सा है। यह ब्रिक्स के बाद दूसरा बड़ा मंच है, जहां भारत, चीन, और रूस सहयोग करते हैं। 

रूस ने वांग यी के दौरे और भारत-चीन रिश्तों में सकारात्मक बदलाव का स्वागत किया है। रूसी राजनयिक रोमन बाबुश्किन ने कहा कि ब्रिक्स और SCO में मजबूत सहयोग वैश्विक चुनौतियों का जवाब दे सकता है।

क्या यह यूटर्न है?

मई 2025 में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन की पाकिस्तान को सैन्य मदद ने भारत को नाराज किया था। देश के आला सैन्य अफ़सरों ने खुलकर कहा था कि चीन ने पाकिस्तान की हर तरह से मदद की। पाकिस्तान को लेकर चीन के रुख़ में अभी भी कोई तब्दीली नहीं आयी है। वांग यी के दौरे के बीच चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने भारत और पाकिस्तान को “महत्वपूर्ण पड़ोसी” बताते हुए चीन-पाकिस्तान रिश्तों को “हर मौसम में खरा उतरने वाला” करार दिया है। यह बयान दर्शाता है कि चीन भारत के साथ रिश्ते सुधारते हुए भी पाकिस्तान के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी बनाए रखना चाहता है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC), जिसमें 60 अरब डॉलर से अधिक का निवेश है, भारत के लिए चिंता का विषय है।

मोदी का SCO सम्मेलन में शामिल होना और चीन के साथ कूटनीतिक जुड़ाव एक बड़ी मजबूरी की ओर इशारा कर रहा है। वैसे भारत ने हमेशा तनाव के बाद भी चीन के साथ बातचीत बनाए रखी, जैसे 2018 में वुहान और 2019 में महाबलीपुरम की अनौपचारिक मुलाकातें चीनी राष्ट्रपति के साथ प्रधानमंत्री मोदी की मुलाक़ातें। लेकिन यह सवाल तो है ही कि क्या विश्वास की कमी और पाकिस्तान के साथ चीन की गहरी दोस्ती के बावजूद रिश्तों में गर्मी लाना संभव है?

ट्रंप की नीति का असर

ट्रंप ने भारत पर 50% टैरिफ लगाया है जिसमें 25% दंडात्मक टैरिफ है, क्योंकि भारत रूस से तेल खरीद रहा है। ट्रंप का दावा है कि भारत रूसी तेल खरीदकर रूस की अर्थव्यवस्था को समर्थन देता है, जिससे यूक्रेन युद्ध लंबा खिंच रहा है। हालाँकि रूस से चीन भी तेल ख़रीद रहा है। लेकिन ट्रंप के आर्थिक सलाहकार पीटर नवारो ने फाइनेंशियल टाइम्स में लिखा कि चीन रूस से सस्ता तेल लेकर अपनी जनता को लाभ देता है, जबकि भारत के उद्योगपति इसे विदेशों में बेचकर मुनाफाखोरी करते हैं। भारत ने 2024 में रूसी तेल से 25 अरब डॉलर की बचत की, और 2022-24 में 132 अरब डॉलर का तेल आयात किया। लेकिन रिलायंस जैसी कंपनियों ने इसे विदेशी बाजारों में बेचा, और इंडियन ऑयल ने उपभोक्ताओं को कोई राहत नहीं दी।

ट्रंप लगातार जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं वह भारत के लिए अपमानजनक है। 1971 में बांग्लादेश युद्ध के दौरान राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इंदिरा गांधी के साथ असम्मानजनक व्यवहार किया था, जिसके जवाब में इंदिरा गाँधी मीटिंग छोड़कर चली आयी थीं और अमेरिकी सातवें बेड़े की परवाह किए बिना उन्होंने सैन्य हस्तक्षेप किया जिससे बांग्लादेश का जन्म संभव हुआ। लेकिन ट्रंप को “माई फ्रेंड” कहने वाले मोदी उनका नाम तक लेने से बच रहे हैं। ऑपरेशन सिंदूर पर संसद में हुई बहस के दौरान नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने चुनौती दी थी कि पीएम मोदी ट्रंप के युद्ध रोकने के दावे को झुठलायें लेकिन मोदी ने चुप्पी साध ली। ट्रंप की उग्र भाषा और टैरिफ ने भारत को चीन और रूस के करीब धकेल दिया है।

भारत-चीन व्यापार

वैसे चीन के साथ व्यापार के मोर्चे पर भी भारत के सामने कड़ी चुनौती है। वित्त वर्ष 2024-25 में भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 99.2 अरब डॉलर तक पहुंच गया। भारत ने 113.45 अरब डॉलर का आयात किया, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक्स, बैटरी, और रसायन शामिल हैं, जबकि निर्यात केवल 14.2 अरब डॉलर रहा। यह घाटा 2022-23 के 85 अरब डॉलर से बढ़ा है। चीनी सामान, जैसे दीवाली की झालरें और गणेश मूर्तियां, भारतीय बाजार में सस्ते दाम और बेहतर गुणवत्ता के कारण छाये हुए हैं। भारत का मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र चीन से पीछे है, और विज्ञान-तकनीक में निवेश की कमी इसे और चुनौतीपूर्ण बनाता है।

रिश्तों का इतिहास

भारत और चीन को लगभग एक साथ आजादी मिली थी। भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक क्रांति चुनी, और 1947 में आजाद हुआ। चीन में माओत्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी ने सशस्त्र क्रांति के जरिए 1949 में आजादी हासिल की। 1954 में पं. जवाहरलाल नेहरू और चीनी प्रधानमंत्री झोउ एनलाई के बीच पंचशील समझौता हुआ, जिसमें शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, गैर-हस्तक्षेप, और समानता जैसे सिद्धांत थे। ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा इस दौर की पहचान था।

लेकिन 1959 में दलाई लामा को भारत में शरण देने से रिश्ते बिगड़े। 1962 में भारत-चीन युद्ध में भारत की हार हुई, और चीन ने अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया। इसके बाद दो दशक तक रिश्ते ठंडे रहे। 

1988 में राजीव गांधी की चीन यात्रा ने गरमाहट लाई। 1990 के दशक में व्यापार बढ़ा, और 2006 में नाथू ला पास खुला। लेकिन 2017 में डोकलाम गतिरोध, 2019 में अनुच्छेद 370 का हटना, और 2020 में गलवान झड़प ने रिश्तों को फिर तनावपूर्ण बना दिया।

मोदी राज में रिश्ते

2014 में शी जिनपिंग की भारत यात्रा और 2015 में मोदी की चीन यात्रा ने आर्थिक सहयोग को बढ़ावा दिया। लेकिन डोकलाम (2017), अनुच्छेद 370 (2019), और गलवान (2020) ने तनाव बढ़ाया। गलवान में 20 भारतीय और कम से कम चार चीनी सैनिकों की मौत हुई। भारत ने 200+ चीनी ऐप्स बैन किए और निवेश सीमित किया। फिर भी, व्यापार 135 अरब डॉलर तक पहुंचा। उधर, चीन ने पाकिस्तान में इकोनामिक कारोडोर में अरबों डालर का निवेश करके साफ़ कर दिया है कि वह भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान को मज़बूत बनाना चाहता है।

ट्रंप की टैरिफ नीति ने भारत को रूस और चीन के करीब ला दिया है, लेकिन विश्वास की कमी और चीन-पाकिस्तान गठजोड़ रास्ते में रोड़ा हैं। भारत की विदेश नीति पेंडुलम नहीं बननी चाहिए जो कभी अमेरिका तो कभी चीन-रूस के बीच झूलती रहे। रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखते हुए भारत को SCO और BRICS जैसे मंचों पर सहयोग बढ़ाना होगा, ताकि वह वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति मजबूत कर सके। इसके साथ ही उसे मानवाधिकार समेत उन तमाम मानकों पर खरा उतरना होगा जो एक सभ्य और आधुनिक देश के लिए ज़रूरी हैं।