महिलाएँ भारत के लोकतंत्र के लिए उतनी ही ज़िम्मेदार और भागीदार हैं जितना कि पुरुष। जिस संविधान ने स्त्री और पुरुष को बराबर का नागरिक माना है, वह उसी स्वतंत्रता संग्राम की उपज है जिसमें महिलाओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था। मताधिकार के लिए दुनिया भर में महिलाओं ने अभूतपूर्व संघर्ष किया है और चुनने या चुने जाने की इस व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी का स्तर लोकतंत्र की परिपक्वता का मानक है। लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार की नज़र में यह महिलाओं के स्तर पर की जानी वाली कोई गोपनीय कार्रवाई है और अगर मतदान की क़तार पर महिलाओं के खड़े रहने का वीडियो सार्वजनिक होना बहू, बेटियों की निजता का उल्लंघन है। जिस दौर में महिलाएँ खेल के मैदान से लेकर जंग के मैदान तक में नाम कमा रही हों, उस दौर में ऐसा बयान वही दे सकता है जिसके दिमाग़ में संविधान नहीं स्त्री को गुलाम समझने वाली मनुस्मृति गूँजती हो। दूसरी वजह यही हो सकती है कि वोट चोरी के आरोपों से बचने के लिए ज्ञानेश कुमार महिलाओं की निजता को ढाल बनाने की हास्यास्पद कोशिश कर रहे हैं

ज्ञानेश कुमार का विवादास्पद बयान

17 अगस्त 2025 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने विपक्ष के नेता राहुल गांधी की उस माँग का जवाब दिया कि मतदान केंद्रों की वीडियो रिकॉर्डिंग सार्वजनिक की जाये। राहुल गांधी का कहना है कि वीडियो रिकॉर्डिंग से यह साफ हो सकता है कि पिछले कुछ चुनावों में शाम 5 बजे के बाद मतदान प्रतिशत में अचानक 7-8% की वृद्धि कैसे हुई। जवाब में ज्ञानेश कुमार ने  उल्टा सवाल किया- "क्या हमें किसी की माँ, बहू-बेटी के सीसीटीवी फुटेज सार्वजनिक करने चाहिए?"
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यह बयान न केवल चौंकाने वाला था, बल्कि इसमें एक ऐसी मानसिकता झलकती है जो महिलाओं को नागरिक के बजाय केवल लिंग (वह भी पुरुष से कमज़ोर) के रूप में देखती है। क्या वोट देना, जो एक संवैधानिक अधिकार है, गोपनीयता का मामला हो सकता है? क्या क्रिकेट, फुटबॉल या हॉकी खेलने वाली महिलाओं के मैचों का टी.वी प्रसारण उनकी निजता का उल्लंघन करता है? यदि नहीं, तो मतदान केंद्र पर कतार में खड़ी महिलाओं का वीडियो गोपनीय कैसे हो सकता है?

स्वतंत्रता संग्राम में महिलाएँ

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं ने अपार बलिदान दिये। महात्मा गांधी के आह्वान पर महिलाओं की बड़ी तादाद सड़क पर उतरी। महिलाओं ने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया, शराब की दुकानों पर पिकेटिंग की, और क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लिया। 1930 में स्वरूपरानी नेहरू पर ब्रिटिश पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिसके बाद वे लंबे अरसे तक उठ नहीं सकीं। अरुणा आसफ अली ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कांग्रेस रेडियो संचालित किया, और कल्पना दत्त ने चटगांव शस्त्रागार छापे में हिस्सा लिया। सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी से लेकर उषा मेहता तक न जाने कितनी महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में जीवन होम कर दिया। मोती लाल नेहरू के परिवार की तो लगभग सभी महिलाएँ जेल गयीं। कमला नेहरू, विजय लक्ष्मी पंडित, कृष्णा हठी सिंह और इंदिरा गाँधी-सभी जेल गयीं। इन सभी का सपना ऐसा भारत था जहाँ स्त्री-पुरुष में कोई भेद न हो। 

क्या कमला नेहरू, विजय लक्ष्मी पंडित, कृष्णा हठी सिंह और इंदिरा गाँधी की तस्वीरों का उस समय अख़बारों में छपना उनकी निजता का उल्लंघन था? तो जब वे लोकतंत्र के उत्सव में भागीदार बनकर वोट देने के लिए क़तार में खड़ी होती हैं तो यह निजता का उल्लंघन कैसे हो सकता है?

महिला मताधिकार का वैश्विक संघर्ष

महिलाओं को वोट का अधिकार आसानी से नहीं मिला। इंग्लैंड में 13वीं सदी में मैग्ना कार्टा और 1688 की गौरवशाली क्रांति ने लोकतंत्र की नींव रखी, लेकिन मताधिकार केवल धनी पुरुषों तक सीमित था। 19वीं सदी तक महिलाओं को यह अधिकार नहीं मिला। 1903 में एमेलिन पैनखर्स्ट ने “विमेन्स सोशल एंड पॉलिटिकल यूनियन” बनाकर सफ्रजेट आंदोलन शुरू किया, जिसका नारा था “शब्द नहीं, काम चाहिए।” इस आंदोलन में महिलाओं ने सरकारी दफ्तरों पर हमले किए, भूख हड़ताल की, और जेल में अमानवीय व्यवहार का सामना किया। आखिरकार, 1918 में 30 वर्ष से अधिक उम्र की संपत्ति वाली महिलाओं को और 1928 में 21 वर्ष से अधिक उम्र की सभी महिलाओं को वोट का अधिकार मिला।

न्यूजीलैंड (1893) पहला देश था जिसने महिलाओं को मताधिकार दिया, जबकि अमेरिका (1920), फ्रांस (1944), और स्विट्जरलैंड (1971) में यह अधिकार बाद में मिला। 

लेकिन भारत के संविधान ने 1950 में लागू होने के साथ ही महिलाओं को पुरुषों के समान मताधिकार दिया, जो वैश्विक महिला आंदोलनों और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के संकल्प का परिणाम था।
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मनुस्मृति बनाम संविधान

ज्ञानेश कुमार का बयान उस मानसिकता को दर्शाता है जो मनुस्मृति में निहित है। मनुस्मृति कहती है कि महिलाएँ हमेशा पुरुषों के अधीन रहें। डॉ. आंबेडकर ने इस ग्रंथ को सार्वजनिक रूप से जलाया और एक ऐसा संविधान बनाया जिसमें समता सर्वोपरि थी। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसे संगठनों ने मनुस्मृति को संविधान से ऊपर माना। 1949 में, संविधान सभा द्वारा संविधान स्वीकार किए जाने के तीन दिन बाद, आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने लिखा कि संविधान में मनुस्मृति से कुछ नहीं लिया गया। पीएम मोदी उसी आरएसएस के स्वयंसेवक रहे हैं। तो क्या ज्ञानेश कुमार का बयान इसी विचारधारा से प्रेरित है?

पारदर्शिता का सवाल

राहुल गांधी ने 7 अगस्त 2025 को अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया कि कर्नाटक की एक लोकसभा सीट पर फर्जी वोट जोड़कर परिणाम बदला गया। उन्होंने डिजिटल फॉर्म में सर्चेबल वोटर लिस्ट और मतदान वीडियो सार्वजनिक करने की मांग की। पहले, कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स 1961 की धारा 93(2) के तहत सीसीटीवी फुटेज सहित सभी चुनावी दस्तावेज सार्वजनिक किए जा सकते थे। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने  हरियाणा विधानसभा चुनाव में 7.83% मत वृद्धि की जांच के लिए फॉर्म 17सी और सीसीटीवी फुटेज साझा करने का निर्देश दिया गया था, लेकिन दिसंबर 2024 में सरकार ने नियमों में संशोधन कर दिया। अब फुटेज को केवल विशेष परिस्थितियों में कोर्ट की अनुमति से साझा किया जा सकता है।
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महिलाओं के संघर्ष का अपमान

ज्ञानेश कुमार का बयान न केवल महिलाओं के ऐतिहासिक संघर्ष का अपमान है, बल्कि यह लोकतंत्र की पारदर्शिता पर भी सवाल उठाता है। महिलाएँ केवल माँ, बहू, या बेटी नहीं हैं; वे भारत की नागरिक हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और मताधिकार की लड़ाई में बराबर का योगदान दिया। वोट देना उनका संवैधानिक अधिकार है, न कि कोई गोपनीय कार्य। यह बहाना वोट चोरी के आरोपों को छिपाने का एक प्रयास प्रतीत होता है।

लोकतंत्र में पारदर्शिता सर्वोपरि है। महिलाओं के वोट देने की क़तार को निजता के नाम पर छिपाना न केवल उनके संघर्ष का अपमान है, बल्कि यह संविधान की भावना के खिलाफ भी है। इतिहास एक दिन ज्ञानेश कुमार को इस बयान के लिए कठघरे में खड़ा करेगा।