चुनाव आयोग के बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण आदेश से तूफ़ान खड़ा हो गया है! इस कदम से लाखों गरीब और वंचित मतदाताओं का वोट देने का अधिकार खतरे में पड़ सकता है। चुनाव आयोग कुछ भी कहे, लेकिन रिपोर्टें आ रही हैं कि 2003 की मतदाता सूची को आधार बनाकर 4.74 करोड़ लोगों को सिर्फ एक महीने में अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। लेकिन बिहार जैसे दस्तावेजों की कमी वाले राज्य में यह कितना संभव है? विपक्ष इसे लोकतंत्र पर हमला बता रहा है, जबकि आयोग इसे नागरिकता की रक्षा का क़दम कह रहा है। आखिर इस विवाद की सच्चाई क्या है, और क्या यह बिहार से शुरू होकर पूरे देश में लोकतंत्र की नींव हिला देगा? 

पुनरीक्षण का आदेश क्यों?

चुनाव आयोग यानी ईसीआई ने 24 जून, 2025 को बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की शुरुआत की। इसका मक़सद मतदाता सूची को अपडेट करना और ग़ैर-क़ानूनी प्रवासियों सहित अयोग्य मतदाताओं को हटाना है। इस प्रक्रिया में 2003 की मतदाता सूची को आधार बनाया गया है। जिन लोगों का नाम 2003 की सूची में है उनको सामान्य सा फॉर्म भरना होगा। लेकिन जिनका नाम उस सूची में नहीं है, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2003 के तहत निर्धारित मानकों के अनुसार दस्तावेज जमा करने होंगे।

ईसीआई का दावा

ईसीआई का कहना है कि बिहार में कुल 7.9 करोड़ मतदाता हैं, जिनमें से 4.96 करोड़ का नाम 2003 की सूची में है। बाक़ी 2.94 करोड़ लोगों को अपनी पात्रता साबित करने के लिए दस्तावेज जमा करने होंगे। लेकिन यह अनुमान ग़लत हो सकता है। भारत जोड़ो अभियान से जुड़े शोधकर्ता राहुल शास्त्री का कहना है कि मतदाताओं की संख्या इससे काफ़ी अलग होना तय है।

राहुल शास्त्री ने सत्य हिंदी को बताया कि 2003 की सूची के 4.96 करोड़ मतदाताओं में से करीब 1.1 करोड़ लोगों की मौत हो चुकी होगी। उन्होंने कहा कि सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम की रिपोर्ट से मिली हमारी गणना के अनुसार, इनमें से क़रीब 1.1 करोड़ लोग मर चुके हैं। चुनाव आयोग ने उन्हें सूची से हटा दिया है। इसके साथ ही उन्होंने बिहार से पलायन करने वालों का आँकड़ा भी दिया। 

4.74 करोड़ को दस्तावेज जमा करना होगा?

शास्त्री ने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के प्रोफेसर पिनाक सरकार के जनगणना से प्राप्त एक शोधपत्र का हवाला दिया है। इसके अनुसार, 2001 से 2011 के बीच 93 लाख लोग स्थायी रूप से बिहार से पलायन कर गए। भले ही 2011 के बाद पलायन थोड़ा धीमा हो गया हो, लेकिन 2003-24 की अवधि में बिहार से हर साल औसतन 8 लाख लोगों के पलायन का मतलब है कि कुल 1.76 करोड़ लोग पलायन कर गए।

इस हिसाब से 2003 की सूची में अब केवल 3.16 करोड़ लोग ही बिहार में मतदाता के रूप में बचे हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह, 4.74 करोड़ लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज जमा करने होंगे, जो 2020 की जनसंख्या अनुमानों के 4.76 करोड़ के आंकड़े से मेल खाता है।

दस्तावेजों की चुनौती

ईसीआई ने नागरिकता साबित करने के लिए 11 दस्तावेजों की सूची दी है, लेकिन बिहार जैसे राज्य में ज़्यादातर लोगों के पास बुनियादी दस्तावेज नहीं हैं। राहुल शास्त्री ने इन 11 दस्तावेजों की स्थिति को लेकर हिंदू में एक लेख में चौंकाने वाले आँकड़े दिए हैं।
  • सरकारी कर्मचारी/पेंशनर पहचान पत्र: 2022 की जातिगत जनगणना के अनुसार बिहार में केवल 20.47 लाख लोगों के पास सरकारी नौकरी है और इनमें से आधे से भी कम 18-40 आयु वर्ग में हैं।
  • 1987 से पहले जारी पहचान पत्र: यह लागू नहीं है।
  • जन्म प्रमाणपत्र: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-3 के अनुसार, 2001-2005 के बीच जन्मे केवल 2.8% लोगों के पास जन्म प्रमाणपत्र है।
  • पासपोर्ट: केवल 2.4% बिहारियों के पास पासपोर्ट है।
  • मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र: 18-40 आयु वर्ग में 45-50% लोग मैट्रिक पास हैं, लेकिन महिलाओं में यह संख्या कम है।
  • डोमिसाइल प्रमाणपत्र: बिहार में यह बहुत कम लोगों के पास है।
  • वन अधिकार प्रमाणपत्र: बिहार में अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी केवल 1.3% है।
  • ओबीसी/एससी/एसटी प्रमाणपत्र: 2011-12 के सर्वे के अनुसार, केवल 16% बिहारियों के पास जाति प्रमाणपत्र है।
  • राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर: यह केवल असम में लागू है।
  • पारिवारिक रजिस्टर: बिहार में लागू नहीं।
  • जमीन/मकान आवंटन प्रमाणपत्र: सरकारी आवास वाले कर्मचारियों को छोड़कर यह आम नहीं है।
इनमें से मैट्रिकुलेशन प्रमाणपत्र ही सबसे आम दस्तावेज है, लेकिन बिहार में 50-55% लोग, खासकर गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में, इसके बिना हैं। इसका मतलब है कि लगभग 2.4-2.6 करोड़ लोग, जो गरीबी के कारण स्कूल छोड़ चुके हैं, मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं। इसके अलावा, 40 साल से अधिक उम्र के वे लोग, जिनका नाम 2003 की सूची में नहीं है या जिनके नाम में बदलाव हुआ है, भी मतदान के अधिकार से वंचित हो सकते हैं।

आधार और राशन कार्ड क्यों नहीं?

सवाल उठता है कि जब आधार कार्ड बिहार की 90% आबादी के पास है, तो इसे क्यों नहीं स्वीकार किया जा रहा? इसी तरह ज़्यादातर ग़रीब परिवारों के पास रहने वाले राशन कार्ड को भी सूची में शामिल नहीं किया गया। कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंहवी और आरजेडी के तेजस्वी यादव जैसे विपक्षी नेताओं ने इसे गरीबों और प्रवासियों के खिलाफ एक साजिश बताया है। उनका कहना है कि यह प्रक्रिया राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी को लागू करने का एक छिपा हुआ प्रयास हो सकता है।
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समय सीमा की चुनौती

ईसीआई ने 1 जुलाई से 31 जुलाई तक का समय दिया है, जिसमें 4.74 करोड़ लोगों को दस्तावेज जमा करने होंगे। बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में प्रत्येक निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी यानी ईआरओ को औसतन 1.95 लाख आवेदनों की जांच करनी होगी, मसौदा सूची तैयार करनी होगी, और संदिग्ध मामलों में स्वत: जांच करनी होगी। यह 62 दिनों में असंभव-सा कार्य है, खासकर जब ईआरओ के पास अन्य जिम्मेदारियां भी हैं।

ईसीआई का जवाब

मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने कहा कि यह प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत है, जो केवल भारतीय नागरिकों को वोट देने का अधिकार देता है। उन्होंने इसे सभी भारतीयों के लिए गर्व का क्षण बताया और कहा कि 77,895 बीएलओ और 20,603 अतिरिक्त स्वयंसेवक बुजुर्गों, बीमार, और गरीब मतदाताओं की मदद करेंगे। ईसीआई ने 2003 की मतदाता सूची को ऑनलाइन उपलब्ध कराया है ताकि लोग आसानी से अपने नाम जाँच सकें। लेकिन सवाल वही है कि क्या इतनी चुनौतियों के बाद यह इतनी आसानी से पूरा हो सकेगा?