अमित शाह और स्व अरुण जेटली पीएम मोदी की डिग्री दिखाते हुए। फाइल फोटो
PM Modi Degree Controversy: प्रधानमंत्री की डिग्री पर क्यों सवाल उठ रहे हैं? क्योंकि इसको लेकर ख़ुद उनकी और उनकी पार्टी की ओर से तरह-तरह के बयान आते रहे हैं। कई बार तो लगता है जैसे डिग्रियों को लेकर पीएम या उनके सहयोगियों के मन में कोई कुंठा हो।
बहरहाल, प्रधानमंत्री की डिग्री के सवाल पर लौटें। प्रधानमंत्री की डिग्री पर क्यों सवाल उठ रहे हैं? क्योंकि इसको लेकर ख़ुद उनकी ओर उनकी पार्टी की ओर से तरह-तरह के बयान आते रहे हैं। कई बार ऐसा लगता है जैसे डिग्रियों को लेकर प्रधानमंत्री या उनके सहयोगियों के मन में कोई कुंठा हो या कुछ साबित करने की चाह हो। काश, ऐसा न होता। बीते 11 साल में प्रधानमंत्री या उसके पहले गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जो कुछ किया, वह उनके मूल्यांकन के लिए काफ़ी है।
तो मामला डिग्री का नहीं है, राजनीतिक समर में सच और झूठ का है। इन दिनों शुचिता की राजनीति की कुछ ज़्यादा बात करने वालों से यह अपेक्षा अस्वाभाविक नहीं है कि वे अपनी पढ़ाई-लिखाई को लेकर भी पूरा सच बोलें। अगर उन्होंने बीए या एमए न भी किया हो तो फ़र्क नहीं पड़ता। जहां तक सिर्फ़ भाषा का सवाल है, स्मृति ईरानी निस्संदेह अच्छी भाषा बोलती हैं और प्रधानमंत्री की भाषा का भी अपना अंदाज़ है- बेशक, इसमें ताक़त और कुछ पूर्वग्रहों की बू कुछ ज़्यादा महसूस होती है।
बहरहाल, अब एक नई फिक्र इस पूरे मामले में मेरे सामने है। केंद्रीय सूचना आयोग एक संवैधानिक संस्था है- वैसी ही जैसे केंद्रीय चुनाव आयोग है। यह सूचना आयोग का आदेश था कि दिल्ली विश्वविद्यालय साल 1978 में बीए पास करने वाले छात्रों की सूचना सार्वजनिक करे। इसी साल प्रधानमंत्री ने भी यह डिग्री हासिल की थी। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस आदेश को दिल्ली हाइकोर्ट में चुनौती दे डाली।
सच है कि यह पूरा विवाद बहुत अशोभनीय है। लेकिन कुछ देर के लिए यह मान लें कि विपक्ष यह विवाद उठा कर निजी हमले की कुत्सित राजनीति का सहारा ले रहा है तो भी इसकी काट क्या है? क्या हाइकोर्ट की रोक के बाद यह विवाद ख़त्म हो जाएगा? अच्छा होता, प्रधानमंत्री बड़ा दिल दिखाते और अपनी डिग्रियों को फिर से सार्वजनिक करने का फ़ैसला कर साबित कर देते कि वाकई उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई की है। हालांकि फिर दुहराने की ज़रूरत है कि इससे फ़र्क नहीं पड़ता। मगर जिस बात से फ़र्क नहीं पड़ता, उसको छुपाने की कोशिश में तीन संस्थाओं- सूचना आयोग, विश्वविद्यालय और हाइकोर्ट- की स्वायत्तता सवालों से घिर गई।
यह सच है कि हमारे ज़्यादातर विश्वविद्यालय वैसे ही बेकार बना दिए गए हैं। वे डिग्रियां बांटने वाले कारख़ाने भर रह गए हैं जहां शिक्षा को छोड़ कर बाक़ी सबकुछ हो रहा है। वहां से बीए या एमए कर लेना बहुत गौरव की बात नहीं है, इसी तरह न कर पाना भी बहुत हेठी की बात नहीं है। बहुत सारे डिग्रीविहीन लोगों ने पढ़े-लिखे लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा काम किया है। उन्होंने अपनी डिग्रीविहीनता को छुपाया भी नहीं है।