प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या पूर्व केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की डिग्रियों में मेरी ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है। वैसे भी डिग्रियों से ज्ञान या विवेक का कोई वास्ता है- यह भ्रम अरसा पहले कई डिग्रीधारियों ने ही तोड़ दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फिज़िक्स पढ़ाने वाले मुरली मनोहर जोशी 1995 की एक सुबह गणेश जी को दूध पिला कर अपनी डिग्री को पानी-पानी कर चुके थे। उनकी तरह के लाखों नहीं करोड़ों लोग हैं। मेरी यह मान्यता भी पहले से बनी हुई है कि इस देश को उसके पढ़े-लिखे लोगों ने सबसे ज़्यादा लूटा है, उन्होंने सबसे ज्यादा बांटा है। अनपढ़ लोग धार्मिक निकले, पढ़े-लिखे लोग सांप्रदायिक साबित हुए। मोहम्मद अली जिन्ना इसकी एक मिसाल थे। सावरकर दूसरी मिसाल थे।

बहरहाल, प्रधानमंत्री की डिग्री के सवाल पर लौटें। प्रधानमंत्री की डिग्री पर क्यों सवाल उठ रहे हैं? क्योंकि इसको लेकर ख़ुद उनकी ओर उनकी पार्टी की ओर से तरह-तरह के बयान आते रहे हैं। कई बार ऐसा लगता है जैसे डिग्रियों को लेकर प्रधानमंत्री या उनके सहयोगियों के मन में कोई कुंठा हो या कुछ साबित करने की चाह हो। काश, ऐसा न होता। बीते 11 साल में प्रधानमंत्री या उसके पहले गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जो कुछ किया, वह उनके मूल्यांकन के लिए काफ़ी है। 

इतिहास जब तटस्थ ढंग से उनका मूल्यांकन करेगा तो उनकी डिग्रियां पीछे छूट जाएंगी। लेकिन फिलहाल यह सवाल वाक़ई उठता रहा है कि आखिर प्रधानमंत्री की डिग्रियों का सच क्या है। जिस एन्टायर पॉलिटिकल साइंस में उनके मास्टर्स करने का दावा किया गया, वह विषय ही संदेह में डालने वाला है। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री का ज़िक्र आने से पहले देश के विश्वविद्यालयों में पॉलिटिकल साइंस तो विषय होता था, एंटायर पॉलिटिकल साइंस का नाम किसी ने नहीं सुना था। हां, यह ज़रूर है कि स्मृति ईरानी ने अलग-अलग चुनावों में डिग्री को लेकर अलग-अलग दावे किए थे जो परस्पर विरोधी थे। इसलिए उनकी डिग्री पर सवाल उठ रहा है।
ताज़ा ख़बरें

तो मामला डिग्री का नहीं है, राजनीतिक समर में सच और झूठ का है। इन दिनों शुचिता की राजनीति की कुछ ज़्यादा बात करने वालों से यह अपेक्षा अस्वाभाविक नहीं है कि वे अपनी पढ़ाई-लिखाई को लेकर भी पूरा सच बोलें। अगर उन्होंने बीए या एमए न भी किया हो तो फ़र्क नहीं पड़ता। जहां तक सिर्फ़ भाषा का सवाल है, स्मृति ईरानी निस्संदेह अच्छी भाषा बोलती हैं और प्रधानमंत्री की भाषा का भी अपना अंदाज़ है- बेशक, इसमें ताक़त और कुछ पूर्वग्रहों की बू कुछ ज़्यादा महसूस होती है।

बहरहाल, अब एक नई फिक्र इस पूरे मामले में मेरे सामने है। केंद्रीय सूचना आयोग एक संवैधानिक संस्था है- वैसी ही जैसे केंद्रीय चुनाव आयोग है। यह सूचना आयोग का आदेश था कि दिल्ली विश्वविद्यालय साल 1978 में बीए पास करने वाले छात्रों की सूचना सार्वजनिक करे। इसी साल प्रधानमंत्री ने भी यह डिग्री हासिल की थी। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस आदेश को दिल्ली हाइकोर्ट में चुनौती दे डाली। 

क़ायदे से दिल्ली विश्वविद्यालय को भी स्वायत्त संस्थान होना चाहिए और उसे ऐसी राजनीति में हिस्सेदार नहीं होना चाहिए- लेकिन वह बनी और फिर हाइकोर्ट ने भी केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश पर रोक लगा दी। एक तरह से यह लोकतांत्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन का नया प्रमाण है। हास्यास्पद बात यह है कि दिल्ली विश्वविद्यालय जिस डिग्री को न दिखाने की बात कर रहा है, उसे गृह मंत्री अमित शाह और दिवंगत नेता अरुण जेटली ने पहले ही सार्वजनिक किया था।

सच है कि यह पूरा विवाद बहुत अशोभनीय है। लेकिन कुछ देर के लिए यह मान लें कि विपक्ष यह विवाद उठा कर निजी हमले की कुत्सित राजनीति का सहारा ले रहा है तो भी इसकी काट क्या है? क्या हाइकोर्ट की रोक के बाद यह विवाद ख़त्म हो जाएगा? अच्छा होता, प्रधानमंत्री बड़ा दिल दिखाते और अपनी डिग्रियों को फिर से सार्वजनिक करने का फ़ैसला कर साबित कर देते कि वाकई उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई की है। हालांकि फिर दुहराने की ज़रूरत है कि इससे फ़र्क नहीं पड़ता। मगर जिस बात से फ़र्क नहीं पड़ता, उसको छुपाने की कोशिश में तीन संस्थाओं- सूचना आयोग, विश्वविद्यालय और हाइकोर्ट- की स्वायत्तता सवालों से घिर गई। 

ख़ास कर सूचना आयोग को लेकर हाइकोर्ट का फ़ैसला तो चौंकाने वाला है। यह बिल्कुल हाल की बात है कि बिहार में मतदाताओं की गहन पुनरीक्षण मुहिम से जुड़ी अर्ज़ी के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की स्वायत्तता का मान रखते हुए आदेश देने की जगह बस सुझाव दिया था कि वह आधार, वोटर कार्ड और राशन कार्ड को भी पहचान का आधार मान सकता है। हाइकोर्ट अपने ही सुप्रीम कोर्ट का बिल्कुल ताज़ा आदर्श भूल गया।

यह सच है कि हमारे ज़्यादातर विश्वविद्यालय वैसे ही बेकार बना दिए गए हैं। वे डिग्रियां बांटने वाले कारख़ाने भर रह गए हैं जहां शिक्षा को छोड़ कर बाक़ी सबकुछ हो रहा है। वहां से बीए या एमए कर लेना बहुत गौरव की बात नहीं है, इसी तरह न कर पाना भी बहुत हेठी की बात नहीं है। बहुत सारे डिग्रीविहीन लोगों ने पढ़े-लिखे लोगों के मुक़ाबले ज़्यादा काम किया है। उन्होंने अपनी डिग्रीविहीनता को छुपाया भी नहीं है। 

विश्लेषण से और खबरें
इसीलिए यह पूछने का मन होता है कि आम तौर पर अपनी हिम्मत का हवाला देने वाले प्रधानमंत्री में क्या इतना आत्मविश्वास नहीं है कि जनता के बीच वे अपनी सही डिग्री रख दें या बता दें कि उनकी दीक्षा जीवन के विश्वविद्यालयों में हुई है जो ज़्यादा मूल्यवान है? या फिर उन्हें डर है कि उनके नए-पुराने उत्तरों में कोई विसंगति दिखी तो एक नया राजनीतिक विवाद खड़ा हो जाएगा?
अभी तो बस अफ़सोस इस बात का है कि दो डिग्रियों की जानकारी छुपाने के चक्कर में कई संस्थानों की डिग्री ख़तरे या संदेह में पड़ गई है।