भारत के स्वतंत्रता संग्राम की कहानी केवल 19वीं और 20वीं शताब्दी तक सीमित नहीं है; इसकी जड़ें 18वीं शताब्दी में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान जैसे नायकों तक जाती हैं। "शेर-ए-मैसूर" टीपू सुल्तानके न केवल अपने साहस और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि आधुनिक रॉकेट तकनीक के शुरुआती विकास में उनके योगदान को भी विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त है। फिर भी, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की कक्षा 8 की सामाजिक विज्ञान की नयी पाठ्यपुस्तक ‘एक्सप्लोरिंग सोसाइटी: इंडिया एंड बियॉन्ड’ से टीपू सुल्तान) का उल्लेख हटा दिया गया है। यह निर्णय सवाल उठाता है: क्या टीपू सुल्तान की जांबाजी और देशप्रेम को नई पीढ़ी तक पहुंचाने में कोई दिक्कत है? क्या यह कर्नाटक में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए टीपू को खलनायक और हिंदू-विरोधी बताने के बीजेपी और आरएसएस के कथित दबाव का परिणाम है?

नासा में टीपू सुल्तान के रॉकेट

अमेरिका के नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के वाशिंगटन मुख्यालय की लॉबी में एक पेंटिंग प्रदर्शित है, जो पोल्लिलूर की लड़ाई (1780) को दर्शाती है। इस युद्ध में टीपू के रॉकेटों ने अंग्रेजों की बारूद गाड़ी को नष्ट कर दिया था, जिससे उनकी सेना में भगदड़ मच गई और ईस्ट इंडिया कंपनी को करारी हार का सामना करना पड़ा। ये रॉकेट लोहे की ट्यूबों में भरे गए थे, जिनमें बारूद और अन्य ज्वलनशील पदार्थ होते थे। बांस के डंडों से स्थिरता प्रदान की जाती थी, और कुछ रॉकेटों में धातु के टुकड़े या नुकीली वस्तुएँ जोड़ी जाती थीं ताकि दुश्मन को अधिक नुकसान हो। इन रॉकेटों ने न केवल भौतिक, बल्कि मनोवैज्ञानिक रूप से भी अंग्रेजों को डरा दिया था।
ताज़ा ख़बरें
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी आत्मकथा 'विंग्स ऑफ फायर’ में लिखा है कि 1962 में नासा के दौरे के दौरान उन्होंने यह पेंटिंग देखी थी। उन्हें गर्व और आश्चर्य हुआ कि धरती के दूसरे छोर पर एक भारतीय शासक की दूरदृष्टि का सम्मान हो रहा है, जबकि भारत में इस तथ्य को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। कलाम ने टीपू को "पहला रॉकेटमैन" कहा और इस अनुभव ने उन्हें भारत के मिसाइल कार्यक्रमों में योगदान देने के लिए प्रेरित किया। टीपू के रॉकेट आधुनिक मिसाइल तकनीक के मूल में हैं, क्योंकि अंग्रेजों ने 1799 में टीपू की शहादत के बाद इन रॉकेटों को इंग्लैंड ले जाकर विकसित किया, जिसके परिणामस्वरूप कॉन्ग्रेव रॉकेट बने, जिनका उपयोग 1812 में नेपोलियन के खिलाफ युद्ध में हुआ।

टीपू सुल्तान का जीवन

टीपू सुल्तान का जन्म 1751 में कर्नाटक के देवनहल्ली में हुआ था। उनके पिता हैदर अली मैसूर के शासक थे, जिन्होंने रॉकेट तकनीक की शुरुआत की थी। टीपू ने इस तकनीक को और विकसित किया। उन्होंने चार एंग्लो-मैसूर युद्धों में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी:
  • प्रथम एंग्लो-मैसूर युद्ध (1767-1769): इस युद्ध में टीपू की भूमिका सीमित थी, लेकिन हैदर अली ने अंग्रेजों, मराठों, और निजाम के गठबंधन को हराया।
  • द्वितीय एंग्लो-मैसूर युद्ध (1780-1784): टीपू ने पोल्लिलूर की लड़ाई में रॉकेटों का उपयोग कर अंग्रेजों को हराया। यह युद्ध मंगलोर की संधि (1784) के साथ समाप्त हुआ।
  • तृतीय एंग्लो-मैसूर युद्ध (1790-1792): टीपू को हार का सामना करना पड़ा, और श्रीरंगपट्टनम की संधि (1792) के तहत मैसूर का आधा हिस्सा और उनके दो बेटों को अंग्रेजों को देना पड़ा।
  • चतुर्थ एंग्लो-मैसूर युद्ध (1799): यह टीपू का अंतिम युद्ध था। 4 मई, 1799 को श्रीरंगपट्टनम में वे शहीद हो गए, और मैसूर पर अंग्रेजों का नियंत्रण हो गया।

टीपू के नवाचार

टीपू सुल्तान न केवल एक योद्धा थे, बल्कि एक दूरदर्शी शासक भी थे। उन्होंने मैसूर के प्रशासन और सेना में कई नवाचार किए:

सैन्य आधुनिकीकरण: फ्रांसीसी विशेषज्ञों की मदद से उनकी सेना में यूरोपीय शैली की पैदल सेना, घुड़सवार सेना, और तोपखाने शामिल थे।

नौसेना: टीपू ने मंगलोर में भारत की पहली संगठित नौसेनाओं में से एक स्थापित की।

आर्थिक सुधार: उन्होंने सड़कों, नहरों, और रेशम उद्योग को प्रोत्साहन दिया, साथ ही विदेशी व्यापार के लिए मिशन भेजे।

भूमि और कर सुधार: टीपू ने भूमि सुधार लागू किए और कर प्रणाली को व्यवस्थित किया।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण: उनकी रॉकेट तकनीक और सैन्य रणनीतियों, जैसा कि उनकी पुस्तक फतह-उल-मुजाहिदीन में वर्णित है, वैज्ञानिक अनुसंधान पर आधारित थीं।

टीपू की विश्वदृष्टि

फ्रांसीसी क्रांति (1789-1799) के आदर्शों—स्वतंत्रता, समानता, और बंधुत्व—ने टीपू को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने 1797 में श्रीरंगपट्टनम में जैकोबिन क्लब की स्थापना की, जो फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरित था। इस क्लब में उनके सैन्य अधिकारी शामिल थे, और उन्होंने खुद को "नागरिक टीपू" (Citizen Tipu) कहलवाना शुरू किया। टीपू ने नेपोलियन बोनापार्ट से 1798 में सैन्य सहायता मांगी और स्वतंत्रता का वृक्ष (Tree of Liberty) लगाया, जो क्रांतिकारी विचारों का प्रतीक था। हालांकि, 1799 के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने इस वृक्ष को संभवतः नष्ट कर दिया, और इसका कोई भौतिक अवशेष आज मौजूद नहीं है।

18वीं शताब्दी में भारत सामाजिक और राजनीतिक गुलामी से जूझ रहा था। पास के त्रावणकोर रियासत में निम्न जाति की महिलाओं को स्तन टैक्स (मुलक्करम) देना पड़ता था, ताकि वे अपने स्तनों को ढक सकें। मराठों की पेशवाशाही में शूद्रों को अपमानजनक नियमों का पालन करना पड़ता था। ऐसे समय में टीपू की स्वतंत्रता और समानता की सोच अद्भुत थी।
विश्लेषण से और खबरें

टीपू और सांप्रदायिक सौहार्द

कर्नाटक में बीजेपी और आरएसएस द्वारा टीपू को हिंदू-विरोधी बताने का अभियान चलाया गया है, लेकिन ऐतिहासिक तथ्य इससे इंकार करते हैं। टीपू ने श्रीरंगपट्टनम, नांजनगुंड, मेल्कोटे, और कोलूर के मंदिरों को दान दिया और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की। 1791 में, जब मराठों ने श्रींगेरी मठ पर हमला किया, तो टीपू ने मठ को आर्थिक सहायता दी और इसकी रक्षा की। उनके दरबार में हिंदू मंत्रियों जैसे पुरनैया (प्रधानमंत्री) और कृष्णराव (वित्त मंत्री) की मौजूदगी थी। उनकी सेना में मधु राव और श्रीनिवास राव जैसे हिंदू सेनापति थे।

टीपू की एक सोने की अंगूठी, जिसमें "राम" नाम लिखा था, सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है। यह अंगूठी, जो उनकी हिंदू पत्नी उन्नीयरचा ने दी थी, 1799 में उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने ले ली और 2014 में लंदन में नीलाम हुई।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस और टीपू

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 1943 में आज़ाद हिंद सरकार के गठन के दौरान टीपू सुल्तान को "शेर-ए-मैसूर" और भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया। आज़ाद हिंद फौज के झंडे में छलांग लगाता बाघ टीपू के प्रतीक से प्रेरित था। नेताजी ने टीपू की वीरता और बलिदान को प्रेरणा स्रोत माना। आज़ाद हिंद फौज का मोटो "इत्तिहाद, इत्माद, कुर्बानी" (एकता, विश्वास, बलिदान) था, जो टीपू की स्वतंत्रता की भावना को प्रतिबिंबित करता था।

विवाद और राजनीति

बीजेपी और आरएसएस ने कर्नाटक में टीपू जयंती का विरोध किया और उन्हें हिंदुओं पर अत्याचार करने वाला बताया। हालांकि, यह दृष्टिकोण ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खाता। मध्यकालीन युद्धों में लूटपाट और सख्ती सामान्य थी, चाहे प्रतिद्वंद्वी किसी भी धर्म का हो। उदाहरण के लिए, मराठों ने टीपू के संरक्षण वाले श्रींगेरी मठ को लूटा, और हैदराबाद का मुस्लिम निजाम टीपू के खिलाफ मराठों के साथ लड़ा। 
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें
रोचक बात यह है कि बीजेपी ने हमेशा टीपू का विरोध नहीं किया। 1970 के दशक में आरएसएस की पुस्तिका ‘भारत भारती’ में टीपू का महिमामंडन किया गया था। 2010 में बीजेपी नेता जगदीश शेट्टियार और अन्य नेताओं ने एक रैली के मंच पर टीपू की तरह पगड़ी पहनी थी। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने भी टीपू की  प्रशंसा की है। यह दर्शाता है कि टीपू को लेकर बीजेपी का रुख स्थायी नहीं, बल्कि राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए बदलता रहता है।

टीपू सुल्तान एक ऐसे शासक थे, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ न केवल लगातार युद्ध लड़े, बल्कि आधुनिक रॉकेट तकनीक, नौसेना, और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से भारत को विश्व मंच पर पहचान दिलाई। एनसीईआरटी द्वारा उनके इतिहास को पाठ्यपुस्तक से हटाना न केवल ऐतिहासिक सत्य को छिपाने की कोशिश है, बल्कि यह नई पीढ़ी को एक प्रेरणादायक नायक की कहानी से वंचित करता है। टीपू सुल्तान की विरासत ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस और एपीजे अब्दुल कलाम जैसे महान व्यक्तित्वों को प्रेरित किया जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम और वैज्ञानिक इतिहास का अभिन्न हिस्सा है। इसे भूलना या विवादों में उलझाना देश के गौरवशाली अतीत को कमजोर करने जैसा है।