दिल्ली विधानसभा के 2013 चुनावों से कुछ समय पहले की बात है। तब की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित सुबह-सुबह किसी एक संपादक से नाश्ते पर मुलाकात किया करती थीं। एक दिन मुझे भी आमंत्रण मिला। राजनीति पर बातें हुईं तो मैंने उनसे कहा कि आजकल दिल्ली के हर ऑटो के पीछे आपकी और अरविंद केजरीवाल की फोटो लगी है। केजरीवाल की फोटो के नीचे ईमानदार और आपकी फोटो के नीचे बेईमान लिखा है। ये सभी पोस्टर आम आदमी पार्टी लगा रही थी। मेरा मानना था कि अगर कोई व्यक्ति अपने आपको ईमानदार कहता है तो किसी को एतराज नहीं होना चाहिए लेकिन वह बिना किसी सबूत के वह दूसरे को बेईमान कैसे कह सकता है? शीला जी इस मामले में अनजान बने रहना चाहती थीं या फिर यह सोचती थीं कि ऐसे आरोपों का खंडन करके या फिर कोई क़ानूनी कार्रवाई करके केजरीवाल को क्यों महत्व दें? 

दरअसल, शीला दीक्षित को ऐसा लगता था कि इस तरह उनका चरित्र हनन करने की केजरीवाल की कोशिशें नाकाम रहेंगी। उन्हें अपने नाम और काम पर विश्वास था लेकिन जब नतीजे आए तो पता चला कि केजरीवाल ने शीला दीक्षित को बेईमान-बेईमान कहकर उनकी प्रतिष्ठा को इतनी ज़्यादा ठेस पहुंचाई थी कि वह केजरीवाल के हाथों ही नई दिल्ली इलाक़े से हार गईं और 15 साल तक राज करने वाली कांग्रेस का आँकड़ा उन चुनावों में आठ पर और उसके बाद के तीन चुनावों में शून्य पर अटक गया।
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केजरीवाल पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे

पिछले विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने केजरीवाल के हथियार से ही केजरीवाल को मात दी। शराब घोटाले से शुरू हुआ सिलसिला कई घोटालों को पार करता हुआ आखिर शीशमहल तक आ पहुंचा। बीजेपी ने आम आदमी पार्टी की 10 साल की सरकार को नाकाम साबित करने से ज्यादा केजरीवाल की व्यक्तिगत इमेज को ठेस पहुंचाई। जो केजरीवाल अपने आपको सबसे ईमानदार और दूसरों को बेईमान कहा करते थे, उनपर ही भ्रष्टाचार का ऐसा कलंक लगा कि अब धुले नहीं धुल रहा। बीजेपी ने दो सालों तक लगातार केजरीवाल को बेईमान साबित करने की मुहिम चलाई और उसे कामयाबी भी मिल गई। शीला दीक्षित की तरह केजरीवाल को भी यही गुमान था कि उन्हें बेईमान कहने से जनता सहमत नहीं होगी लेकिन जनता ने उन्हें हराकर बेईमान का ठप्पा लगा दिया!

लगता है कि केजरीवाल अब अपनी इमेज को लेकर सतर्क हो गए हैं। खासतौर पर पंजाब से राज्यसभा जाने का रास्ता खोलने के बाद भी उन्होंने इरादा बदल लिया और अपने मन को मारकर बैठ गए। यहाँ तक कि उन्होंने मनीष सिसोदिया को भी राज्यसभा न भेजने का फ़ैसला लिया। उन्होंने पंजाब के मशहूर उद्योगपति राजिंदर गुप्ता को राज्यसभा के लिए अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाया है।

24 अक्टूबर को होने वाले इस चुनाव में राजिंदर गुप्ता की जीत निश्चित है। फोर्ब्स के अनुसार उनकी कुल सम्पत्ति 10 हजार करोड़ से भी ज्यादा है और वह पंजाब में सबसे अमीर राजनीतिज्ञों में से एक बन गए हैं।

वैसे, राजिंदर गुप्ता कांग्रेस, अकाली दल—बीजेपी की आंखों के तारे भी रहे हैं लेकिन यह बात काबिलेगौर है कि केजरीवाल सिर्फ उद्योगपतियों को राज्यसभा भेजने के लिए लालायित क्यों रहते हैं। इसके लिए भी उनपर अपने साथ ही आरोप लगाते रहे हैं। खासतौर पर दिल्ली के राज्यसभा चुनावों में उनके कई साथियों ने ऐसे ही आरोप लगाकर उनका साथ छोड़ दिया था जब उन्होंने सुशील गुप्ता और एन.डी. गुप्ता को अपने निकट साथियों के मुक़ाबले तरजीह दी थी।

केजरीवाल खुद राज्यसभा क्यों नहीं जा रहे?

बहरहाल, इस बार उन्होंने राजिंदर गुप्ता को उम्मीदवार बनाने की बजाय खुद उम्मीदवार बनना क्यों पसंद नहीं किया? उसके पीछे सबसे बड़ा कारण तो यही नजर आता है कि लोग यह कहते रहे हैं कि केजरीवाल सत्ता के भूखे हैं और सरकारी सुविधाओं के बिना रह नहीं सकते। उन्होंने अपने आपको ईमानदार आम आदमी बताते हुए नई तरह की राजनीति की जो शुरुआत की थी, वह एक तरह से जनता को भ्रम में डालने की ही कोशिश थी। 

बीजेपी ने शीशमहल के नाम पर केजरीवाल पर जैसे आरोप लगाए और उन्हें यह याद दिलाया कि उन्होंने बंगला, गाड़ी, लाव—लश्कर और सिक्योरिटी न लेने की जो घोषणा की थी, वह तो वास्तव में जनता को धोखे में डालने वाली बातें थीं। अब अगर वह राज्यसभा जाना स्वीकार कर लेते तो कहा जाता कि दिल्ली से हारे तो अब कुर्सी के लिए पंजाब चले गए। उन्होंने एक योजना बनाकर संजीव अरोड़ा से इस्तीफा दिलाया जबकि उनका राज्यसभा का कार्यकाल 2028 तक था। अगर केजरीवाल खुद की बजाय मनीष सिसोदिया को भेजते तो भी ऐसा ही आरोप दोहराया जाता। इसलिए उन्होंने एक उद्योगपति को राज्यसभा भेजकर एक तीर से कई निशाने लगा लिए।
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पंजाब चुनाव पर नज़र

केजरीवाल को यह पता है कि 2027 का पंजाब विधानसभा चुनाव उनके राजनीतिक जीवन के लिए बहुत बड़ा चुनाव होगा। पूरे देश में पांव फैलाने की उनकी मंशा कहीं भी पूरी होती दिखाई नहीं दे रही। दिल्ली से हार के बाद अगर पंजाब से भी बोरिया—बिस्तर समेटना पड़ा तो फिर केजरीवाल की हालत मायावती से भी बुरी हो सकती है। इसीलिए वह अब अपनी इमेज के साथ किसी छेड़छाड़ को बर्दाश्त नहीं कर रहे। वह पहली बार अपनी इमेज को लेकर इतना सतर्क और चिंतित नजर आ रहे हैं। दूध से जलने के बाद अब वह छाछ को भी फूंक मार—मारकर पी रहे हैं। 

पंजाब का चुनाव अब केवल 15 महीने दूर है और हाल में आई बाढ़ ने पंजाब की आप सरकार की चुनौतियों को और भी बढ़ा दिया है। पंजाब को फिर से खड़ा करना आसान नहीं होगा। पंजाब की जनता उन वादों की भी बाट जोह रही है जो 2022 में किए गए थे और अब तक पूरे नहीं हुए। यह सच है कि बीजेपी ने तमाम कांग्रेसियों को शामिल करके भी ज्यादा प्रभाव नहीं बनाया और अकाली दल तो मरणासन्न हालत में ही है। पंजाब कांग्रेस भी आपसी गुटबाजी से उबर नहीं पा रही लेकिन दिल्ली की हार का बोझ लेकर दोबारा पंजाब जीतना केजरीवाल के लिए भी आसान चुनौती नहीं है। जनता अगर बदलाव का फैसला कर लेती है तो फिर बीमार विपक्ष में भी नई जान आ जाती है। इसीलिए केजरीवाल चाहते हुए भी राज्यसभा नहीं जा सके।