विपक्ष की सरकारों में तोड़फोड़ के लिए कुख्यात हो चुकी बीजेपी के हाथ में अब एक नया शस्त्र लग सकता है। लोकसभा में बुधवार यानी 20 अगस्त को तीन ऐसे बिल पेश किये गये जिनके पास होने के बाद किसी भी विपक्ष के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों पर तलवार लटकी रहेगी। इन विधेयकों के तहत, अगर कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री लगातार 30 दिन तक जेल में रहता है, तो उसे अपने पद से हटना पड़ सकता है। कहने को इसमें प्रधानमंत्री भी हैं लेकिन किस एजेंसी में इतनी हिम्मत है कि वह प्रधानमंत्री को गिरफ्तार करे? विपक्ष को आशंका है कि यह अगर क़ानून बन गया तो विपक्षी सरकारों को गिराने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल किया जाएगा। ख़ासतौर पर अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन के साथ किये गये सुलूक के बाद ऐसी आशंकाएँ अस्वाभाविक भी नहीं हैं।

विधेयकों में क्या है?

भारतीय राजनीति में भूचाल ला सकने वाले ये विधेयक हैं:

गवर्नमेंट ऑफ यूनियन टेरिटरीज (संशोधन) बिल 2025:
केंद्र शासित प्रदेशों में गवर्नमेंट ऑफ यूनियन टेरिटरीज एक्ट, 1963 के तहत अभी कोई ऐसा प्रावधान नहीं है, जो गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार मुख्यमंत्री या मंत्री को हटाने की व्यवस्था करता हो। इस बिल के जरिए धारा 45 में संशोधन कर ऐसा कानूनी ढांचा बनाया जा रहा है।
130वां संविधान संशोधन बिल 2025:
संविधान में अभी कोई प्रावधान नहीं है, जो गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, या राज्यों व दिल्ली के मुख्यमंत्री या मंत्रियों को हटाने की व्यवस्था देता हो। इस बिल के जरिए अनुच्छेद 75, 164 और 239AA में संशोधन कर ऐसा ढांचा तैयार किया जा रहा है।
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) बिल 2025:
जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 में भी गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार मुख्यमंत्री या मंत्री को हटाने का प्रावधान नहीं है। इस बिल के जरिए धारा 54 में संशोधन कर 30 दिन की हिरासत के बाद हटाने का नियम लाया जा रहा है।

विधेयकों का मक़सद?

इन विधेयकों का उद्देश्य यह है कि अगर कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री किसी ऐसे अपराध के लिए 30 दिन तक हिरासत में रहता है, जिसकी सजा 5 साल या उससे अधिक हो, तो उसे 31वें दिन अपने पद से इस्तीफा देना होगा। अगर वह ऐसा नहीं करता, तो उसकी कुर्सी स्वतः चली जाएगी। केंद्र शासित प्रदेशों, जैसे जम्मू-कश्मीर और दिल्ली में, अगर मुख्यमंत्री 31वें दिन तक सलाह नहीं देता, तो लेफ्टिनेंट गवर्नर उसे हटा सकता है।

सरकार का दावा है कि ये विधेयक संवैधानिक नैतिकता और सुशासन को बढ़ावा देंगे। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? इन विधेयकों की खास बात यह है कि ये आरोप लगने पर कार्रवाई की बात करते हैं, न कि दोष सिद्ध होने पर। यानी, अगर किसी पर आरोप लगे, उसे गिरफ्तार कर जेल भेजा जाए तो 30 दिन बाद उसकी कुर्सी चली जाएगी। लेकिन क्या यह इतनी बड़ी समस्या है कि इसके लिए कानून बदलना पड़े? 

क्या भारत में ऐसे कई मुख्यमंत्री रहे हैं, जो जेल में रहते हुए पद पर बने रहे? परंपरा तो यही रही है कि गिरफ्तारी के बाद अधिकांश नेताओं ने इस्तीफा दे दिया। एकमात्र अपवाद हैं- अरविंद केजरीवाल।

अरविंद केजरीवाल केस

21 मार्च 2024 को दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने दिल्ली शराब नीति घोटाले में गिरफ्तार किया। उन पर आरोप था कि उनकी सरकार ने 2021-22 की शराब नीति में निजी विक्रेताओं को लाभ पहुंचाने के लिए 100 करोड़ रुपये की रिश्वत ली। ED ने दावा किया कि इस पैसे का इस्तेमाल AAP ने चुनावों में किया। केजरीवाल ने इसे “राजनीतिक साजिश” करार दिया और जेल से ही सरकार चलाने की कोशिश की, जिस पर खूब विवाद हुआ।

केजरीवाल का मानना था कि उन्हें गलत फंसाया गया। कई महीने जेल में रहने के बाद, 12 जुलाई 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें ED मामले में जमानत दी और टिप्पणी की:


“ED की गिरफ्तारी की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है। PMLA की धारा 19 के तहत गिरफ्तारी के लिए ठोस सबूतों की जरूरत होती है, न कि केवल संदेह के आधार पर।”

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि लंबी हिरासत और मुकदमे में देरी संदिग्ध लगती है, खासकर जब आरोपी एक निर्वाचित नेता हो। बाद में 13 सितंबर 2024 को CBI मामले में भी केजरीवाल को जमानत मिली। सुप्रीम कोर्ट ने CBI की गिरफ्तारी पर सवाल उठाते हुए कहा:

“CBI ने गिरफ्तारी के लिए विशिष्ट कारण नहीं दिखाए। केवल संदेह के आधार पर हिरासत CrPC और संवैधानिक सिद्धांतों के खिलाफ है।”
जमानत के कुछ दिन बाद 17 सितंबर 2024 को केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, यह कहते हुए कि वह जनता की अदालत में अपनी बेगुनाही साबित करेंगे। लेकिन इस पूरे प्रकरण का असर यह हुआ कि फ़रवरी 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में AAP हार गई, और BJP की सरकार बनी। केंद्र में भी BJP सत्ता में है, लेकिन शराब घोटाले का मामला ठंडा पड़ गया। सवाल उठता है- क्या इसका मकसद सिर्फ सरकार बनाना था?

हेमंत सोरेन: एक और उदाहरण

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का मामला भी कुछ ऐसा ही है। 31 जनवरी 2024 को ED ने उन पर मनी लॉन्ड्रिंग और जमीन घोटाले का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया। सोरेन ने इसे BJP की साजिश बताया। हैरानी की बात यह है कि उनकी गिरफ्तारी राजभवन में हुई, जब वे राज्यपाल को इस्तीफा देने गए थे। ED ने दावा किया कि सोरेन ने रांची में 8.86 एकड़ जमीन अवैध रूप से हासिल की। लेकिन 28 जून 2024 को झारखंड हाई कोर्ट ने उन्हें जमानत देते हुए ED पर कड़ी टिप्पणी की:

“ED के पास कोई ठोस सबूत नहीं है कि हेमंत सोरेन ने कथित अपराध किया। बरामद दस्तावेजों में न तो सोरेन का नाम है और न ही उनके परिवार का।”
हाई कोर्ट की टिप्पणी से साफ़ है कि सोरेन के ख़िलाफ़ साज़िश रची गई। विपक्ष का आरोप है कि खनिज संपदा से समृद्ध झारखंड पर BJP के करीबी कॉरपोरेट घरानों की नजर थी। लेकिन जनता ने विपक्ष का साथ दिया, और विधानसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन की जीत के बाद हेमंत सोरेन फिर से मुख्यमंत्री बने।

क़ानून या साजिश का हथियार?

इन उदाहरणों से साफ है कि विपक्ष क्यों इन नए विधेयकों से सशंकित है। खासकर, प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (PMLA), नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंस एक्ट (NDPS), और अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट (UAPA) जैसे कानूनों का दुरुपयोग संभव है। इनके तहत जमानत बेहद मुश्किल है और जांच एजेंसियों को व्यापक शक्तियां मिली हैं। PMLA की धारा 45, NDPS की धारा 37 और UAPA की धारा 43D(5) जमानत को लगभग असंभव बनाती हैं। इनका इस्तेमाल कर किसी भी निर्वाचित नेता का राजनीतिक करियर तबाह किया जा सकता है।
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2023 में लागू भारतीय न्याय संहिता ने पुलिस हिरासत की अवधि को 15 से 90 दिन तक बढ़ा दिया। यानी, किसी मुख्यमंत्री या मंत्री को 30 दिन से ज्यादा हिरासत में रखना मुश्किल नहीं। नए विधेयकों में बिना दोष सिद्ध हुए हिरासत के आधार पर पद से हटाने का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 75 और 164 को प्रभावित कर सकता है। ये अनुच्छेद कहते हैं कि मंत्री तब तक पद पर रहते हैं, जब तक उन्हें राष्ट्रपति या राज्यपाल की मर्जी हासिल है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने SR बोम्मई बनाम भारत सरकार (1994) जैसे मामलों में स्पष्ट किया कि यह “मर्जी” मनमानी नहीं हो सकती। फिर भी, बिना दोष सिद्ध हुए हिरासत को आधार बनाना “न्याय से पहले सजा” के सिद्धांत को चुनौती देता है।

ये विधेयक अगर कानून बनते हैं तो विपक्षी नेताओं को हटाने और उनकी सरकारों को अस्थिर करने का हथियार बन सकते हैं। केजरीवाल और सोरेन के मामलों से साफ़ है कि जांच एजेंसियों का दुरुपयोग पहले भी हो चुका है। विपक्ष इन विधेयकों को संसद में रोकने की पूरी कोशिश करेगा, क्योंकि यह सिर्फ़ कानून का सवाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र और संवैधानिक सिद्धांतों का सवाल है। आरोप लगते ही सजा देना इंसाफ नहीं, साजिश कहलाएगा।