20 सितंबर 2025 को डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्रुथ सोशल पर एक ऐसी धमकी दी, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया। उन्होंने लिखा, “अगर अफगानिस्तान हमें बगराम एयरबेस वापस नहीं देगा, जो हमने बनाया, तो बहुत बुरा होगा!” यूनाइटेड किंगडम की एक रैली में ट्रंप ने और जोश दिखाया, “हम बगराम वापस लेंगे, क्योंकि तालिबान को हमारी जरूरत है!” यह बयान कोई साधारण धमकी नहीं; यह एक ऐसी कहानी का ट्रेलर है, जो अभी से बारूदी गंध छोड़ रहा है। ऐसा लगता है कि अमेरिका अफगानिस्तान में वापसी की तैयारी कर रहा है।

बगराम का महत्व

बगराम एयरबेस, काबुल से 60 किलोमीटर दूर परवान प्रांत में बसा, अफगानिस्तान का सबसे बड़ा सैन्य हवाई अड्डा है। इसका महत्व सिर्फ हवाई पट्टी होने में नहीं है, यह दक्षिण और मध्य एशिया के बीच में एक बड़ी रणनीतिक चौकी है। 1950 के दशक में सोवियत यूनियन ने इसे बनाया था जब शीत युद्ध की होड़ में हर कोई अफगानिस्तान में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता था। 1979 में सोवियत यूनियन की सेना ने अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर दी, ताकि वहां की कम्युनिस्ट सरकार को बचाया जा सके। यह उसकी सबसे बड़ी भूल थी।

अफगान मुजाहिदीनों ने पहाड़ों से गुरिल्ला युद्ध छेड़ा, और अमेरिका ने उनकी मदद की। CIA ने स्टिंगर मिसाइलें, अरबों डॉलर के हथियार, और पाकिस्तान के रास्ते ट्रेनिंग दी। नतीजा? 1989 में सोवियत सेना को वापस लौटना पड़ा। इस बीच अफगानिस्तान तबाह हो गया। 1990 के दशक में बगराम तालिबान और नॉर्दर्न अलायंस की जंग का मैदान बना। फिर 9/11 के हमलों ने कहानी को नया मोड़ दिया।
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9/11 और अमेरिका की एंट्री

11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमलों ने दुनिया को हिलाकर रख दिया। यह हमला अलकायदा ने कराया था जिसका ठिकाना अफगानिस्तान में था। तालिबान ने ओसामा बिन लादेन को सौंपने से इनकार कर दिया। नतीजतन, अमेरिका ने नाटो के साथ मिलकर अफगानिस्तान पर हमला बोला और बगराम पर कब्जा कर लिया। यह बेस अमेरिका का किला बन गया—77 वर्ग किलोमीटर में रनवे, अस्पताल, और यहाँ तक कि बर्गर किंग का आउटलेट भी था! दो दशक तक अमेरिका ने यहाँ से आतंकवाद के खिलाफ अपनी जंग लड़ी।

लेकिन 2020 में ट्रंप ने दोहा समझौता किया, जिसके तहत 2021 तक सभी अमेरिकी सैनिक वापस बुला लिये गये। 2 जुलाई 2021 को बगराम खाली हुआ, और 15 अगस्त को तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया। तत्कालीन अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन ने कहा, “बगराम को बनाये रखने के लिए 5,000 सैनिकों को जोखिम में डालना पड़ता, जो संभव नहीं था।” लेकिन अब ट्रंप बगराम को फिर से हासिल करना चाहते हैं। सवाल है—क्यों?

बगराम का रणनीतिक महत्व

बगराम सिर्फ एक एयरबेस नहीं, बल्कि यह काबुल, कंधार, और बामियान की निगरानी की चौकी भी है। सबसे बड़ी बात, यह चीन के शिनजियांग प्रांत से सिर्फ 800 किलोमीटर दूर है। ट्रंप का दावा है कि यह “चीन के न्यूक्लियर साइट्स से एक घंटे की दूरी पर है,” हालांकि चीन का लोप नूर टेस्ट साइट 2,000 किलोमीटर दूर है जहाँ 1964 में पहला परमाणु परीक्षण हुआ था। फिर भी, बगराम से अमेरिका चीन, ईरान, और सेंट्रल एशिया पर नजर रख सकता है।

ट्रंप की शिकायत है कि बाइडेन ने बगराम “फ्री में” दे दिया। उनको डर यह है कि अगर तालिबान ने यह बेस चीन को सौंप दिया, तो अमेरिका की साख दांव पर लग जाएगी।

चीन वहां से अपनी न्यूक्लियर गतिविधियों की निगरानी करेगा, BRI (बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव) को बढ़ावा देगा, और खुफिया जानकारी जुटाएगा। यह अमेरिका के लिए सियासी और रणनीतिक झटका होगा।

तालिबान का जवाब

तालिबान ने ट्रंप की धमकी को ठुकरा दिया। उनके विदेश मंत्रालय के अधिकारी जाकिर जलाली ने कहा, “अफगानिस्तान ने इतिहास में कभी विदेशी सैन्य उपस्थिति को स्वीकार नहीं किया। दोहा समझौते में इसे पूरी तरह नकारा गया था।” लेकिन तालिबान ने संवाद का दरवाजा खुला रखा है। यह दिखाता है कि अफगानिस्तान को साम्राज्यों की कब्र कहा जाता है—सोवियत और अमेरिका दोनों को यहां से जख्मी होकर लौटना पड़ा।
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चीन और तालिबान की दोस्ती

चीन ने 2023 में तालिबान को मान्यता देकर सबसे पहले राजदूत भेजा। इसके पीछे दो कारण हैं—पहला, शिनजियांग में उइगर विद्रोह का डर। तालिबान ने वादा किया कि उनकी जमीन से चीन के खिलाफ कोई हमला नहीं होगा। दूसरा, अफगानिस्तान के $1 ट्रिलियन के खनिज भंडार—लिथियम, कॉपर, गोल्ड।

चीन का BRI अफगानिस्तान से होकर गुजरता है। चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) को अफगानिस्तान से जोड़कर ग्वादर पोर्ट से सेंट्रल एशिया तक रास्ता बनाना इसका मकसद है। 2016 में चीन-अफगान BRI डील हुई, और तालिबान इसका समर्थन करता है। अगर बगराम चीन के हाथ लगा, तो BRI की रफ्तार बढ़ेगी, जो अमेरिका के लिए बुरी खबर है क्योंकि यह चीनी की आर्थिक ताक़त को कई गुना बढ़ा देगा।
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ट्रंप की धमकी का असर

ट्रंप की धमकी ने भू-राजनीति में नया तनाव पैदा कर दिया। चीन ने जवाब दिया, “हम अफगानिस्तान की संप्रभुता का सम्मान करते हैं। तनाव भड़काना गलत है।” अगर तालिबान सख्त हुआ, तो ISIS-K जैसे आतंकी समूह फिर सक्रिय हो सकते हैं। रूस और ईरान भी नाराज होंगे। ट्रंप का मकसद साफ है—बगराम लेकर सेंट्रल एशिया में अमेरिका की पकड़ मजबूत करना। पुरानी कहावत है, “जो सेंट्रल एशिया को कंट्रोल करता है, वह यूरेशिया को कंट्रोल करता है।” इससे पाकिस्तान का प्रभाव भी कम होगा, जो अभी अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बनाए हुए है।

भारत के लिए क्या मायने?

भारत के लिए यह स्थिति दोधारी तलवार है। फायदा यह कि अमेरिका की वापसी से चीन पर लगाम लगेगी, खासकर लद्दाख और अरुणाचल में उसकी हरकतों पर। BRI का विस्तार रुकेगा। लेकिन खतरा भी है—अफगानिस्तान में अस्थिरता बढ़ी, तो शरणार्थी संकट और आतंकवाद का डर बढ़ेगा। भारत ने तालिबान को मान्यता नहीं दी, लेकिन चाबहार पोर्ट के जरिए अफगानिस्तान को मदद देता है, ताकि मध्य एशिया तक पहुंच बन सके। अगर अमेरिका और तालिबान में टकराव हुआ, तो भारत को सावधानी से कदम उठाने होंगे।