दिल्ली हिंसा की साज़िश रचने के आरोप में पाँच साल से जेल में बंद उमर ख़ालिद और अन्य आरोपितों को ज़मानत न मिलना न्यायपालिका के रवैये पर गंभीर सवाल उठा रहा है। आमतौर पर  न्याय व्यवस्था में जमानत को नियम और जेल को अपवाद माना जाता है, लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट को महज़ आरोपों के कारण नौजवानों का पाँच साल से जले में रहना बिल्कुल भी नहीं अखर रहा है। दिल्ली हाईकोर्ट ने ज़मानत अर्ज़ी ख़ारिज करते हुए जो कुछ कहा है, उससे लगता है कि अब सरकार के विरोध में प्रदर्शन सरकार की इजाज़त से ही हो सकते हैं। इस मामले में दिल्ली पुलिस का दोहरा रवैया भी साफ़ है जिसने ऐसे ही आरोप में फँसे भाजपा नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई में कोई रुचि नहीं दिखायी।

याचिका ख़ारिज

2020 में सीएए के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन की पृष्ठभूमि में भड़की या भड़काई गयी हिंसा में 53 लोग मारे गये, सैकड़ों घायल हुए, और करोड़ों की संपत्ति नष्ट हुई। दिल्ली पुलिस ने इसे एक सुनियोजित साजिश करार दिया और उमर ख़ालिद को इसका मास्टरमाइंड बताया जबकि उमर दिल्ली में मौजूद नहीं थे। इसके साथ ही शरजील इमाम, गुलफिशा फातिमा, खालिद सैफी, और अन्य पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत मुकदमा दर्ज किया। पुलिस का दावा है कि इन लोगों ने भड़काऊ भाषण दिये और व्हाट्सएप ग्रुप्स के जरिए हिंसा की साजिश रची। पाँच साल से बिना बेल के जेल में रहना सामान्य नहीं था। इसे लेकर सिविल सोसायटी में काफ़ी हलचल देखी जा रही थी।
 
लेकिन 2 सितंबर 2025 को दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस शलिंदर कौर ने उमर खालिद सहित नौ आरोपियों की जमानत याचिकाएं खारिज कर दीं। कोर्ट ने कहा कि उनकी भूमिका "पहली नजर में गंभीर" है और साक्ष्य हिंसा की साजिश की ओर इशारा करते हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि मुकदमे की प्रक्रिया स्वाभाविक गति से चल रही है, और जल्दबाजी में सुनवाई ‘दोनों पक्षों’ के लिए नुकसानदायक हो सकती है। यानी पाँच साल जेल में रखने के बावजूद अदालत को राहत देना जल्दबाज़ी लग रही है।
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अदालत ने यह भी कहा कि नागरिकों को विरोध प्रदर्शन की इजाज़त है लेकिन हिंसा के षड्यंत्र की इजाज़त नहीं दी जा सकती। इसका यह अर्थ हुआ कि अब विरोध प्रदर्शन वही हो सकते हैं जिन पर सरकार को आपत्ति न हो। पुलिस का रिकार्ड बताता है कि उसने न जाने कितने लोगों पर हिंसा के षड्यंत्र का आरोप लगाकर जेल में रखा और दशकों बाद वे बेगुनाह साबित हुए। पुलिस राज्य का ही एक अंग है, यह बात छिपी हुई नहीं है।

याचिका पर हुई बहस के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलील थी कि ‘यदि कोई राष्ट्र के खिलाफ काम करता है, तो उसे बरी या दोषी ठहराए जाने तक जेल में रहना चाहिए।’ यह बयान विरोधाभासी है, क्योंकि यह पहले से ही अभियुक्तों को दोषी मान लेता है। तुषार मेहता की नज़र में उमर और अन्य लोगों ने राष्ट्र के ख़िलाफ़ काम किया है। लेकिन बरी होने की संभावना से इंकार भी नहीं कर रहे हैं। ऐसे में तो ज़मानत ज़रूर मिलनी चाहिए थी क्योंकि जमानत का प्रावधान ही बिना फ़ैसला हुए आरोपितों को जेल में रखने से बचाना है।

सीएए का मुद्दा

नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) दिसंबर 2019 में संसद द्वारा पारित किया गया, जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आए हिंदू, सिख, जैन, पारसी, बौद्ध और ईसाई शरणार्थियों को, जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हैं, तेजी से नागरिकता देने की प्रक्रिया को आसान करता है। इस कानून में मुस्लिम शरणार्थियों को शामिल नहीं किया गया, जिसे भेदभावपूर्ण माना गया। आलोचकों का कहना है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, जो सभी के लिए समानता की गारंटी देता है। 

सीएए के खिलाफ देशभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए, खासकर दिल्ली के शाहीन बाग में, जहां महिलाओं ने महीनों तक धरना दिया। प्रदर्शनकारियों का डर था कि सीएए और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के साथ मिलकर मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाया जा सकता है।

एनआरसी के तहत सभी को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी, और जो ऐसा नहीं कर पाएंगे, उन्हें अवैध घोषित किया जा सकता है। सीएए गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता का रास्ता देता है, जिससे मुस्लिमों को हिरासत में लिए जाने का डर पैदा हुआ। 

सीएए को 10 जनवरी 2020 से लागू कर दिया गया, लेकिन इसके नियमों को अधिसूचित करने में देरी हुई। मार्च 2024 में केंद्र सरकार ने नियमों को अधिसूचित किया, जिसके बाद गैर-मुस्लिम शरणार्थियों के लिए नागरिकता प्रक्रिया शुरू हुई। हालांकि, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने इसे लागू करने से इनकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट में सीएए की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली 60 से अधिक याचिकाएं लंबित हैं।

बीजेपी नेताओं पर आरोप

दिल्ली दंगों में बीजेपी नेता कपिल मिश्रा पर हिंसा भड़काने का आरोप है। 23 फरवरी 2020 को जाफराबाद में उनके भड़काऊ भाषण के बाद हिंसा भड़क उठी। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट ने मिश्रा को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया। बीजेपी नेता प्रवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर पर भी भड़काऊ बयानों के आरोप लगे। लेकिन पुलिस ने कोई एफआईआर नहीं दर्ज की।
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1 अप्रैल 2025 को राउज़ एवेन्यू कोर्ट ने मोहम्मद इलियास की याचिका पर कपिल मिश्रा के खिलाफ FIR दर्ज करने का आदेश दिया। कोर्ट ने कहा कि उनकी मौजूदगी और प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध की जांच जरूरी है। हालांकि, 9 अप्रैल 2025 को दूसरी कोर्ट ने इस जांच पर रोक लगा दी, बीजेपी नेताओं के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई न होना पक्षपात के आरोपों को बल देता है।

जस्टिस मुरलीधर का तबादला

जस्टिस एस. मुरलीधर, दिल्ली हाई कोर्ट के वरिष्ठ जज, का तबादला 26 फरवरी 2020 की रात पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में कर दिया गया था। यह तबादला दिल्ली दंगों से जुड़ी एक याचिका की सुनवाई के बीच हुआ, जिसमें जस्टिस मुरलीधर ने कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर, और प्रवेश वर्मा के भड़काऊ भाषणों पर FIR न दर्ज करने के लिए दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई थी। उन्होंने मिश्रा का वीडियो कोर्ट में चलवाने का आदेश दिया था। 

आधिकारिक तौर पर तबादला प्रशासनिक बताया गया, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने 12 फरवरी 2020 को इसकी सिफारिश की थी। लेकिन इसकी टाइमिंग ने सवाल खड़े किए।

सिविल सोसाइटी की प्रतिक्रिया

जमानत याचिकाएं खारिज होने पर सिविल सोसाइटी में तीखी प्रतिक्रिया देखी गई। मशहूर कार्टूनिस्ट मंजुल और सतीश आचार्य ने अपने कार्टूनों में न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाए। मंजुल ने दिखाया कि न्याय की देवी से तराजू छूट चुका है, जबकि सतीश आचार्य ने कहा कि जज कानून को भूल चुके हैं। हर्ष मंदर ने उमर खालिद जैसे युवाओं को बिना सबूत जेल में रखने को लोकतंत्र पर धब्बा बताया। रामचंद्र गुहा ने इसे "न्याय का मजाक" करार दिया। 

2022 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन लोकुर की अध्यक्षता वाली कमेटी ने दिल्ली दंगों की जांच पर सवाल उठाये थे। रिपोर्ट में कहा गया था कि पुलिस के सबूत बाद में दर्ज बयानों पर आधारित हैं और उनमें विरोधाभास हैं। जस्टिस लोकुर ने एक सेमिनार में भी कहा था कि उमर खालिद की जमानत याचिका को 13 बार स्थगित किया गया, और उनके वकीलों को पहले से ही फैसले का अंदाजा था। 
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निशाने पर मुस्लिम?

दिल्ली हिंसा में अधिकतर मृतक मुस्लिम थे, लेकिन गिरफ्तारियां भी मुस्लिम समुदाय से ज्यादा हुईं। UAPA का इस्तेमाल खासतौर पर मुस्लिम कार्यकर्ताओं को दबाने के लिए होने का आरोप है। दिल्ली पुलिस ने उमर खालिद के "इंकलाबी सलाम" जैसे शब्दों को हिंसा की साजिश से जोड़ा, जबकि उनके अमरावती भाषण में उन्होंने गांधीवादी अहिंसा और शांतिपूर्ण विरोध की बात की थी। 

इस पूरे मामले में सरकार और पुलिस का रवैया मुस्लिमों को अलगाव में डालने का है। यह साबित करता है कि अगर मुस्लिमों ने अपने हक़ अधिकार के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन भी किया तो उन्हें बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। मुस्लिमों को अलगाव में डालना, उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझना आरएसएस और बीजेपी की वैचारिकी का आधार है, लेकिन शायद वे नहीं जानते कि इससे भारतीय लोकतंत्र निराधार हो रहा है। भारतीय न्यायपालिका से उम्मीद की जाती है कि वह भारत को इस ख़तरे से बचाये।