भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में जाति एक ऐसा मुद्दा है, जो न केवल सामाजिक संरचना को प्रभावित करता है, बल्कि राजनीतिक रणनीतियों को भी गढ़ता है। हाल ही में उत्तर प्रदेश में जातिगत रैलियों पर रोक और केंद्र सरकार द्वारा जाति जनगणना की मंजूरी जैसे फैसलों ने इस बहस को और तीव्र कर दिया है। सवाल ये है कि क्या ये कदम सामाजिक सुधार की दिशा में हैं, या बीजेपी के लिए एक राजनीतिक सुरक्षा कवच, जो राहुल गाँधी की जाति जनगणना और अखिलेश यादव की पीडीए राजनीति में घिरी हुई है। सवाल ये भी है कि जाति प्रथा को बनाये रखते हुए सिर्फ़ उसके शक्ति प्रदर्शन पर रोक का हासिल क्या होगा? क्या यह कथित रूप से पिछड़ी कही जाने वाली जातियों की दावेदारी रोकने का एक प्रयास है?
यूपी में जातिगत रैलियों पर रोक: सामाजिक सुधार या बीजेपी का डर?
- विश्लेषण
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- 23 Sep, 2025

उत्तर प्रदेश में जातिगत रैलियों पर लगी रोक को लेकर सियासत गरमाई। क्या यह सामाजिक सुधार की पहल है या बीजेपी का राजनीतिक डर?
हाईकोर्ट का आदेश
21 सितंबर 2025 को उत्तर प्रदेश के कार्यवाहक मुख्य सचिव दीपक कुमार ने एक आदेश जारी किया, जिसमें सभी जिला मजिस्ट्रेटों, सिविल सेवकों और पुलिस प्रमुखों को जातिगत आधार पर रैलियों को तत्काल प्रभाव से रोकने का निर्देश दिया गया था। इसके साथ ही, पुलिस रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख बंद करने और सार्वजनिक स्थानों पर जाति-आधारित चिह्नों, वाहनों पर स्टिकर या स्लोगन हटाने का आदेश भी शामिल था। यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस विनोद दिवाकर के 16 सितंबर 2025 के आदेश का परिणाम था।