भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में जाति एक ऐसा मुद्दा है, जो न केवल सामाजिक संरचना को प्रभावित करता है, बल्कि राजनीतिक रणनीतियों को भी गढ़ता है। हाल ही में उत्तर प्रदेश में जातिगत रैलियों पर रोक और केंद्र सरकार द्वारा जाति जनगणना की मंजूरी जैसे फैसलों ने इस बहस को और तीव्र कर दिया है। सवाल ये है कि क्या ये कदम सामाजिक सुधार की दिशा में हैं, या बीजेपी के लिए एक राजनीतिक सुरक्षा कवच, जो राहुल गाँधी की जाति जनगणना और अखिलेश यादव की पीडीए राजनीति में घिरी हुई है। सवाल ये भी है कि जाति प्रथा को बनाये रखते हुए सिर्फ़ उसके शक्ति प्रदर्शन पर रोक का हासिल क्या होगा? क्या यह कथित रूप से पिछड़ी कही जाने वाली जातियों की दावेदारी रोकने का एक प्रयास है?