हल्द्वानी में बछड़े का सर मिलने पर हंगामा।
नैनीताल ज़िले में आने वाला हल्द्वानी उत्तराखंड के कुमायूँ क्षेत्र का प्रवेश द्वार है। लेकिन बीते कुछ दिनों से यह प्रवेश द्वार आग से घिरा हुआ है। एक अफ़वाह के चलते 16 नवंबर 2025 की रात को यहाँ उन्माद फैल गया। हल्द्वानी में, बनभूलपुरा इलाके के एक स्कूल के गेट पर – जो एक मंदिर के पास है – बछड़े का सिर मिलने की अफवाह फैली। ये अफवाह इतनी तेजी से फैली कि एक भड़की हुई भीड़ ने अल्पसंख्यक समुदाय की संपत्तियों पर हमला बोल दिया। रेस्टोरेंट से लेकर दुकानों तक में तोड़फोड़ की गयी। पथराव करके गाड़ियाँ तोड़ी गयीं। राहगीरों पर हमले हुए। मारो-मारो के नारे लगे।
ज़ाहिर है, निशाने पर मुस्लिम समुदाय के लोग थे। मान लिया गया कि उन्होंने गोवंश को मारा होगा। मारपीट करने वालों को कोई डर नहीं था। पुलिस ने सबकुछ हो जाने के बाद एक्शन लिया और चालीस-पचास अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर लिया।
लेकिन प्रारंभिक जाँच से जो सामने आया वह शर्मिंदा करने वाला है।
एसपी क्राइम जगदीश चंद्रा ने बताया कि CCTV फुटेज से पता चला कि एक कुत्ता जंगल की तरफ से लाश खींच लाया था – प्रारंभिक जांच में ये सामने आया कि जानवर ने जंगल में बच्चा दिया था, मौत हो गई, और अवशेष बाहर घसीटे गए। फॉरेंसिक जांच के लिए भेजा गया है।
कुत्ते की वजह से हो सकता है हंगामा?
यानी एक कुत्ता जब चाहे उत्तराखंड में आग लगा सकता है। क्या इंसानों के पास इतनी सहज बुद्धि भी नहीं बची कि किसी भी अपराध की जाँच होने का इंतज़ार करें और अगर कोई अपराधी हो तो उसे अदालत सज़ा दे। किसी भी अफ़वाह पर भीड़ का इस तरह से उन्माद में डूब जाना क्या स्वाभाविक लगता है या फिर यह राज्य को लगातार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में बनाये रखने की साज़िश है? यह कोई आरोप भर नहीं है, सूबे की बीजेपी सरकार के तमाम मंत्री और नेता भी ऐसी बयानबाज़ी करते ही रहते हैं जिससे तनाव बढ़े। उत्तराखंड में एक भीड़ पैदा कर दी गयी है जो जब चाहे तब क़ानून-व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेती है। नैनीताल हाईकोर्ट भी सूबे की क़ानून व्यवस्था पर कई बार सवाल उठा चुका है। लेकिन ऐसा लगता है कि बीजेपी की पुष्कर धामी सरकार को राजनीतिक फ़ायदे के लिए यही रास्ता रास आ रहा है। ये संयोग नहीं है कि बीते दस सालों में यह राज्य सांप्रदायिक घटनाओं के लिए चर्चित हो रहा है जो यहाँ की पहचान नहीं थी। जिस भी घटना में मुमकिन हुआ, सांप्रदायिक ऐंगल देकर उसे भड़काया गया। कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं पर नज़र डालिए:
- 2016— अप्रैल में देहरादून में मस्जिद पर हमला और दुकानों में आग लगाई गयी। 20 से ज़्यादा घायल, 50 गिरफ्तार।
- दिसंबर में हिंदू संगठनों ने मुस्लिम दुकानदारों के बहिष्कार का आह्वान किया जिससे तनाव फैला। ज्वालापुर में तनाव के दौरान तीस लोग हिरासत में लिये गये।
- 2022- जून में उत्तरकाशी के बड़कोट में मुस्लिमों पर हमला – हिंदू दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं ने "लव जिहाद" के आरोप में दुकानें तोड़ीं। 200 से ज्यादा गिरफ्तारियाँ हुईं और इलाके में कर्फ्यू लगाया गया। ये घटना चुनावी साल में ध्रुवीकरण का हिस्सा बनी।
- 2023- मई में पुरोला (उत्तरकाशी) कांड – 14 साल की हिंदू लड़की के अपहरण के आरोप में दो मुस्लिम युवकों पर केस। भीड़ ने मुस्लिम दुकानें जलाईं, 50 से ज्यादा परिवार भागने को मजबूर। पुलिस ने 100+ गिरफ्तारियां कीं, लेकिन तनाव महीनों चला। हाईकोर्ट ने जांच के आदेश दिए।
- 2024- फरवरी में हल्द्वानी दंगा – अवैध मदरसे की बुलडोजर कार्रवाई पर हिंसा भड़की। 6 लोग मारे गये। 150 से ज्यादा घायल। 250+ गिरफ्तार।
- 2025- मई में नैनीताल यौन हमला कांड – 73 साल के बुज़ुर्ग पर छोटी बच्चे के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा। भीड़ ने मस्जिद पर पथराव किया, 60+ गिरफ्तार।
- 2025- सितंबर में काशीपुर – ‘आई लव मुहम्मद” वाले बैनर लेकर निकले जुलूस पर पथराव, तोड़फोड़ और हमले – 20 घायल, 40 गिरफ्तार।
- 2025- नवंबर में हुआ हल्द्वानी में बवाल।
ये घटनाएँ बताती हैं कि 2016 के बाद से उत्तराखंड लगातार सांप्रदायिकता की चपेट में है। अपराधी तो हर धर्म में होते हैं। जेलों का रिकॉर्ड बताता है कि हर धर्म के लोग हर तरह के अपराध में लिप्त हैं।
उत्तराखंड में कौन कर रहा है ये सब?
बड़े-बड़े संत महात्मा कहलाने वाले भी बलात्कार के दोषी सिद्ध होकर जेल में हैं। वे पकड़े जाते हैं। सबूतों के बिना पर अदालत फ़ैसला करती है। लेकिन उत्तराखंड में ऐसी मानसिकता तैयार की जा रही है कि अगर अपराधी मुस्लिम है तो पूरे समाज के ख़िलाफ़ गाली गलौज कीजिए। उनकी दुकानें जलाइए। उन्हें उत्तराखंड से बाहर करने का आह्वान कीजिए। क्या इन लोगों ने कभी आसाराम जैसे बलात्कारी के अनुयायियों को राज्य से बाहर जाने को कहा है। बिल्कुल भी नहीं और यही सभ्य तरीक़ा है कि व्यक्ति के अपराध की सज़ा किसी समुदाय को नहीं दी जा सकती। इंसान के पास यह समझ तो सैकड़ों साल से है। फिर ऐसा क्या हुआ कि उत्तराखंड के लोगों से सभ्यता की यह कसौटी छीन ली गयी है। उसकी वजह हमें राजनीति में मिलती है जिसने उत्तराखंड आंदोलन के उच्च आदर्शों पर पानी फेर दिया।
उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए चले आंदोलन में हिंदू-मुसलमान सभी शामिल थे। तब वादा था कि एक ऐसा राज्य बनाया जाएगा जहाँ से पलायन नहीं होगा। रोज़गार के अवसर होंगे। जल-जंगल और ज़मीन की लूट रुकेगा। गंगा को निर्मल और अबाध किया जाएगा। और 2000 में यह सपना पूरा हो गया। राज्य बन गया। लेकिन समस्याओं को हल करना इतना आसान नहीं था। कांग्रेस और बीजेपी के बीच सत्ता को लेकर कड़ा संघर्ष था फिर बीजेपी ने वही किया जो वह पूरे दश में प्रयोग करती है। दुनियावी मुद्दों को सांप्रदायिक मुद्दों से ढँकना। मुस्लिमों के ख़िलाफ़ घृणा फैलाकर हिंदुओं को एकजुट करना। इसके लिए तरह-तरह की अफ़वाहें फैलाना।सांप्रदायिक उन्माद से किसे फायदा?
उत्तराखंड में 2002 के पहले चुनाव से बीजेपी और कांग्रेस में कड़ी टक्कर होती रही है लेकिन केंद्र में मोदी सरकार बन जाने के बाद उत्तराखंड बीजेपी ने सांप्रदायिक उन्माद फैलाना शुरू किया। 2016 की घटनाओं का लाभ 2017 में 57 और 2022 में 47 सीटों पर जीत के रूप में मिला। यानी कांग्रेस के साथ बराबरी की टक्कर जैसी कोई बात नहीं रही। संकीर्ण बहुमत या नज़दीकी मुक़ाबले की स्थिति को बीजेपी ने इसी रणनीति से बदल दिया। 2021 से उत्तराखंड में मुस्लिम आबादी बढ़ने के विरोध को एक राजनीतिक अभियान की शक्ल दी गयी जबकि उनकी आबादी में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया:
- 2001 में हिंदू ~83%, मुस्लिम ~13%।
- 2011 में हिंदू 83.01%, मुस्लिम 13.95%
2021 में मतगणना हुई नहीं। ऐसे में कोई भी अफ़वाह उड़ाना आसान है। वैसे, उत्तराखंड से पलायन की जो दर है उसके पीछे सांप्रदायिक समस्या नहीं है। यह सरकारों की रोज़गार मुहैया न करा पाने की नाकामी है। इसका असर जनसंख्या वृद्धि में भी दिखाई पड़ सकता है। यानी अपनी नाकामी को ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए सरकार इस्तेमाल करती है। बीजेपी के तमाम नेता लगातार मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाते हुए बयान देते हैं। उन्हें बाहरी बताते हुए लगातार माहौल गरमाये रखा जाता है। सरकार ने इसके लिए क़ानून भी बनाये।
उत्तराखंड में लव जिहाद-धर्मांतरण कानून 2018 में बना और 2025 में इसे और सख्त बनाया गया। समान नागरिक संहिता से जुड़ा क़ानून 2024 में पास हुआ। लेकिन जनजातियों को बाहर रखा गया। ऐसा लगता है कि सरकार के सारे क़दम मुस्लिमों को विलेन साबित करने के लिए ही उठते हैं। हद तो ये है कि यह सब जिस धर्म के नाम पर हो रहा है, उसकी नज़र में यह अधर्म है।
उत्तराखंड आदि शंकराचार्य की भूमि
उत्तराखंड आदि शंकराचार्य की भूमि है। 8वीं शताब्दी (लगभग 788-820 ई.) में उन्होंने ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ) की स्थापना की –ये चार प्रमुख पीठों में से एक, जहां वेदांत की शिक्षा दी जाती है। उनकी विरासत एकता की थी, नफरत की नहीं। शंकराचार्य ने कहा था कि सारा संसार ब्रह्म का ही विस्तार है। उन्होंने कहा- जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्यम। ब्रह्म और जीव में अभेद है। जीव ब्रह्म का अंश है। इसे ही अद्वैत दर्शन कहा गया। तो क्या मुस्लिम जीव नहीं हैं। और हैं तो ब्रह्म से अलग कैसे हो सकते हैं। क्या बीजेपी मुस्लिमों पर निशाना बनाकर, उन्हें पराया ठहराकर हिंदू धर्म के उस मर्म पर चोट नहीं करती जिसमें किसी को पराया नहीं माना गया है? क्या बीजेपी उस ताने बाने को तोड़ नहीं रही है जो उत्तराखंड के पुरखों ने तैयार किया था?
हर साल कार्तिक पूर्णिमा (नवंबर-दिसंबर) को महाकाली नदी के तट पर, भारत-नेपाल सीमा के ठीक पास जौलजीवी मेला लगता है। इस मेले की शुरुआत हिंदू-मुस्लिम व्यापारियों के आपसी समझौते से हुई थी (17वीं-18वीं सदी में)। कुमाऊँ के चंद राजाओं और नेपाल के राजाओं के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के समझौते के तहत यह मेला शुरू हुआ। आज भी मेले के सबसे बड़े घोड़े-खच्चर व्यापारी मुस्लिम समुदाय के लोग होते हैं (खासकर टनकपुर, खटीमा, किच्छा और नेपाल के बैतड़ी-दार्चुला से आते हैं)।
मेले में पहला झंडा (ध्वज) मुस्लिम व्यापारी ही चढ़ाते हैं– यह परंपरा सदियों पुरानी है। झंडा चढ़ाने के बाद ही मेला शुरू माना जाता है। मेले में मुस्लिम परिवारों के लिए विशेष स्थान आरक्षित होता है, जहाँ वे अपने जानवर बाँधते हैं। हिंदू श्रद्धालु जब महाकाली मंदिर में पूजा करते हैं तो उसी समय मुस्लिम व्यापारी उनके लिए चाय-पानी, खाना और जानवरों की देखभाल करते हैं। बदले में हिंदू व्यापारी उनके जानवर खरीदते हैं– यह आपसी विश्वास का अनोखा उदाहरण है। मेले में कोई धार्मिक उन्माद या भेदभाव नहीं होता– सब एक-दूसरे को “मेला भाई” कहकर बुलाते हैं।
मेल-मिलाप से बने मेला भाइयों की यह परंपरा कौन और कैसे तोड़ रहा है, उत्तराखंड की जनता को इस बारे में सोचना चाहिए। वरना जल जंगल और ज़मीन के लुटेरे, अपनी हवस के लिए पहाड़ों में डायनामाइट लगाने को विकास का नाम देने वाले, नदियों से बजरी पत्थर चुराने वाले माफ़िया उन्हें यूँ ही ठगते रहेंगे।