इन दिनों देश में ‘शांति’ के नाम पर भी अशांति फैली हुई है। शांति दरअसल, संसद से पास हुए उस बिल का नाम है जिसके ज़रिए निजी क्षेत्र को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में प्रवेश की इजाज़त दी गयी है। विपक्ष इस मुद्दे पर हमलावर है। ख़ासतौर पर दुर्घटना की स्थिति में सप्लायर को ज़िम्मेदारी से बरी करने का मुद्दा गंभीर है। साथ ही यह आरोप भी लग रहा है कि नया क़ानून अडानी की कंपनी को फ़ायदा पहुँचाने के लिए बनाया गया है जो परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में प्रवेश कर रही है।

17 दिसंबर को लोकसभा में विपक्ष के वाकआउट के बीच 'शांति विधेयक’ पास हो गया। फिर 18 दिसंबर को राज्यसभा में भी यह पास हो गया। हद तो यह है कि बिना बहस के यह महत्पूर्ण बिल पास हुआ और राष्ट्रपति ने दो दिन बाद यानी बीस दिसंबर को इस पर मुहर भी लगा दी। यानी पाँच दिन के अंदर नया क़ानून अस्तित्व में आ गया। यह तेज़ी हैरान करने वाली है।

शांति यानी Sustainable Harnessing and Advancement of Nuclear Energy for Transforming India Bill, 2025 या नाभकीय ऊर्जा का सतत दोहन एवं उन्नयन विधेयक 2025। नया क़ानून परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1962 और परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम, 2010 का स्थान लेगा जिसका अमेरिकी परमाणु आपूर्तिकर्ता लंबे समय से वहाँ की सरकार के समर्थन से विरोध करते रहे हैं।
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पुराने क़ानून में क्या था?

पुराने क़ानून के तहत सिर्फ सरकारी कंपनी NPCIL ही प्लांट बना और चला सकती थी। SHANTI के तहत भारतीय निजी कंपनियाँ जॉइंट वेंचर में न्यूक्लियर प्लांट बना और चला सकती हैं। 49% तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफ़डीआई की अनुमति होगी। इसका उद्देश्य 2047 तक 100 GW (गीगावॉट) परमाणु ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य हासिल करना है। अभी सिर्फ 8-9 GW उत्पादन होता है। भारत में कुल बिजली उत्पादन में परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी सिर्फ़ 3% है।

ज़ाहिर है, सरकार इसे एक बड़ा कदम मान रही है लेकिन विपक्ष ने ख़तरे की घंटी बजा दी है। विपक्ष, ख़ासतौर पर कांग्रेस ने इस पर कड़ी आपत्ति जतायी है। सबसे बड़ी आपत्ति है, आपूर्तिकर्ताओं को मुआवज़ा देने से छूट।

शांति क़ानून पहले की वह क़ानूनी बाध्यता को ख़त्म करता है जिसके तहत दुर्घटना होने पर आपूर्तिकर्ता को ज़िम्मेदार मानते हुए मुआवज़ा वसूला जाता था। इस क़ानून के तहत ख़राब डिज़ाइन, घटिया पुर्ज़ों या लापरवाही की ज़िम्मेदारी से कॉरपोरेट बरी रहेगा। दुर्घटना से हुए नुक़सान की भरपाई भारतीय टैक्सपेयर करेंगे।

यह क़ानून ऐसे समय में आया है जब अमेरिका के साथ व्यापार संधि के लिए भारत की बातचीत चल रही है। विपक्ष का आरोप है कि इस क़ानून के ज़रिए अमेरिकी दबाव को स्वीकार किया गया है। यह क़ानून अमेरिकी कंपनियों को अरबों डॉलर के रियेक्टर बेचने में मदद करेगा। वहीं एक ख़बर और आयी है कि अडानी की कंपनी 1.6 GW (1600 MW) का न्यूक्लियर प्रोजेक्ट बनाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से बात कर रही है।

यह प्रोजेक्ट Small Modular Reactors (SMRs) पर आधारित होगा। इसमें 8 इकाइयाँ होंगी और हर एक 200 MW बिजली उत्पादन करेंगी। यह PPP मॉडल पर होगा, जहां NPCIL ऑपरेशन संभालेगी, लेकिन अडानी की कंपनी निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर का इंतज़ाम करेगी।
विश्लेषण से और
अडानी ग्रुप का कहना है कि इससे उनका रिन्यूएबल एनर्जी पोर्टफोलियो मजबूत होगा। ऐसे में कांग्रेस कह रही है कि विधेयक ‘अडानी के लिए’ लाया गया। कांग्रेस मीडिया विभाग के चेयरमैन जयराम रमेश ने इस विधेयक को ही "ADANI" नाम दिया है - Accelerated Damaging Adhiniyam for Nuclear India।

वैसे, अडानी के अलावा टाटा, रिलायंस जैसी अन्य कारपोरेट कंपनियाँ भी परमाणु क्षेत्र में दिलचस्पी दिखा रही हैं। लेकिन अडानी सबसे आगे लग रहा है।

यानी विरोध के कुछ बिंदु स्पष्ट हैं-
  • सेफ्टी का खतरा: निजी कंपनियां प्रॉफिट के चक्कर में सुरक्षा मानकों के साथ समझौता कर सकती हैं। चेरनोबिल-फुकुशिमा जैसी दुर्घटना का डर।
  • कंपनियाँ ज़िम्मेदार नहीं: आपूर्तिकर्ताओं को दुर्घटना को लेकर जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकेगा। दुर्घटना के पीड़ितों को कम मुआवजा मिलेगा।
  • क्रोनी कैपिटलिज़्म: विपक्ष कहता है कि बड़े बिजनेस हाउस (जैसे अडानी) को फायदा, आम आदमी को रिस्क।
सबसे बड़ी बात पारदर्शिता की कमी है। बिना पर्याप्त चर्चा के जिस तरह यह बिल पास कराया गया, उस पर सवाल उठना स्वाभाविक है। सरकार ने यह भी तय कर दिया है कि ‘प्रतिबंधित’ क्षेत्रों को आरटीआई से बाहर रखा जायेगा। यही वजह है कि परमाणु ऊर्जा क्षेत्र की ट्रेड यूनियंस और इंजीनियर्स इसका विरोध कर रहे हैं।
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वैसे, इससे बीजेपी के दोहरे चरित्र का भी पता चलता है। बीस साल पहले जब मनमोहन सरकार अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करने की ओर क़दम बढ़ा रही थी तो बीजेपी ने विरोध के सारे घोड़े खोल दिये थे।

ऊर्जा ज़रूरतों का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते की पहल की थी जो 2008 में हो सका था। मनमोहन सिंह सरकार ने अमेरिका के साथ डील की कि भारत को न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी और फ्यूल मिलेगा, भले ही भारत ने NPT पर साइन नहीं किया। बीजेपी ने जमकर विरोध किया था। लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली जैसे तब के नेताओं ने आरोप लगाया कि-
  • यह भारत की संप्रभुता पर हमला है।
  • अमेरिका भारत को गुलाम बनाना चाहता है।
  • हाइड एक्ट (अमेरिकी कानून) से भारत की न्यूक्लियर ऑप्शंस सीमित होंगे।
  • भारत न्यूक्लियर टेस्ट नहीं कर सकेगा, मिलिट्री प्रोग्राम प्रभावित होगा।
उस समय इस मुद्दे पर अविश्वास प्रस्ताव आया था जिसमें वामपंथी दलों का बीजेपी ने साथ दिया था। लेकिन 2025 में वही बीजेपी SHANTI विधेयक लाकर निजी/विदेशी कंपनियों को एंट्री दे रही है।

तो क्या माना जाये कि सरकार में रहने पर उसे अक्ल आ गयी या फिर मनमोहन सिंह सरकार के समय हुए समझौते का विरोध सिर्फ़ विरोध के लिए था। जो भी हो, ऐसे मामलों में दोहरा रवैया किसी भी पार्ट की साख को कमज़ोर करता है। लेकिन बीजेपी को इसकी चिंता नहीं है।