मशहूर गायक ज़ुबीन गर्ग को गए एक हफ़्ते से ज़्यादा हो गया है मगर असमिया समाज में पैदा हुआ उद्वेलन अभी थमा नहीं है।
बेशक़ लोग सड़कों पर नहीं हैं, मगर वे अंदर ही अंदर उबल रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि ज़ुबीन के साथ छल हुआ है और उसमें सत्ता पर काबिज़ शक्तिशाली लोगों का हाथ भी है। वह उनके हत्यारों को बख़्शने के मूड में नहीं है।
ज़ुबीन की असमय और संदिग्ध परिस्थितियों में मौत ने उसमें ज़बर्दस्त ज्वार पैदा कर दिया था। लाखों लोग जिस तरह से अपने चहेते गायक के लिए सड़कों पर उतर आए वह अभूतपूर्व था, देश ही नहीं, दुनिया अचरज में पड़ गई थी।
इसके पहले गायक भूपेन हज़ारिका और कथाकार इंदिरा गोस्वामी की मृत्यु के बाद भी असम में ऐसी ही हलचल महसूस की गई थी। एक भावनात्मक लहर उस समय भी उठी थी, मगर उस लहर में आक्रोश नहीं था। शायद इसलिए कि उनकी मृत्यु सामान्य परिस्थितियों में हुई थी और वे इतनी कम उम्र में और लोकप्रियता के चरम पर विदा नहीं हुए थे।
एक गायक कैसे एक समाज को झकझोर सकता है, उसकी चेतना को जागृत कर सकता है, उसे सही-ग़लत का फ़र्क़ करना सिखा सकता है, ये ज़ुबीन के निधन के बाद के दृश्यों से समझा जा सकता है।
लेकिन ये समझना ज़रूरी है कि ज़ुबीन एक सामान्य गायक भर नहीं था। वह असमिया समाज की आवाज़ और धड़कन भी था, उसकी पहचान बन गया था।
दरअसल, ज़ुबीन युवा पीढ़ी या यूँ कहें कि जेन ज़ी के मॉडल बन चुके थे। न केवल बतौर गायक बल्कि उनके सामाजिक सरोकारों ने भी उन्हें गायकों की श्रेणी से ऊपर उठा दिया था। वे गायक ही नहीं, एक्टिविस्ट भी थे। वे हर जन आंदोलन का हिस्सा बन जाते थे। सीएए के ख़िलाफ़ हुए आँदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। वे जगह-जगह जाकर प्रदर्शनों में गाने गाते थे।
इस तरह का साहस बहुत कम गायक, कलाकार, लेखक दिखाते हैं। अधिकतर तो सत्ता की गोद में जाकर बैठ जाते हैं और इसी में मुदित होते रहते हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री पूछ रहा है, उनकी तारीफ़ कर रहा है। सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ने और उसकी हाँ में हाँ मिलाने में वह अपनी शान समझता है। इसी से उसे पुरस्कार, सम्मान मिलता है।
और ये समय तो ऐसा है कि अगर आप सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े हुए तो सरकार तमाम एजेंसियाँ को आपके पीछे लगाकर परेशान करना शुरू कर देती है। इसलिए कोई पंगा लेने की हिम्मत नहीं दिखाता। लेकिन ज़ुबीन गर्ग इस डर से चुप नहीं रहे। वे मुख्यमंत्री और असम सरकार की लगातार आलोचना करते रहे, गरियाते रहे।
आज असम में एक ऐसी सरकार है जो असम के ताना-बाना को नष्ट करने में लगी है, सांप्रदायिक उन्माद पैदा करके अपनी सत्ता को स्थायी बना लेना चाहती है। उसने असमिया की विशिष्ट पहचान को हिंदुत्व से ढंक दिया है, क्योंकि ये भारतीय जनता पार्टी की हिंदू, हिंदी, हिंदुस्तान के अभियान का हिस्सा है।
ये हिंदुत्व असमिया संस्कृति को निगलने के लिए तैयार बैठा है। अगर यही सिलसिला चलता रहा तो असमिया समाज यूपी-बिहार के हिंदुओं की कार्बन कॉपी बनकर रह जाएगा।
ज़ुबीन गर्ग की मृत्यु ने इस सुप्त पड़ गई चेतना को फिर से जगा दिया है। वह धूर्त और चालबाज़ नेताओं को समझ गई है जो इस षड़यंत्र में शामिल हैं। जो उन्हें मियाँ, मियाँ करके डराने में लगे हुए हैं। पहले असम में बांग्लादेशी का मतलब मियाँ नहीं था, मुसलमान उसका अभिन्न हिस्सा थे।
असम आंदोलन बांग्लादेश से आए हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के ख़िलाफ़ था, मगर बीजेपी-आरएसएस ने बड़ी चालाकी से उसे मुसलमानों के ख़िलाफ़ मोड़ दिया। असमिया लोग इस झाँसे में आ गए थे और इसी वज़ह से उन्होंने दो-दो बार बीजेपी को जिता दिया था।
लेकिन शायद अब वे समझ रहे हैं कि अगर असमिया मुसलमानों को वे बांग्लादेशी समझकर भगाएंगे, धिक्कारेंगे तो असमिया समाज संकुचित हो जाएगा और सैकड़ों साल में बनी साझा संस्कृति भी नष्ट हो जाएगी।
कुछ समय से पर रही ये भावना और जागरूकता दबी बैठी थी, ज़ुबीन की मृत्यु ने इस मामले में ट्रिगर का काम किया है। वह उभरकर आ गई है और पूरे रोष के साथ व्यक्त हो रही है।
ऐसा भी नहीं लगता कि ये भावनाओं का क्षणिक ज्वार है, जो समय के साथ उतर जाएगा।
असम को और पूरे भारत को इसके लिए ज़ुबीन का शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
(वरिष्ठ पत्रकार और सत्य हिन्दी डॉट कॉम के संपादक मुकेश कुमार के फेसबुक पेज से साभार)