Assam SR Latest: चुनाव आयोग ने असम की मतदाता सूची के लिए विशेष पुनरीक्षण (एसआर) की घोषणा की है। इससे इस बात की पुष्टि हो गई कि असम में एसआईआर नहीं होगा। आयोग के इस तरह के दोहरे स्टैंड पर सवाल उठ रहे हैं।
बिहार एसआईआर पटना और मधुबनी में सबसे ज्यादा मतदाता नाम हटाए गए
भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने सोमवार (17 नवंबर) को असम के लिए मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण (एसआर) घोषित किया। जिसमें 1 जनवरी, 2026 को अंतिम तारीख (qualifying date) माना गया है। इसके साथ ही, आयोग ने राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता सूची को अपडेट करने के लिए आधिकारिक तौर पर एक अलग रास्ता अपनाया है।
चुनाव आयोग के कार्यक्रम के अनुसार, अपडेट से पहले बूथ स्तर के अधिकारी (बीएलओ) घर-घर जाकर सूची का सत्यापन करेंगे। यह कार्यक्रम 22 नवंबर से 20 दिसंबर, 2025 तक चलेगा। एकीकृत मसौदा मतदाता सूची (integrated draft electoral roll) 27 दिसंबर को प्रकाशित की जाएगी, और अंतिम सूची 10 फरवरी, 2026 को प्रकाशित होने वाली है, जिससे मई से पहले होने वाले राज्य चुनावों के लिए मतदाता सूची तैयार हो जाएगी।
इस फैसले से पुष्टि होती है कि असम में विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) नहीं होगाष जो एक बड़ी व्यापक प्रक्रिया है और जिसे अन्य राज्यों में लागू किया जा रहा है। दोनों तरह की पड़ताल के बीच का अंतर महत्वपूर्ण है। और यही विवाद का भी विषय है।
SIR को लागू न करने पर विवाद क्यों है?
असम को SIR से बाहर रखने का विवाद मुख्य रूप से राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) और मतदाता सूची को शुद्ध करने की प्रक्रिया से जुड़ा है। SIR, जिसका पहला मकसद घर-घर सत्यापन के जरिए अपात्र मतदाताओं को हटाना है, को अन्य राज्यों में लागू किया जा रहा है। विपक्षी दल तर्क देते हैं कि असम में, जहाँ पहले से ही NRC के कारण नागरिकता का मुद्दा अत्यधिक संवेदनशील है और अंतिम NRC सूची को राज्य सरकार ने स्वीकार नहीं किया है, वहाँ SIR को लागू न करना संदेहास्पद है। उनका मानना है कि SIR को लागू करने से मतदाता सूची की सटीकता सुनिश्चित होती और अपात्र नामों को हटाने का एक व्यापक प्रयास हो पाता।
SIR की जगह विशेष पुनरीक्षण (SR) कराना, जो मुख्य रूप से नए नाम जोड़ने पर केंद्रित है, को विपक्ष द्वारा "शुद्धिकरण" की प्रक्रिया को धीमा करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। इसके अलावा, चुनाव आयोग ने असम की अलग कानूनी स्थिति और NRC का हवाला दिया है, लेकिन चूंकि NRC खुद अनसुलझा है, इसलिए यह तर्क गले नहीं उतर रहा है। एनआरसी की सिर्फ आड़ ली जा रही है।
क्या यह बीजेपी की "दोरंगी चाल" है?
विपक्ष इसे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की "दोरंगी चाल" बता रहा है। बीजेपी ने पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में नागरिकता (CAA के माध्यम से) देने की वकालत की है, जबकि असम में उसने 2019 की NRC सूची को अस्वीकार कर दिया है और बांग्लादेश से सटे जिलों में 20% नामों के पुन:सत्यापन की मांग की है। विपक्ष का आरोप है कि असम में SIR को लागू न करके, बीजेपी एक तरफ NRC को लागू करने के अपने वादे से पीछे हट रही है, जिससे सूची को शुद्ध करने का व्यापक प्रयास रुक गया है। दूसरी तरफ, वह 2026 चुनाव से पहले मतदाता सूची को इस तरह अंतिम रूप देना चाहती है जो उसके राजनीतिक हितों को फायदा पहुंचाए। यह आरोप लगाया जाता है कि पार्टी उन मतदाता समूहों पर नरम रुख अपना रही है जिनके नाम व्यापक SIR प्रक्रिया के तहत हटाए जा सकते थे, जिससे उसकी वोट-बैंक की राजनीति प्रभावित हो सकती है।यह फैसला ऐसे समय में आया है जब विपक्ष लगातार चुनाव आयोग (ECI) पर सत्तारूढ़ बीजेपी के साथ मिलकर उसकी नीतियों के अनुसार काम करने का आरोप लगा रहा है। NRC को लेकर असम में पहले से ही तनावग्रस्त माहौल है। असम सरकार समुदाय विशेष को हर मोर्चे पर हाशिए पर ढकेल रही है। ऐसे में असम को SIR से बाहर रखने का ECI का विशेष कदम, विपक्ष के इस आरोप को और बल देता है कि आयोग केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहा है।
चुनाव आयोग लगातार बीजेपी के पक्ष में ले रहा फैसले
विपक्ष का तर्क है कि SIR को लागू न करने का ECI का निर्णय राजनीतिक रूप से प्रेरित है। क्योंकि इससे बीजेपी को नागरिकता और मतदाता शुद्धिकरण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर कड़ा रुख नहीं अपनाना पड़ेगा। अगर वो एसआईआर कराती तो उसका कोर वोटर नाराज़ हो जाता। क्योंकि एनआरसी को बीजेपी के कोर वोटरों ने पसंद नहीं किया है। असम में 2026 में विधानसभा चुनाव है। इसलिए सत्तारूढ़ बीजेपी वहां किसी तरह का विवाद मतदाता सूची को लेकर नहीं चाहती। असम के लिए अलग योजना की घोषणा ने ECI की निष्पक्षता पर सवाल उठाने वाले मौजूदा आरोपों को और हवा दे दी है।
SIR बनाम SR: मुख्य अंतर
- विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) मतदाता सूची का घर-घर जाकर मतदाता की पुष्टि करने वाला काम है। जिसका पहला मकसद अपात्र एंट्रीज को हटाना है। इसका मुख्य अनिवार्य तरीका घर-घर गणना शामिल है जहाँ बीएलओ को प्रत्येक मौजूदा मतदाता का भौतिक रूप से सत्यापन करने का काम सौंपा जाता है। इस प्रक्रिया में, सबूत मतदाता को देना होता है। तभी सत्यापन होता है। सबूत नहीं दे पाने पर नाम मतदाता सूची से हटा दिया जाता है।
- इसके विपरीत, विशेष पुनरीक्षण (SR), जो एक नियमित विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण (Special Summary Revision - SSR) के समान है। यानी नए मतदाता जोड़ना। नए मतदाताओं को जोड़ने (फॉर्म 6), किसी प्रविष्टि पर आपत्ति करने (फॉर्म 7), या सुधार का अनुरोध करने (फॉर्म 8) के लिए जनता द्वारा स्वेच्छा से आवेदन दाखिल करने पर निर्भर करता है। इस प्रणाली के तहत, मौजूदा मतदाता का नाम सूची में तब तक बना रहता है जब तक कि उसके खिलाफ कोई विशेष आपत्ति या शिकायत दाखिल न की जाए।
SIR पर कानूनी चुनौती और असम का अलग रखा जाना
इस राष्ट्रव्यापी SIR अभ्यास को वर्तमान में विपक्षी दलों और नागरिक समाज समूहों जैसे एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा रही है। केरल की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने भी सुप्रीम कोर्ट में एसआईआर को चुनौती दे दी है। तमिलनाडु की डीएमके और बंगाल की टीएमसी भी इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे चुकी है। कानूनी चुनौती ईसीआई के क्षेत्राधिकार पर केंद्रित है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि SIR में दस्तावेज़ीकरण की मांग एक नागरिक सत्यापन (Citizenship) अभ्यास है। एक पावर जिसे वे मानते हैं कि केवल केंद्र सरकार के पास है। बिहार में SIR के पहले चरण के परिणामस्वरूप मतदाता सूची से 68 लाख से अधिक नामों को डिलीट कर दिया गया। जिसने इन दावों को मजबूत किया कि सरकार और चुनाव आयोग का इरादा कुछ और है। बिहार में यह साफ-साफ दिखाई पड़ा कि लोगों की नागरिकता को जांचा गया और सबूत नहीं दिए जाने पर नाम उड़ा दिए गए।- बिहार एसआईआर के बाद डीएमके प्रवक्ता सरवनन अन्नादुराई ने पूछा था, "ईसीआई नागरिकता का मापदंड क्यों लाने की कोशिश कर रहा है? क्या भारत का चुनाव आयोग एक नागरिकता खोज यूनिट है?"
SIR से असम को बाहर करने के कदम की घोषणा पहली बार 27 अक्टूबर को की गई थी। मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार ने नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6ए के तहत राज्य की अद्वितीय कानूनी स्थिति और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी प्रक्रिया का हवाला दिया था।
असम में एनआरसी सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में की जा रही है। जिसे 31 अगस्त, 2019 को ₹1,600 करोड़ से अधिक की लागत पर अंतिम रूप दिया गया था। असम समझौते की 24 मार्च, 1971 की कट-ऑफ तिथि पर आधारित इस प्रक्रिया में 3 करोड़ 30 लाख आवेदकों में से लगभग एक करोड़ 90 लाख लोगों को बाहर कर दिया गया था।
हालांकि, सूची को भारत के महापंजीयक (Registrar General of India) द्वारा औपचारिक रूप से अधिसूचित नहीं किया गया है। एक विवादास्पद कदम में, भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने 2019 की सूची को स्वीकार नहीं किया है। मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने बांग्लादेश की सीमा से लगे जिलों में 20% और अन्य जिलों में 10% नामों के पुन:सत्यापन के लिए बार-बार कहा है।
बहरहाल, चुनाव आयोग का निर्णय ऐसे समय में भी आया है जब सत्तारूढ़ भाजपा असम और पड़ोसी पश्चिम बंगाल, जहाँ भी चुनाव होने वाले हैं, में नागरिकता पर अलग-अलग रुख अपना रही है। पश्चिम बंगाल में, पार्टी ने गैर-मुस्लिम बंगाली प्रवासियों के लिए नागरिकता को तेज़ी से ट्रैक करने का समर्थन किया है, जबकि असम में, बंगाली वक्ताओं के प्रवास को लेकर स्थानीय संवेदनशीलताओं के कारण यह मुद्दा अधिक विवादास्पद है।