अब सवाल उठता है कि जब मसजिद बनाने के लिए राम मंदिर तो दूर, कोई भी मंदिर नहीं तोड़ा गया था, उस ज़मीन पर पहले मंदिर के ध्वंसावशेष होने के बावजूद हिंदुओं का ज़मीन पर अधिकार नहीं बनता, जब मुसलमान उस मसजिद में सालों से जाते रहे थे, जब मसजिद में मूर्तियाँ रखना ग़लत था, जब मसजिद को तोड़ना भी ग़लत था, तो आख़िर किस आधार पर कोर्ट ने हिंदुओं के पक्ष में यह फ़ैसला सुना दिया?
जवाब छुपा है 1885-86 के फ़ैसलों में
इसको समझने के लिए हमें आज से कई साल पीछे जाना होगा और 1885-86 में महंत रघुबर दास के मुक़दमे पर दिए गए फ़ैसलों को देखना होगा। मुक़दमा इस बात का था कि मसजिद परिसर में ही बाहरी अहाते में बाईं तरफ़ 17X21 फुट का एक चबूतरा था, जिसे राम चबूतरा कहा जाता था और जहाँ राम की मूर्ति और पत्थर पर चरण उकेरे हुए थे।
इसके ऊपर बाँसों या लकड़ियों का बना एक छोटा-सा तंबू था। महंत रघुबर दास चाहते थे कि वहाँ एक मंदिर बनाया जाए, लेकिन स्थानीय मुसलमानों ने उसका विरोध किया। मामला सब-जज के पास गया जहाँ यह आवेदन ठुकरा दिया गया। महंत ने ज़िला जज के पास अपील की मगर उनकी अपील ठुकरा दी गई। अंतिम अपील अवध के न्यायिक कमिश्नर के पास पहुँची। उन्होंने निचली अदालत के जजों के फ़ैसले को सही ठहराया।
जिला जज ने लिखा - यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाली जगह पर मसजिद बनाई गई लेकिन वह घटना 356 साल पहले हुई थी, और इतने सालों के बाद उसे अनहुआ नहीं किया जा सकता। अब यही किया जा सकता है कि यथास्थिति बरकरार रखी जाए।
क्या कहा था न्यायिक कमिश्नर ने?
जब यह मामला अवध के न्यायिक कमिश्नर के पास आया तो उन्होंने भी 'आततायी बाबर' द्वारा मंदिर तोड़े जाने का उल्लेख करते हुए लिखा कि मसजिद परिसर में मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि जहाँ वे मंदिर बनाना चाहते हैं, वह मसजिद के बहुत ही पास है।
निष्कर्ष यह कि सभी जज मानते थे कि राम जन्मस्थान पर मंदिर बनाने की माँग जायज़ है लेकिन चूँकि वह जगह मसजिद के क़रीब है, और उससे शांति-व्यवस्था बिगड़ सकती है, इसलिए उसकी अनुमति नहीं दी गई।
आज सुप्रीम कोर्ट ने वही और वैसा ही फ़ैसला दिया हालाँकि उसने वे शब्द नहीं कहे जो 1885-86 के मुक़दमे में जजों ने कहे थे। लेकिन फ़ैसले की भावना सौ फ़ीसदी वही है। भावना यह है कि मसजिद मंदिर तोड़कर नहीं बनी लेकिन आज की तारीख़ में वहाँ रामलला की मूर्ति रखी हुई है और उनको हटाने से फ़साद हो सकता है, अशांति हो सकती है।
हम मानते हैं कि ये मूर्तियाँ ग़लत तरीक़े से रखी गई थीं, हम यह भी मानते हैं कि 1992 में मसजिद ग़लत तरीक़े से तोड़ी गई थी, लेकिन हम आपको वहाँ फिर मसजिद बनाने की अनुमति नहीं दे सकते क्योंकि इससे शांति-व्यवस्था का ख़तरा पैदा हो सकता है।
अदालत की यह भावना उसके द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले की आलोचना से भी साबित होती है। कोर्ट ने कहा है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला इसलिए ग़लत है कि जब जजों ने ज़मीन को तीन बराबर हिस्सों में बाँटने का फ़ैसला दिया तो उन्होंने यह नहीं सोचा कि इससे विवाद कैसे सुलझेगा और शांति बहाल करे का मक़सद कैसे पूरा होगा।
फ़ैसले का संकेत पहले ही दे दिया था
सुप्रीम कोर्ट कुछ ऐसा ही फ़ैसला देगा, इसका आभास तभी हो गया था जब चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई की बेंच ने अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू करते समय कह दिया था कि यह मामला 1500 वर्ग गज़ इलाक़े के स्वामित्व का नहीं है, बल्कि लोगों के मन, हृदय और घाव भरने का है। उन्होंने यह भी कहा था कि फ़ैसला करते समय हमें जनसमुदाय और उनकी भावनाओं पर पड़ने वाले असर का भी ध्यान रखना होगा।
कोर्ट ने वही किया। बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं का ध्यान रखा और अल्पसंख्यक इससे आहत न हों, इसलिए उनके लिए अलग ज़मीन देने का आदेश भी दिया। लेकिन अगर बाबरी मसजिद की जगह कहीं और मस्जिद बनानी हो तो देश के मुसलमान बिना कोर्ट के फ़ैसले के भी ऐसा कर सकते हैं। उसके लिए 'अदालती कृपा' की क्या ज़रूरत है?
सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसा फ़ैसला देने का एक कारण और है। वह यह कि कोर्ट ऐसा कोई फ़ैसला देना नहीं चाहता था जिसपर अमल नहीं हो सके। वह 1992 का दोहराव नहीं चाहता था।
याद कीजिए, जब बाबरी मसजिद ढहने के बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राय माँगी थी कि जहाँ बाबरी मसजिद बनी हुई थी, वहाँ क्या पहले कोई मंदिर था तो सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ़ जस्टिस ने कोई राय देने से यह कहकर इनकार कर दिया था कि पहले सरकार लिखित में यह गारंटी कि सर्वोच्च अदालत जो भी राय देगी, सरकार उसपर अमल करवाएगी। सरकार ऐसी कोई गारंटी नहीं दे सकी और कोर्ट ने कोई राय नहीं दी।
आज भी वैसी ही स्थिति थी। मान लें कि सुप्रीम कोर्ट के पाँचों जजों को लगता कि 1992 में मसजिद तोड़ने और 1949 में वहाँ मूर्तियाँ रखने वालों को उनके अपराध के लिए दंडित करने और मुसलमानों के साथ न्याय करने के लिए वहाँ मसजिद बनाने का आदेश देना चाहिए तो क्या सरकार इस आदेश पर अमल करवा पाती? नहीं करवा पाती। ख़ासकर मौजूदा सरकार से तो इसका प्रयास करने की भी उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
ऐसे में कोर्ट की हेठी होती जैसी तब हुई थी जब 1992 में कारसेवकों ने उसके आदेश को ठेंगा दिखाते हुए मसजिद गिरा दी थी और सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं कर पाया था। कोर्ट दुबारा ऐसा नहीं होने देना चाहता था कि वह ऐसा कोई आदेश दे जिसका पालन न हो सके। इसलिए उसने ऐसा आदेश दिया जिसका आसानी से 'पालन' हो और उसका ‘सम्मान’ बना रह सके।
सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करके अपनी 'इज़्ज़त' बचा ली, इस मुद्दे पर विवाद समाप्त हो, इसका उपाय भी कर दिया। लेकिन वह सब न्याय के उस बुनियादी सिद्धांत की क़ीमत पर हुआ जिसके अनुसार न्याय 'होना' ही पर्याप्त नहीं है बल्कि न्याय हुआ है, ऐसा 'दिखना' भी चाहिए। इस फ़ैसले से मुसलिम पक्ष को को ऐसा लग रहा है कि उसके साथ अन्याय हुआ है और यही इस फ़ैसले की सबसे बड़ी कमी है।
सुप्रीम कोर्ट के पास एक और विकल्प था। जब वह मान रहा है कि इस भूमि पर दोनों का क़ब्ज़ा था तो वह ज़मीन को दो बराबर हिस्सों में बाँट सकता था। एक दिशा में मंदिर बनता, दूसरी दिशा में मसजिद। ऐसा फ़ैसला आने पर किसी पक्ष को पूरी हार और पूरी जीत की वह अनुभूति नहीं होती जो आज हो रही है। लेकिन कोर्ट ने ऐसा क्यों नहीं किया, यह तो माननीय जज ही बेहतर जानते हैं।