मुस्लिम टोपी में चिराग पासवान। बिहार चुनाव में आजकल मुस्लिमों की बात बहुत कर रहे हैं।
चिराग पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग अनोखे तरीके से उठाई है। अपने पिता दिवंगत राम विलास पासवान की राजनीतिक विरासत से इस मांग को उन्होंने उठाया है। 2005 में राम विलास पासवान ने आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद के सामने शर्त रखी थी कि अगर वे मुस्लिम मुख्यमंत्री की घोषणा करते हैं तो वे उनके साथ सरकार बनाएंगे अन्यथा आपके सहयोगी नहीं रहेंगे। चिराग पासवान आरजेडी में लालू प्रसाद की विरासत संभाल रहे तेजस्वी यादव को भी ललकार रहे हैं। तेजस्वी के सामने मुसलमान मुख्यमंत्री के प्रस्ताव पर बोलने की चुनौती है।
एनडीए में बीजेपी को छोड़कर बाकी घटक दल चाहे वे चिराग की एलजेपी हो या फिर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू या फिर जीतन राम मांझी की पार्टी हम हो या फिर उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी- सब एक सुर में बोल रहे हैं कि 2.6% निषाद जाति से डिप्टी सीएम हो सकता है तो दूसरे क्यों नहीं? एक और सवाल उठाए जा रहे हैं कि आरजेडी ने 143 सीटों में 51 यादवों को टिकट दिया है जो आनुपातिक आबादी के हिसाब से बहुत ज्यादा है। सवाल दो हैं। एक, ज्यादातर आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी नहीं मिलना। दूसरा, कम आबादी होकर भी ज्यादा हिस्सेदारी झटक लेना।
सारे सवाल बिहार में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव से हैं। और, सारे सवाल सत्ताधारी दल पूछ रहा है। ये दोनों बातें भी आश्चर्यजनक हैं लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का यथार्थ भी यही है। सच यह है सत्ताधारी गठबंधन एनडीए की ओर से उठाए जा रहे इन सवालों के समांतर जो सवाल स्वत: पैदा होते हैं उनका जवाब वे स्वयं भी देना नहीं चाहते। सवाल जानिए।
चिराग पासवान से सवाल
- राम विलास पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग पर लालू प्रसाद का साथ छोड़ दिया था। क्या चिराग पासवान इसी लीक पर चलते हुए नरेंद्र मोदी का साथ छोड़ सकते हैं?
- बीजेपी पर दबाव की बात छोड़ दें। क्या स्वयं चिराग पासवान घोषणा कर सकते हैं कि लोजपाआर को कभी अवसर मिला तो वे किसी मुस्लिम को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा करते हैं?
एनडीएः जेडीयू से 4 मुस्लिम प्रत्याशी, चिराग की पार्टी से 1
एनडीए ने 243 सीटों पर सिर्फ 5 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया है। इनमें 4 जेडीयू और एक चिराग पासवान की पार्टी लोजपाआर से है। तर्क यह दिया जाता है कि एनडीए को मुसलमान वोट नहीं करता। मगर, क्या जेडीयू को भी मुसलमान वोट नहीं करते? 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू से कोई मुस्लिम विधायक नहीं बना था सच है। मगर, ऐसा तब हुआ जब वे बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए से चुनाव लड़ रहे थे। 2015 में जब जेडीयू ने महागठबंधन में चुनाव लड़ा था तब जेडीयू ने 7 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे और 5 मुस्लिम विधायक बने थे। इसका मतलब यह हुआ कि जेडीयू को मुसलमान वोट देने को तैयार रहते हैं लेकिन वो यह बात पसंद नहीं करते कि जेडीयू बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए में रहें।महागठबंधन से 20 मुस्लिम प्रत्याशी, अकेले कांग्रेस से 10ः बीजेपी और कांग्रेस में यह बहुत बड़ा फर्क है कि उम्मीदवार बनाने के लिए बीजेपी उम्मीदवार के समुदाय का वोट चाहिए जबकि कांग्रेस यह शर्त नहीं रखती। महागठबंधन ने 2020 में 33 मुसलमान उम्मीदवार उतारे थे। 2025 में महागठबंधन ने महज 20 मुसलमानों को चुनाव मैदान में उतारा है। मगर, कांग्रेस तब 70 में से 12 मुस्लिम उम्मीदवार लेकर उतरी थी। आज वह 60 में से 10 मुस्लिम उम्मीदवार लेकर चुनाव मैदान में कूदी है। 2020 में कांग्रेस के चार मुस्लिम विधायक बने थे। 2025 में देखा जाना बाकी है।
मुसलमान बीजेपी को वोट क्यों नहीं देते, कांग्रेस को भी तो नहीं देते
मुसलमान वोट नहीं देते इसलिए बीजेपी मुसलमानों को टिकट नहीं देती। यह तर्क अक्सर बीजेपी और संघ के नेता देते हैं। वोट देने या नहीं देने के आधार पर उम्मीदवार तय करना संसदीय लोकतंत्र का अपमान करना है। मगर, इससे हर हाल में जीत की रणनीति रखने वाली पार्टी या नेता को क्या मतलब? जरा सोचिए, क्या कांग्रेस ने कभी इस तरह से सोचा है? मुसलमानों को जहां कहीं भी बीजेपी की सियासत के समांतर विकल्प मिला, उसने कांग्रेस को छोड़कर उस विकल्प को पकड़ लिया। कांग्रेस तुष्टिकरण का आरोप अपने सर माथे पर लिए घूमती रही। चुनाव दर चुनाव हारती रही। मगर, मुसलमान तब भी उनके साथ खड़े नहीं दिखे। चाहे वह यूपी हो या फिर बिहार या जम्मू-कश्मीर क्यों ना हों। फिर भी कांग्रेस ने मुसलमानों को टिकट देना बंद नहीं किया इस आधार पर कि मुसलमान तो वोट ही नहीं देते।बिहार में मुस्लिम आबादी लगभग 18 फीसदी है। 243 सदस्यों वाली विधानसभा में आबादी में हिस्सेदारी के हिसाब से 43 या 44 मुस्लिम होने चाहिए। सच यह है कि सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक 10.4% 1985 में रहे थे जब अविभाजित बिहार में 325 सदस्यों वाली विधानसभा में 29 मुस्लिम विधायक चुनकर आए थे। मुसलमान ही नहीं यह समस्या दलितों और आदिवासियों में भी है। फर्क इतना है कि एससी और एसटी के लिए अंग्रेजों के जमाने से रिजर्व सीटें हैं और इसलिए रिजर्व सीटों पर उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित रहता है। ओबीसी वर्ग में वर्चस्ववाली जाति को छोड़कर बाकी सभी जातियों को उनकी आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। ऐसे में सिर्फ मुसलमानों को लेकर आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व का सवाल क्यों उठाया जा रहा है? यह काम एनडीए और एआईएमआईएम के लोग कर रहे हैं।
मुस्लिमों के पास विकल्प क्या है
एनडीए मुसलमानों को उम्मीदवारी नहीं देता और वही मुस्लिम मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री बनाने की मांग को भी हवा दे रहा है। राजनीति मुसलमानों की भावनाओं का इस्तेमाल करने की हो रही है। एक बार अगर महागठबंधन मुस्लिम डिप्टी सीएम का एलान कर दे तो हिन्दुओं को भड़काने और ध्रुवीकरण करने का अवसर भी वह नहीं छोड़ने वाली। राष्ट्रीय स्तर पर नफरत की जो सियासत बीजेपी की यूएसपी रही है उसे देखते हुए मुसलमानों को भी राष्ट्रीय स्तर पर ठौर तलाशना होगा। राष्ट्रीय विकल्प तैयार करने में उसकी भूमिका नहीं होगी तो वह हाशिए पर निश्चित रूप से रहेगी। इसके लिए यूपी, बिहार जैसे प्रदेशों में भी उसे जीतने वाली पार्टी या बीजेपी को हराने वाली पार्टी खोजने के बजाय इस राह पर चलना होगा कि समावेशी राजनीतिक विकल्प देने वाली पार्टी के साथ रहा जाए।अगर मुसलमान कांग्रेस के समांतर क्षेत्रीय दलों को प्राथमिकता देती रहेगी तो राष्ट्रीय स्तर पर उसके समर्थन में आने का हौसला रखने वाली कांग्रेस पार्टी का मनोबल कम होगा। मुसलमानों के लिए यह कतई मुद्दा नहीं है कि कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री बनता है या नहीं। उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा यही है कि 2014 से पहले की स्थिति मुसलमानों के लिए कब लौटती है और कैसे लौटती है। इस आधार पर भी अगर मुसलमान वोट करें तो बीजेपी की सियासत से लड़ती हुई कांग्रेस उसकी पसंद बन सकती है। मगर, क्या ऐसा होगा?