बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर, मायावती और ओवैसी जैसे अपेक्षाकृत छोटे राजनीतिक खिलाड़ियों ने कैसे बड़ा प्रभाव डाला? वोट-बैंक, गठबंधन समीकरण और अंतिम नतीजों पर इनका असर कैसा रहा?
प्रशांत किशोर, मायावती, ओवैसी
बिहार चुनाव में एनडीए की 202 सीटों की रिकॉर्ड जीत हुई, महागठबंधन 35 पर सिमटा, लेकिन असली ट्विस्ट तो छोटे खिलाड़ियों का रहा। प्रशांत किशोर ने बिना एक भी सीट जीते और मायावती और ओवैसी के दलों ने कुछ सीटें जीतकर 63 सीटों का गणित पलट दिया!
बिहार विधानसभा चुनावों का नतीजा दोनों गठबंधनों एनडीए और महागठबंधन के लिए अप्रत्याशित रहा। कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने हैरानी जताते हुए कहा, 'यह परिणाम हमारे लिए अविश्वसनीय है। न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि बिहार की जनता और हमारे गठबंधन साथी भी यह मानने को तैयार नहीं हैं। किसी पार्टी का 90% स्ट्राइक रेट - यह कभी नहीं हुआ। हम पूरे बिहार से डेटा इकट्ठा कर गहन विश्लेषण कर रहे हैं।'
हालांकि, सुर्खियों से परे चुनाव की असली कहानी छोटे दलों की भूमिका में छिपी है, जिन्होंने जीत के अंतर को प्रभावित कर बड़ा असर डाला। प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी और असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम ने वोट काटकर एनडीए को फायदा पहुंचाया।
जन सुराज: वोट काटने वाली बन गयी
यह चुनाव राजनीतिक रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी के लिए पहला मौका था। पार्टी ने एक भी सीट नहीं जीती, लेकिन कुल वोट शेयर का 3.4% हासिल कर बिहार की राजनीति में संभावित खलल डालने वाले के रूप में उभरी। जन सुराज ने दोनों गठबंधनों के लिए 'वोट काटने' की भूमिका निभाई।जन सुराज ने 238 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें एक सीट पर दूसरा, 129 पर तीसरा, 73 पर चौथा, 24 पर पांचवां और 12 सीटों पर छठा से नौवाँ स्थान हासिल किया।
दोनों गठबंधनों को नुकसान पहुंचाते हुए 33 निर्वाचन क्षेत्रों में जन सुराज का वोट शेयर जीत के अंतर से ज्यादा रहा। इनमें से 18 सीटें एनडीए ने और 13 महागठबंधन ने जीतीं। चुनाव प्रचार के दौरान प्रशांत किशोर ने कहा था कि उनकी पार्टी दोनों गठबंधनों से वोट लेगी और परिणामों में यह साफ़ दिखता है।
बीएसपी और ओवैसी फैक्टर
मायावती की बीएसपी ने 181 सीटों पर चुनाव लड़ा, एक सीट जीती और एक पर दूसरा स्थान हासिल किया। वर्षों से इंडिया गठबंधन के दल बीएसपी को भाजपा की 'बी-टीम' कहते रहे हैं और उत्तर प्रदेश विधानसभा तथा लोकसभा चुनावों के बाद ये आरोप तेज हो गए थे।
बिहार के परिणाम बताते हैं कि बीएसपी ने महागठबंधन को एनडीए से ज्यादा नुकसान पहुंचाया। 20 सीटों पर बीएसपी के वोट जीत के अंतर से ज्यादा रहे। इनमें से 18 सीटें एनडीए ने और सिर्फ दो महागठबंधन ने जीतीं, यानी 90% मामलों में बीएसपी की मौजूदगी एनडीए के पक्ष में गई।
असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने बेहतर प्रदर्शन किया। पार्टी ने पांच सीटें जीतीं। इसने 2020 के चुनावों में भी इतनी ही सीटें जीती थीं। पार्टी ने इस बार एक सीट पर दूसरा स्थान हासिल किया। नौ निर्वाचन क्षेत्रों में एआईएमआईएम के वोट जीत के अंतर से ज्यादा रहे। इनमें से 67% सीटें एनडीए ने और 33% महागठबंधन ने जीतीं।
विरोधी वोटों का विभाजन
महागठबंधन और खासकर उसके मुख्य घटक राष्ट्रीय जनता दल तथा कांग्रेस के लिए यह बिहार में सबसे खराब प्रदर्शनों में से एक रहा। चुनाव परिणाम बताते हैं कि त्रिकोणीय मुकाबले ने एनडीए को भारी फायदा पहुंचाया। आरजेडी को 23.4% वोट मिले, लेकिन सिर्फ 25 सीटें जीतीं, जबकि भाजपा (20.4%) और जदयू (19.6%) ने अकेले दम पर तीन गुना से ज्यादा सीटें हासिल कीं। इससे साफ है कि एनडीए ने अपना वोट आधार मजबूत किया, जबकि विपक्षी वोट बिखर गया।
चुनावी आँकड़ों के अनुसार, 243 निर्वाचन क्षेत्रों में से 63 पर जन सुराज, बीएसपी और एआईएमआईएम का संयुक्त प्रभाव पड़ा। इन सीटों पर उनका कुल वोट शेयर जीत के अंतर से ज्यादा रहा। इनमें से एनडीए ने 44 (लगभग 70%) और महागठबंन ने 19 सीटें जीतीं।पारंपरिक रूप से महागठबंधन एनडीए-विरोधी वोट बैंक पर निर्भर रहता है, लेकिन इस चुनाव में तीन तरफा विभाजन हुआ। बीएसपी ने दलित वोट खींचे, एआईएमआईएम ने मुस्लिम वोटों को एकजुट किया, और जन सुराज ने युवा तथा विकास-उन्मुख मतदाताओं को आकर्षित किया। विपक्षी वोटों के इस विभाजन ने एनडीए को कड़े मुकाबलों को निर्णायक जीत में बदलने में मदद की।
यह चुनाव बिहार की राजनीति में छोटे दलों की बढ़ती भूमिका को दिखाता है। एनडीए की जीत के पीछे न सिर्फ नीतीश कुमार और मोदी की लोकप्रियता है, बल्कि विपक्षी खेमे में बिखराव भी प्रमुख फ़ैक्टर रहा। महागठबंधन अब आत्ममंथन करेगा, जबकि छोटे दल भविष्य में और मजबूत आधार बनाने की कोशिश करेंगे।