Bihar Elections 2025 latest: बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को NDA ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया। बल्कि बाद में सीएम का फैसला करने की बात कही। एनडीए को इसका क्या नतीजा भुगतना पड़ेगा, वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार का विश्लेषणः
बीते 25 साल में बिहार में यह पहला चुनाव है जब नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके चुनाव नहीं लड़ा गया। इस दौरान 2015 को छोड़कर जब नीतीश महागठबंधन का चेहरा थे, हर बार नीतीश कुमार एनडीए की ओर से सीएम का चेहरा बनकर पेश किए जाते रहे। यह पहला चुनाव है जब जनता से पहले स्वयं एनडीए ही ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का चेहरा के तौर पर नकार दिया जबकि नीतीश को नेतृत्व से हटाया नहीं जा सका। ऐसे में मतदाताओं का व्यवहार क्या रहने वाला है? क्या वे यह जानकर भी कि अब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे, एनडीए के लिए वोट करेंगे- यह बड़ा सवाल है और मतदान से ठीक पहले इसकी समीक्षा की आवश्यकता दिखती है।
बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार जब पहली बार सन् 2000 में एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर पेश किए गये थे तब भी गठबंधन को बहुमत नहीं मिलने के बावजूद वे मुख्यमंत्री चुन लिए गये थे। भले ही सिर्फ 7 दिन के बाद ही उन्हें इस्तीफा क्यों न देना पड़ा हो। नवंबर 2005 में लालू-राबड़ी की सरकार को सत्ता से बाहर करने में कामयाब होने के बाद नीतीश कुमार ने जब मुख्यमंत्री की कमान संभाली तो फिर आज तक कोई उन्हें सीएम की कुर्सी से हटा नहीं सका। तब भी चुनाव की जंग में नीतीश बतौर सीएम पेश किए गये थे। उसके बाद से लगातार नीतीश कुमार मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किए जाते रहे हैं। 2015 में महागठबंधन की ओर से नीतीश मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किए गये थे।
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि नीतीश कुमार एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किए गये हैं। महत्वपूर्ण यह है कि एनडीए के समांतर महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया है। इसके अतिरिक्त यह भी अहम है कि एनडीए में कोई ऐसा चेहरा भी नहीं है जो नीतीश की जगह लेते हुए दिखाई दे रहा हो। ऐसे में नीतीश कुमार के नाम पर जेडीयू को करीब 15 से साढ़े बाइस प्रतिशत समर्थन देते रहने वाला मतदाता वर्ग एनडीए के प्रति क्या रुख अपनाने वाला है इस पर सबकी नज़र रहने वाली है।
नीतीश कुमार ने ओबीसी के वोट में बड़ी सेंधमारी करते हुए लालू-राबड़ी सरकार को सत्ता से बेदखल करने का समीकरण गढ़ा और बीजेपी से सामान्य वर्ग का समर्थन हासिल करते हुए कथित जंगल राज के सामाजिक समीकरण के समांतर नया समीकरण स्थापित किया। इस समीकरण में लालू-राबड़ी राज में आहत सवर्ण वर्ग ने राहत महसूस की। 2014 के बाद से देश की सियासत में बीजेपी ने ओबीसी वर्ग में मजबूत पकड़ बनायी है लेकिन बिहार में वह आंशिक रूप से ही ऐसा करने में कामयाब रही है। बिहार के मतदाता एनडीए में बीजेपी की सत्ता की लालसा को सवर्ण वर्ग की लालसा के तौर पर देख सकती है। यह सोच सकती है कि कहीं यूपी की तर्ज पर ही बिहार में भी सवर्ण नेतृत्व देने की पर्दे के पीछे से बीजेपी कोई कोशिश तो नहीं कर रही?
नीतीश कुमार ने महिलाओं को बिहार में सशक्त बनाया। पंचायत में 50 फीसदी आरक्षण, पुलिस भर्ती में 35 फीसदी आरक्षण, लड़कियों की पढ़ाई में वजीफे, साइकल, जीविका दीदी, शराब बंदी से महिलाओं को राहत जैसे कदम नीतीश कुमार के नेतृत्व में उठाए गये। इन वजहों से नीतीश कुमार ने महिलाओं के बीच अपना एक मजबूत वोट बैंक तैयार किया जो आज भी हिला नहीं है। इसके अतिरिक्त नीतीश के सुशासन देने के दावे को भी समाज का एक बड़ा वर्ग स्वीकार करता है। शारीरिक रूप से अस्वस्थ दिखने के बावजूद समर्थक वर्ग में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद से हटा देने की कोई बेचैनी नहीं दिखती। फिर भी एनडीए ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं बनाया तो यह बात नीतीश समर्थकों को अवश्य बेचैन कर रही है। हालांकि जेडीयू के सवर्ण नेता ललन सिंह और संजय झा ने बीजेपी के कद्दावर नेता अमित शाह की घोषित रणनीति को स्वीकार किया है जिसमें चुनाव बाद विधानमंडल दल का नेता चुने जाने की बात कही गयी थी।
बिहार में यह पहला चुनाव है जब नीतीश के नेतृत्व वाला गठबंधन चुनाव नहीं लड़ रहा है भले ही ऐसी घोषणा की गयी है। इसका अभिप्राय यह है कि सीट शेयरिंग फॉर्मूला नीतीश ने तय नहीं किया है। यह दिल्ली से अमित शाह ने तय किया है। इसका खुला प्रदर्शन भी किया गया। घटक दल अपनी असंतुष्टि दूर करने के लिए दिल्ली गये और अमित शाह से मुलाकात कर संतुष्ट हुए। मेनीफेस्टो जारी करने के संक्षिप्त अवसर को छोड़ दें तो एनडीए नेताओं की कोई सार्वजनिक प्रेस कॉन्फ्रेन्स या जुटान तक नहीं हुआ। नीतीश के नेतृत्व में चुनाव कभी इस किस्म से नहीं लड़ा गया था। बिहार में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजधानी पटना में रोड शो करें और नीतीश कुमार उनके साथ मौजूद ना हों।
जब 2020 के आम चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी आर ने नीतीश के खिलाफ 135 उम्मीदवार उतारे और नीतीश कुमार को 71 सीटों से घटाकर 43 पर ला खड़ा किया तो यह रणनीति भी बीजेपी की ही मानी गयी। जब नीतीश कुमार ने एनडीए गठबंधन छोड़कर महागठबंधन का दामन थामा और राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन बनाया तब नीतीश के प्रति बीजेपी का सौतेला व्यवहार ही इसकी वजह मानी गयी थी। ऐसे में क्या चुनाव के बाद जनता के बीच हासिल की गयी शक्ति के साथ नीतीश कुमार एक बार फिर एनडीए से अलग अपना राजनीतिक भविष्य देखने की कोशिश तो नहीं करेंगे- यह भी अहम प्रश्न है।
हालांकि उम्र और अस्वस्थता को देखते हुए कुछ लोग इस संभावना को अटकल भी करार दे रहे हैं। मगर, 2025 का विधानसभा चुनाव ऐसा चुनाव है जब जनता ने नीतीश कुमार को नहीं नकारा है लेकिन स्वयं एनडीए ने नीतीश कुमार को सीएम के तौर पर नकार दिया है। इसका फायदा कतई एनडीए को नहीं होगा। इससे इतर सवाल उठते हैं कि क्या एनडीए ने चुनाव से पहले ही अपनी जीत की संभावना को कम कर दिया है? क्या एनडीए ने तेजस्वी के नेतृत्व वाले महागठबंधन को चुनाव गिफ्ट नहीं कर दिया है?